दोहरी शासन प्रणाली

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द्वैध-शासन, जिसे भारत सरकार अधिनियम[1] द्वारा ब्रिटिश भारत के प्रांतों में लागू किया। भारत के ब्रिटिश प्रशासन की कार्यपालिका शाखा में लोकतंत्र के सिद्धांत की यह पहली शुरुआत थी। काफ़ी आलोचना के बावजूद ब्रिटिश भारत की सरकार में यह नई खोज के रूप में महत्त्व हासिल कर सकी और 1935 में यह भारत की पूर्ण प्रांतीय स्वायत्तता तथा 1947 में आज़ादी की अग्रगामी बनी। ई.एस. मॉन्टेग्यू[2] तथा लॉर्ड चेम्सफ़ोर्ड[3] ने द्वैध-शासन प्रणाली को संवैधानिक सुधार के बतौर लागू किया था।

सिद्धांत

द्वैध-शासन प्रणाली का सिद्धांत था, प्रत्येक प्रांतीय सरकार के बीच कार्यपालिका शाखाओं का सत्तावादी तथा सामान्यतया उत्तरदायी खंडों में विभाजन। प्रथम खंड का गठन जैसे पहले होता था, वैसे ही महारानी द्वारा कार्यकारी पार्षदों की नियुक्ति से किया गया। दूसरे खंड का गठन उन मंत्रियों से होता था, जिनका चयन गवर्नर प्रांतिय विधानसभाओं के निर्वाचित प्रतिनिधिओं में से करते थे। ये मंत्री भारतीय होते थे।

प्रशासन के विभिन्न क्षेत्रों या विषयों का बंटवारा इन मंत्रियों तथा पार्षदों के बीच क्रमशः आरक्षित तथा स्थानांतरित विषयों के नाम से किया गया था। आरक्षित विषय क़ानून और व्यवस्था शीर्षक के अंतर्गत आते थे तथा इसमें न्याय, पुलिस, भू-राजस्व तथा सिंचाई जैसे विषय भी शामिल थे। स्थानांतरित विषयों में[4] स्थानीय निकाय, शिक्षा, लोक स्वास्थ, जनकार्य, कृषि, वन तथा मत्स्यपालन शामिल थे। 1935 में प्रांतीय स्वायत्तता लागू होने के साथ यह प्रणाली समाप्त कर दी गई।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1919
  2. भारत सचिव,1917-22
  3. भारत के वाइसरॉय, 1916-21
  4. अर्थात् वे, जो भारतीय मंत्रियों के अधीन थे

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