अहुरमज़्द

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अहुरमज़्द प्राचीन ईरान के पैगंबर ज़रथुस्त्र की ईश्वर (अहु=स्वामी, मज़्द= चरम ज्ञान) को प्रदत्त संज्ञा। सर्वद्रष्टा, सर्वशक्तिमान्‌, सृष्टि के एक कर्ता, पालक एवं सर्वोपरि तथा अद्वितीय, जिसे वंचना छू नहीं सकती और जो निष्कलंक है। पैगंबर की 'गाथाओं' अथवा स्तोत्रों में ईश्वर की प्राचीनतम, महत्तम एवं अत्यंत पवित्र भावना का समावेश मिलता है और उसमें प्राकृतिक शक्ति (ऐंथ्रापॉमर्फ़िक) पूजा का सर्वथा अभाव है जो प्राचीन आर्य और सामी देवताओं की विशेषता थी। धार्मिक नियमों में जिनका पालन करना प्रत्येक ज़रथुस्त्र मतावलंबी का कर्तव्य माना जाता है; उसे इस प्रकार कहना पड़ता है-"मैं अहुरमज्द के दर्शन में आस्था रखता हूँ... मैं असत देवताओं की प्रभुता तथा उनमें विश्वास रखनेवालों की अवहेलना करता हूँ।"

इस प्रकार प्रत्येक नवमतानुयायी प्रकाश का सैनिक होता है, जिसका पुनीत कर्तव्य अंधकार और वासना की शक्तियों से धर्मसंस्थान के लिए लड़ना है। "ऐ मज़्द! जब मैंने तुम्हारा प्रथम साक्षात पाया", इस प्रकार पैगंबर ने एक सुप्रसिद्ध पद में कहा है, "मैंने तुम्हें केवल विश्व के आदि कर्ता के रूप में अभिव्यक्त पाया ओर तुमको ही विवेक का स्रष्टा (श्रेष्ठ, मिन्‌) एवं सद्धर्म का वास्तविक सर्जक तथा मानव जाति के समस्त कर्मों का नियामक समझा।"

अहुरमज़्द का साक्षात्‌ केवल ध्यान का विषय है। पैगंबर ने इसी लिए ऐसी उपमाओं और रूपकों का आश्रय लेकर ईश्वर के विषय में समझाने का प्रयास किया है जिनके द्वारा अनंत की कल्पना साधारण मनुष्य की समझ में आ पाए। वह ईश्वर से स्वयं वाणी में प्रकट होकर उपदेश करने के लिए अराधना करता है और इस बात का निर्देश करता है कि अपने चक्षुओं से सभी व्यक्त एवं अव्यक्त वस्तुओं को देखता है। इस प्रकार की अभिव्यंजनाएँ प्रतीकात्मक ही कही जाएँगी।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 320-21 |

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