असामान्य मनोविज्ञान

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असामान्य मनोविज्ञान मनोविज्ञान की एक शाखा, जो मनुष्यों के असाधारण व्यवहारों, विचारों, ज्ञान, भावनाओं और क्रियाओं का वैज्ञानिक अध्ययन करती है। असामान्य या असाधारण व्यवहार वह है जो सामान्य या साधारण व्यवहार से भिन्न हो। साधारण व्यवहार वह है जो बहुधा देखा जाता है और जिसको देखकर कोई आश्चर्य नहीं होता और न उसके लिए कोई चिंता ही होती है। वैसे तो सभी मनुष्यों के व्यवहार में कुछ न कुछ विशेषता और भिन्नता होती है जो एक व्यक्ति को दूसरे से भिन्न बतलाती है, फिर भी जबतक वह विशेषता अति अद्भुत न हो, कोई उससे उद्विग्न नहीं होता, उसकी ओर किसी का विशेष ध्यान नहीं जाता। पर जब किसी व्यक्ति का व्यवहार, ज्ञान, भावना, या क्रिया दूसरे व्यक्तियों से विशेष मात्रा और विशेष प्रकार से भिन्न हो और इतना भिन्न होकि दूसरे लोगों को विचित्र जान पड़े तो उस क्रिया या व्यवहार को असामान्य या असाधारण कहते हैं।

असामान्य मनोविज्ञान के कई प्रकार होते हैं :

  1. अभावात्मक, जिसमें किसी ऐसे व्यवहार, ज्ञान, भावना और क्रिया में से किसी का अभाव पाया जाए तो साधारण या सामान्य मनुष्यों में पाया जाता हो। जैसे किसी व्यक्ति में किसी प्रकार के इंद्रियज्ञान का अभाव, अथवा कामप्रवृत्ति अथवा क्रियाशक्ति का अभाव।
  2. किसी विशेष शक्ति, ज्ञान, भाव या क्रिया की अधिकता या मात्रा में वृद्धि।
  3. किसी विशेष शक्ति, ज्ञान, भाव या क्रिया की अधिकता या मात्रा में वृद्धि।
  4. असाधारण व्यवहार से इतना भिन्न व्यवहार कि वह अनोखा और आश्चर्यजनक जान पड़े। उदाहरणार्थ कह सकते हैं कि साधारण कामप्रवृत्ति के असामान्य रूप का भाव, काम्ह्रास, कामाधिक्य और विकृत काम हो सकते हैं।

किसी प्रकार की असामान्यता हो तो केवल उसी व्यक्ति को कष्ट और दु:ख नहीं होता जिसमें वह असामान्यता पाई जाती है, बल्कि समाज के लिए भी वह कष्टप्रद होकर एक समस्या बन जाती है। अतएव समाज के लिए असामान्यता एक बड़ी समस्या है। कहा जाता है कि संयुक्त राज्य, अमरीका में १० प्रतिशत व्यक्ति असामान्य हैं, इसी कारण वहाँ का समाज समृद्ध और सब प्रकार से संपन्न होता हुआ थी सुखी नहीं कहा जा सकता।

कुछ असामान्यताएँ तो ऐसी होती हैं कि उनके कारण किसी की विशेष हानि नहीं होती, वे केवल आश्चर्य और कौतूहल का विषय होती हैं, किंतु कुछ असामान्यताएँ ऐसी होती हैं जिनके कारण व्यक्ति का अपना जीवन दु:खी, असफल और असमर्थ हो जाता है, पर उनसे दूसरों को विशेष कष्ट और हानि नहीं होती। उनको साधारण मानसिक रोग कहते हैं। जब मानसिक रोग इस प्रकार का हो जाए कि उससे दूसरे व्यक्तियों को भय, दु:ख, कष्ट और हानि होने लगे ते उसे पागलपन कहते हैं। पागलपन की मात्रा जब अधिक हो जाती है तो उस व्यक्ति को पागलखाने में रखा जाता है, ताकि वह स्वतंत्र रहकर दूसरों के लिए कष्टप्रद और हानिकारक न हो जाए।

उस समय और उन देशों में जब और जहाँ मनोविज्ञान का अधिक ज्ञान नहीं था, मनोरोगी और पागलों के संबंध में यह मिथ्या धारणा थी कि उनपर भूत, पिशाच या हैवान का प्रभाव पड़ गया है और वे उनमें से किसी के वश में होकर असामान्य व्यवहार करते हैं। उनको ठीक करने के लिए पूजा पाठ, मंत्र तंत्र और यंत्र आदि का प्रयोग होता था अथवा उनको बहुत मार पीटकर उनके शरीर से भूत पिशाच या शैतान भगाया जाता था।आधुनिक समय में मनोविज्ञान ने इतनी उन्नति कर ली है कि अब मनोरोग, पागलपन और मनुष्य के असामान्य व्यवहार के कारण, स्वरूप और उपचार को बहुत लोग जान गए हैं।

