श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 34-42

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 13:19, 29 October 2017 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (Text replacement - "स्वरुप" to "स्वरूप")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

एकादश स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्यायः (13)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्यायः श्लोक 34-42 का हिन्दी अनुवाद

यह जगत् मन का विलास है, दीखने पर भी नष्ट प्राय है, अलातचक्र (लुकारियों की बनेठी) के समान अत्यन्त चंचल है और भ्रममात्र है—ऐसा समझे। ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से रहित एक ज्ञानस्वरूप आत्मा ही अनेक-सा प्रतीत हो रहा है। यह स्थूल शरीर इन्द्रिय और अन्तःकरण रूप तीन प्रकार का विकल्प गुणों के परिणाम की रचना है और स्वप्न के समान माया का खेल है, अज्ञान से कल्पित है । इसलिये उस देहादि रूप दृश्य से दृष्टि हटाकर तृष्णा रहित इन्द्रियों के व्यापार से हीन और निरीह होकर आत्मानन्द के अनुभव में मग्न हो जाय। यद्यपि कभी-कभी आहार आदि के समय यह देहादिक प्रपंच देखने में आता है, तथापि यह पहले ही आत्मवस्तु से अतिरिक्त और मिथ्या समझकर छोड़ा जा चुका है। इसलिये वह पुनः भ्रान्तिमूलक मोह उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हो सकता। देहपात पर्यन्त केवल संस्कार मात्र उसकी प्रतीति होती है । जैसे मदिर पीकर उन्मत्त पुरुष यह नहीं देखता कि मेरे द्वारा पहना हुआ वस्त्र शरीर पर है या गिर गया, वैसे ही सिद्ध पुरुष जिस शरीर से उसने अपने स्वरूप का साक्षात्कार किया है, वह प्रराम्ब्ध वश खड़ा है, बैठा है या दैववश कहीं गया या आया है—नश्वर शरीरसम्बन्धी इन बातों पर दृष्टि नहीं डालता । प्राण और इन्द्रियों के साथ यह शरीर भी प्रारब्ध के अधीन है। इसलिये अपने आरम्भक (बनाने वाले) कर्म जब तक हैं, तब तक उनकी प्रतीक्षा करता ही रहता है। परन्तु आत्मवस्तु का साक्षात्कार करने वाला तथा समाधि पर्यन्त योग में आरूढ़ पुरुष स्त्री, पुत्र, धन आदि प्रपंच के सहित उस शरीर को फिर कभी स्वीकार नहीं करता, अपना नहीं मानता, जैसे जगा हुआ पुरुष स्वप्नावस्था के शरीर आदि को । सनकादि ऋषियों! मैंने तुमसे जो कुछ कहा है, वह सांख्य और योग दोनों का गोपनीय रहस्य है। मैं स्वयं भगवान हूँ, तुम लोगों को तत्वज्ञान का उपदेश करने के लिये ही यहाँ आया हूँ, ऐसा समझो । विप्रवरो! मैं योग, सांख्य, सत्य, ऋत (मधुर भाषण), तेज, श्री, कीर्ति और दम (इन्द्रियनिग्रह)—इन सबका परम गति—परम अधिष्ठान हूँ । मैं समस्त गुणों से रहित हूँ और किसी की अपेक्षा नहीं रखता। फिर भी साम्य, असंगता आदि सभी गुण मेरा ही सेवन करते हैं, मुझमें ही प्रतिष्ठित हैं; क्योंकि मैं सबका हितैषी, सुह्रद्, प्रियतम और आत्मा हूँ। सच पूछो तो उन्हें गुण कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि वे सत्वादि गुणों के परिणाम नहीं हैं और नित्य हैं । प्रिय उद्धव! इस प्रकार मैंने सनकादि मुनियों के संशय मिटा दिये। उन्होंने परम भक्ति से मेरी पूजा की और स्तुतियों द्वारा मेरी महिमा का गान किया । जब उन परमर्षियों ने भलीभाँति मेरी पूजा और स्तुति कर ली, तब मैं ब्रम्हाजी के सामने ही अदृश्य होकर अपने धाम में लौट आया ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः