उपोसथ

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उपोसथ बौद्ध भिक्षुओं तथा भिक्षुणियों की पाक्षिक दोष-स्वीकार-सभा को 'उपोसथ' कहते हैं (संस्कृत उपवसथ=सोमयाग का दिन)। प्रांरभ में बौद्ध संघ में उपोसथ के चार दिन हुआ करते थे-प्रत्येक पक्ष की अष्टमी तथा चतुर्दशी अथवा पूर्णिमा और अमावस्या। पीछे चार से घटाकर दो दिन नियत कर दिए गए-पूर्णिमा और अमावस्या। उस दिन विहार की सीमा के भीतर रहनेवाले भिक्षुओं को उपोसथ सभा में उपस्थित होना पड़ता था। सभा का सभापति 'पातिमोक्खसुत्त' का पाठ करता था और प्रत्येक भिक्षु को अपने विहित दोषों को प्राख्यापित करने की आज्ञा देता था। यदि प्रख्यापनों के द्वारा दोष साधारण कोटि के सिद्ध होते, तो दोष स्वीकार मात्र से वह भिक्षु दोषमुक्त माना जाता था। अन्यथा उसे सभा छोड़ना तथा भिक्षुसमिति के द्वारा विहित दंड भोगना पड़ता था। उपासकों (बौद्ध गृहस्थों) को इन दिनों अष्टशीलों का पालन करने की प्रतिज्ञा करनी पड़ती और भिक्षुओं को भोजन कराना पड़ता था। पातिमोक्खसुत्त विनयपिटक के अंतर्गत है और इसमें भिक्षुओं के पालन के निर्मित्त 227 नियमों का वर्णन है। 'भिक्षुणीपातिमोक्ख' में भिक्खुणियों के पालनार्थ ऐस ही नियमों का निर्देश है तथा कतिपय नियम और भी जोड़े गए हैं।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 126 |

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