असामान्य मनोविज्ञान में इन विषयों की विशेष चर्चा होती है :
(1) असामान्यता का स्वरूप और उसकी पहचान।
(2) साधारण मानवीय ज्ञान, क्रियाओं, भावनाओं और व्यक्तित्व तथा सामाजिक व्यवहार के अनेक प्रकारों में अभावात्मक विकृतियों के स्वरूप, लक्षण और कारणों का अध्ययन।
(3) ऐसे मनोरोग जिनमें अनेक प्रकार की मनोविकृतियाँ उनके लक्षणों के रूप में पाई जाती है। इनके होने से व्यक्ति के आचार और व्यवहार में कुछ विचित्रता आ जाती है, पर वह सर्वथा निकम्मा और अयोग्य नहीं हो जाता। इनको साधारण मनोरोग कह सकते हैं। ऐसे किसी रोग में मन में कोई विचार बहुत दृढ़ता के साथ बैठ जाता है और हटाए नहीं हटता। यदा-कदा और अनिवार्य रूप से वह रोगी के मन में आता रहता है। किसी में किसी असामान्य विचित्र और अकारण विशेष भय यदा-कदा और अनिवार्य रूप से अनुभव होता रहता है। जिन वस्तुओं से साधारण मनुष्य नहीं डरते, मानसिक रोगी उनसे भयभीत होता है। कुछ लोग किसी विशेष प्रकार की क्रिया को करने के लिए, जिसकी उनको किसी प्रकार की आवश्यकता नहीं, अपने अंदर से इतने अधिक प्रेरित और बाध्य हो जाते हैं कि उन्हें किए बिना उनको चैन नहीं पड़ती।
(4) असामान्य व्यक्तित्व जिसकी अभिव्यक्ति नाना के उन्मादों (हिस्टीरिया) में होती है। इस रोग में व्यक्ति के स्वभाव, विचारों, भावों और क्रियाओं में स्थिरता, सामंजस्य और परिस्थितियों के प्रति अनुकूलता का अभाव, व्यक्तित्व के गठन की कमी और अपनी ही क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं पर अपने नियंत्रण का ह्रास हो जाता है। द्विव्यक्तित्व अथवा व्यक्तित्व की तब्दीली, निद्रावस्था में उठकर चलना फिरना, अपने नाम, वंश और नगर का विस्मरण होकर दूसरे नाम आदि का ग्रहण कर लेना इत्यादि बातें हो जाती हैं। इस रोग का रोगी, अकारण ही कभी रोने, हंसने, बोलने लगता है; कभी चुप्पी साध लेता है। शरीर में नाना प्रकार की पीड़ाओं और इंद्रियों में नाना प्रकार के ज्ञान का अभाव अनुभव करता है। न वह स्वयं सुखी रहता है और न कुटुब के लोगों को सुखी रहने देता है।
(5) भयंकर मानसिक रोग, जिनके हो जाने से मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन निकम्मा, असफल और दु:खी हो जाता है और समाज के प्रति वह व्यर्थ भाररूप और भयानक हो जाता है; उसको और लोगों से अलग रखने की आवश्यकता पड़ती है।

इस कोटि में ये तीन रोग आते हैं : (अ) उत्साह-विषाद-मय पागलपन-इस रोग में व्यक्ति को एक समय विशेष शक्ति और उत्साह का अनुभव होता हे जिस कारण उसमें असामान्य स्फूर्ति, चपलता, बहुभाषिता, क्रियाशलीता की अभिव्यक्ति होती है और दूसरे समय इसके विपरीत अशक्तता, खिन्नता, ग्लानि, चुप्पी, आलस्य और नाना प्रकार की मनोवेदनाओं का अनुभव होता है। पूर्व अवस्था में व्यक्ति जितना निरर्थक अतिकार्यशील होता है उतना ही दूसरी अवस्था में उत्साहहीन और आलसी हो जाता है। इसके लिए हाथ पैर उठाना और खाना पीना कठिन हो जाता है।
(आ) स्थिर भ्रमात्मक पागलपन-इस रोगवाले व्यक्ति के मन में कोई ऐसा भ्रम स्थिरता और दृढ़ता के साथ बैठ जाता है जो सर्वथा निर्मूल होता है; ऐसा असत्य होता है; उसे वह सत्य और वास्तविक समझता है। उसके जीवन का समस्त व्यवहार इस मिथ्या भ्रम से प्रेरित होता है। अतएव दूसरे लोगों को आश्चर्यजनक जान पड़ता है। बहुधा किसी प्रकार के बड़प्पन से संबंध रखता है जो वास्तव में उस व्यक्ति में नहीं हाता। जैसे, कोई बहुत साधारण या पिछड़ा हुआ व्यक्ति अपने को बहुत बड़ा विद्वान्‌, आविष्कारक, सुधारक, पैगंबर, धनवान, समृद्ध, भाग्यवान, सर्वस्वी, वल्लभ, भगवान्‌ का अवतार, चक्रवर्ती राजा समझकर लोगों से उस प्रकार के व्यक्तित्व के प्रति जो आदर और सम्मान होना चाहिए उसकी आशा करता है। संसार के लाग जब उसकी आशा पूरी करते नहीं दिखाई देते तो ऐसे व्यक्ति के मन में इस परिस्थिति का समाधान करने के लिए एक दूसरा भ्रम उत्पन्न हो जाता है। वह सोचता है कि चूँंकि वह अत्यंत महान्‌ और उत्कृष्ट व्यक्ति है इसलिए दुनिया उससे जलती और उसका निरादर करती है तथा उसको दु:ख और यातना देने एवं उसे मारने को उद्यत रहती है। बड़प्पन का और यातना का दोनों का भ्रम एक दूसरे के पाँचषक होकर ऐस व्यक्ति के व्यवहार को दूसरे लोगों के लिए रहस्यमय और भयप्रद बना देते हैं।
(ई) मन्ह्रोास, व्यक्तित्वप्रणाश या आत्मनाश रोग में पागलपन की पराकाष्ठा हो जाती है। व्यक्ति सर्वथा नष्ट होकर उसके विचारों, भावनाओं और कामों में किसी प्रकार का सामंजस्य, ऐक्य, परिस्थिति अनुकूलता, औचित्य और दृढ़ता नहीं रहती। अपनी किसी क्रिया, भावना या विचार पर उसका नियंत्रण नहीं रहता। देश, काल और परिस्थिति का ज्ञान लुप्त हो जाता है। उसकी सभी बातें अनर्गल और दूसरों की समझ में न आनेवाली होती हैं। वह व्यक्ति न अपने किसी काम का रहता है, न दूसरों के कुछ काम आ सकता है। ऐसे पागल सब कुछ खा लेते हैं; जो जी में आता है, बकते रहते हैं और जो कुछ मन में आता है, कर डालते हैं। न उन्हें लज्जा रहती है और न भय। विवेक का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

(6) अति उच्च प्रतिभाशाली और जन्मजात न्यून प्रतिभावाले व्यक्तियों का अध्ययन भी असामान्य मनोविज्ञान करता है। यद्यपि यह विश्वास बहुत पुराना है (द्र. 'उत्तररामचरित') कि प्रत्येक व्यक्ति की प्रतिभा की मात्रा भिन्न होती है, तथापि कुछ दिनों से पाश्चात्य देशों में मनुष्य की प्रतिभा की मात्रा की भिन्नता (न्यूनता, सामान्यता और अधिकता) को निर्धारित करने की रीति का आविष्कार हो गया है। यदि सामान्य मनुष्य की प्रतिभा की मात्रा की कल्पना 100 की जाए तो संसार में 20 से लेकर 200 मात्रा की प्रतिभावाले व्यक्ति पाए जाते हैं। इनमें से ९० से ११० तक की मात्रावालों को साधारण, ९० से कम मात्रावालों को निम्न और 110 तक की मात्रावालों को उच्च श्रेणी की प्रतिभावाले व्यक्ति कहना होगा। अतिनिम्न, निम्न और ईषत्‌ निम्न तथा अति उच्च, उच्च और ईषत्‌ उच्च मात्रावाले भी बहुत व्यक्ति मिलेंगे। इन विशेष प्रकार की प्रतिभावालों के ज्ञान, भाव और क्रियाओं का अध्ययन भी असामान्य मनोविज्ञान करता है।
(7) असामान्य मनोविज्ञान जाग्रत अवस्था से स्वप्न, सुषुप्ति और समाधि, मूर्छा, सम्मोहित निद्रा, निद्राहीनता और निद्रभ्रमण आदि अवस्थाओं को भी समझने का प्रयत्न करता है और यह जानना चाता है कि जाग्रत अवस्था से इसका क्या संबंध है।
(8) मनुष्य के साधारण जाग्रत व्यवहार में भी कुछ ऐसी विचित्र और आकस्मिक घटनाएँ होती रहती हैं जिनके कारणों का ज्ञान नहीं होता और जिनपर उनके करनेवालों को स्वयं विस्मय होता है। जैसे, किसी के मुंह से कुछ अद्वितीय, अवांछित और अनुपयुक्त शब्दों का निकल पड़ना, कुछ अनुचित बातें कलम से लिख जाना; जिनके करने का इरादा न होते हुए और जिनको करके पछतावा होता है, ऐसे कामों को कर डालना। इस प्रकार की घटनाओं का भी असामान्य मनोविज्ञान अध्ययन करता है।
(9) अपराधियों और विशेषत: उन अपराधियों की मनोवृत्तियों का भी असामान्य मनोविज्ञान अध्ययन करता है जो मन की दुर्बलताओं और मानसिक रुग्णता के कारण एवं अपने अज्ञात मन की प्रेरणाओं और इच्छाओं के कारण अपराध करते हैं।

उपर्युक्त विषयों का वैज्ञानिक रीति से अध्ययन करना असामान्य मनोविज्ञान का काम है, इसपर कोई मतभेद नहीं है; पर इस विज्ञान में इस विषय पर बड़ा मतभेद है कि इन असामान्य और असाधारण घटनाओं के कारण क्या हैं। यह तो सभी वैज्ञानिक मानते हैं कि मनोविकृतियों की उत्पत्ति के कारणों में भूत, पिशाच, शैतान आदि के प्रभाव का मानना अनावश्यक और अवैज्ञानिक है। उनके कारण तो शरीर, मन और सामाजिक परिस्थितियों में ही ढूंढ़ने होंगे। इस संबंध में अनेक मत प्रचलित होते हुए भी तीन मतों को प्रधानता दी जा सकती है और उनमें समन्वय भी किया जा सकता है। वे ये हैं :

  1. शारीरिक तत्वों का रासायनिक ह्रास अथवा अतिवृद्धि। विषैले रासायनिक तत्वों का प्रवेश या अंतरुत्पादन और शारीरिक अंगों तथा अवयवों की, विशेषत: मस्तिष्क और स्नायुओं की, विकृति अथवा विनाश।
  2. सामाजिक परिस्थितियों की अत्यंत प्रतिकूलता और उनसे व्यक्ति के ऊपर अनुपयुक्त दबाव तथा उनके द्वारा व्यक्ति की पराजय। बाहरी आघात और साधनहीनता।
  3. अज्ञात और गुप्त मानसिक वासनाएँ, प्रवृत्तियाँ और भावनाएँ जिनका ज्ञान मन के ऊपर अज्ञात रूप से प्रभाव डालता है। इस दिशामें खोज करने में फ्रायड, एडलर और युंग ने बहुत कार्य किया है और उनकी बहुमूल्य खोजों के आधार पर बहुत से मानसिक रोगों का उपचार भी हो जाता है। मानसिक असामान्यताओं और रोगों का उपचार भी असामान्य मनोविज्ञान के अंतर्गत होता है।[1]

रोगों के कारणों के अध्ययन के आधार पर ही अनेक प्रकार के उपचारों का निर्माण होता है। उनमें प्रधान ये हैं :

  1. रासायनिक कर्मी की पूर्ति।
  2. संमोहन द्वारा निर्देश देकर व्यक्ति की सुप्त शक्तियों का उद्बोधन।
  3. मनोविश्लेषण, जिसके द्वारा अज्ञात मन में निहित कारणों का ज्ञान प्राप्त करके दूर किया जाता है।
  4. मस्तिष्क की शल्यचिकित्सा।
  5. पुन:शिक्षण द्वारा बालकपन में हुए अनुपयुक्त स्वभावों को बदलकर दूसरे स्वभावों और प्रतिक्रियाओं का निर्माण इत्यादि।

अनेक प्रकार की विधियों का प्रयोग मानसिक चिकित्सा में किया जाता है।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 302-04 |
  2. सं.ग्रं.-कोंकलिन : प्रिंसिपल्स ऑव ऐबनार्मल साइकोलॉजी; ब्राउन : साइकोडायनमिक्स ऑव ऐबनार्मल बिहेवियर; फिशर : ऐबनार्मल साइकोलॉजी; पेज : ऐबनार्मल साइकोलॉजी; हार्ट : साइकोलॉजी ऑव इंसैनिटी; मर्फ़ी : ऐन आउटलाइन ऑव ऐबनार्मल साइकोलॉजी।

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