Difference between revisions of "चालुक्य वंश"

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'''चालुक्यों''' की उत्पत्ति का विषय अत्यंत ही विवादास्पद है। [[वराहमिहिर]] की 'बृहत्संहिता' में इन्हें 'शूलिक' जाति का माना गया है, जबकि [[पृथ्वीराजरासो]] में इनकी उत्पति [[माउंट आबू|आबू पर्वत]] पर किये गये यज्ञ के अग्निकुण्ड से बतायी गयी है। 'विक्रमांकदेवचरित' में इस वंश की उत्पत्ति भगवान ब्रह्म के चुलुक से बताई गई है। इतिहासविद् 'विन्सेण्ट ए. स्मिथ' इन्हें विदेशी मानते हैं। 'एफ. फ्लीट' तथा 'के.ए. नीलकण्ठ शास्त्री' ने इस वंश का नाम 'चलक्य' बताया है। 'आर.जी. भण्डारकरे' ने इस वंश का प्रारम्भिक नाम 'चालुक्य' का उल्लेख किया है। [[ह्वेनसांग]] ने चालुक्य नरेश [[पुलकेशी द्वितीय]] को क्षत्रिय कहा है। इस प्रकार चालुक्य नरेशों की वंश एवं उत्पत्ति का कोई अभिलेखीय साक्ष्य नहीं मिलता है।
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'''चालुक्यों''' की उत्पत्ति का विषय अत्यंत ही विवादास्पद है। [[वराहमिहिर]] की 'बृहत्संहिता' में इन्हें 'शूलिक' जाति का माना गया है, जबकि [[पृथ्वीराजरासो]] में इनकी उत्पति [[आबू पर्वत]] पर किये गये यज्ञ के अग्निकुण्ड से बतायी गयी है। 'विक्रमांकदेवचरित' में इस वंश की उत्पत्ति भगवान ब्रह्म के चुलुक से बताई गई है। इतिहासविद् 'विन्सेण्ट ए. स्मिथ' इन्हें विदेशी मानते हैं। 'एफ. फ्लीट' तथा 'के.ए. नीलकण्ठ शास्त्री' ने इस वंश का नाम 'चलक्य' बताया है। 'आर.जी. भण्डारकरे' ने इस वंश का प्रारम्भिक नाम 'चालुक्य' का उल्लेख किया है। [[ह्वेनसांग]] ने चालुक्य नरेश [[पुलकेशी द्वितीय]] को क्षत्रिय कहा है। इस प्रकार चालुक्य नरेशों की वंश एवं उत्पत्ति का कोई अभिलेखीय साक्ष्य नहीं मिलता है।
 
==वंश शाखाएँ==
 
==वंश शाखाएँ==
[[दक्षिणपथ]] [[मौर्य काल|मौर्य साम्राज्य]] के अंतर्गत था। जब मौर्य सम्राटों की शक्ति शिथिल हुई, और [[भारत]] में अनेक प्रदेश उनकी अधीनता से मुक्त होकर स्वतंत्र होने लगे, तो दक्षिणापथ में [[सातवाहन वंश]] ने अपने एक पृथक राज्य की स्थापना की। कालान्तर में इस सातवाहन वंश का बहुत ही उत्कर्ष हुआ, और इसने [[मगध]] पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। शकों के साथ निरन्तर संघर्ष के कारण जब इस राजवंश की शक्ति क्षीण हुई, तो दक्षिणापथ में अनेक नए राजवंशों का प्रादुर्भाव हुआ, जिसमें [[वाकाटक वंश|वाकाटक]], [[कदम्ब वंश|कदम्ब]] और [[पल्लव वंश]] के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन्हीं वंशों में से वातापि या [[बादामी कर्नाटक|बादामी]] का चालुक्य वंश और [[कर्नाटक|कल्याणी]] का चालुक्य वंश भी एक था।
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[[दक्षिणपथ]] [[मौर्य काल|मौर्य साम्राज्य]] के अंतर्गत था। जब मौर्य सम्राटों की शक्ति शिथिल हुई, और [[भारत]] में अनेक प्रदेश उनकी अधीनता से मुक्त होकर स्वतंत्र होने लगे, तो दक्षिणापथ में [[सातवाहन वंश]] ने अपने एक पृथक् राज्य की स्थापना की। कालान्तर में इस सातवाहन वंश का बहुत ही उत्कर्ष हुआ, और इसने [[मगध]] पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। शकों के साथ निरन्तर संघर्ष के कारण जब इस राजवंश की शक्ति क्षीण हुई, तो दक्षिणापथ में अनेक नए राजवंशों का प्रादुर्भाव हुआ, जिसमें [[वाकाटक वंश|वाकाटक]], [[कदम्ब वंश|कदम्ब]] और [[पल्लव वंश]] के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन्हीं वंशों में से वातापि या [[बादामी]] का चालुक्य वंश और [[कर्नाटक|कल्याणी]] का चालुक्य वंश भी एक था।
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==वातापी व बादामी का चालुक्य वंश==
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छठी [[शताब्दी]] के मध्य से लेकर आठवीं शताब्दी के मध्य तक दक्षिणापथ पर जिस चालुक्य वंश की शाखा का अधिपत्य रहा उसका उत्कर्ष स्थल [[बादामी]] या वातापी होने के कारण उसे बादामी या वातापी चालुक्य कहा जाता है। इस शाखा को पूर्वकालीन पश्चिमी चालुक्य भी कहा जाता है। पुलकेशिन द्वितीय के एहोल [[अभिलेख]] से बादामी के चालुक्यों के बार में प्रमाणिक ज्ञान प्राप्त होता है। ऐहोल लेख की रचना रविकृत ने की थी।
 
==वातापी का चालुक्य वंश==
 
==वातापी का चालुक्य वंश==
'''वाकाटक वंश के राजा बड़े प्रतापी थे''', और उन्होंने विदेशी [[कुषाण|कुषाणों]] की शक्ति का क्षय करने में बहुत अधिक कर्तृत्व प्रदर्शित किया था। इन राजाओं ने अपनी विजयों के उपलक्ष्य में अनेक [[अश्वमेध यज्ञ|अश्वमेध यज्ञों]] का भी अनुष्ठान किया। पाँचवीं सदी के प्रारम्भ में गुप्तों के उत्कर्ष के कारण इस वंश के राज्य की स्वतंत्र सत्ता का अन्त हुआ। [[कदम्ब वंश]] का राज्य उत्तरी कनारा बेलगाँव और धारवाड़ के प्रदेशों में था। प्रतापी गुप्त सम्राटों ने इसे भी [[गुप्त साम्राज्य]] की अधीनता में लाने में सफलता प्राप्त की थी। [[पल्लव वंश]] की राजधानी [[कांची]] थी, और सम्राट [[समुद्रगुप्त]] ने उसकी भी विजय की थी। [[गुप्त साम्राज्य]] के क्षीण होने पर उत्तरी भारत के समान दक्षिणापथ में भी अनेक राजवंशों ने स्वतंत्रतापूर्वक शासन करना प्रारम्भ किया। दक्षिणापथ के इन राज्यों में [[चालुक्य वंश|चालुक्य]] और [[राष्ट्रकूट वंश|राष्ट्रकूट वंशों]] के द्वारा स्थापित राज्य प्रधान थे। उनके अतिरिक्त [[देवगिरि का यादव वंश|देवगिरि के यादव]], वारंगल के [[काकतीय वंश|काकतीय]], कोंकण के शिलाहार, बनवासी के कदम्ब, तलकाड के [[गंग वंश|गंग]] और द्वारसमुद्र के [[होयसल वंश|होयसल वंशों]] ने भी इस युग में [[दक्षिणापथ]] के विविध प्रदेशों पर शासन किया। जिस प्रकार उत्तरी भारत में विविध राजवंशों के प्रतापी व महत्त्वाकांक्षी राजा विजय यात्राएँ करने और अन्य राजाओं को जीतकर अपना उत्कर्ष करने के लिए तत्पर रहते थे, वही दशा दक्षिणापथ में भी थी।
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[[वाकाटक वंश]] के राजा बड़े प्रतापी थे और उन्होंने विदेशी [[कुषाण|कुषाणों]] की शक्ति का क्षय करने में बहुत अधिक कर्तृत्व प्रदर्शित किया था। इन राजाओं ने अपनी विजयों के उपलक्ष्य में अनेक [[अश्वमेध यज्ञ|अश्वमेध यज्ञों]] का भी अनुष्ठान किया। पाँचवीं [[सदी]] के प्रारम्भ में गुप्तों के उत्कर्ष के कारण इस वंश के राज्य की स्वतंत्र सत्ता का अन्त हुआ। [[कदम्ब वंश]] का राज्य उत्तरी कनारा बेलगाँव और धारवाड़ के प्रदेशों में था। प्रतापी गुप्त सम्राटों ने इसे भी [[गुप्त साम्राज्य]] की अधीनता में लाने में सफलता प्राप्त की थी। [[पल्लव वंश]] की राजधानी [[कांची]] थी, और सम्राट [[समुद्रगुप्त]] ने उसकी भी विजय की थी। [[गुप्त साम्राज्य]] के क्षीण होने पर उत्तरी भारत के समान दक्षिणापथ में भी अनेक राजवंशों ने स्वतंत्रतापूर्वक शासन करना प्रारम्भ किया। दक्षिणापथ के इन राज्यों में [[चालुक्य वंश|चालुक्य]] और [[राष्ट्रकूट वंश|राष्ट्रकूट वंशों]] के द्वारा स्थापित राज्य प्रधान थे। उनके अतिरिक्त [[देवगिरि का यादव वंश|देवगिरि के यादव]], [[वारंगल]] के [[काकतीय वंश|काकतीय]], कोंकण के शिलाहार, बनवासी के कदम्ब, [[तलकाड़]] के [[गंग वंश|गंग]] और द्वारसमुद्र के [[होयसल वंश|होयसल वंशों]] ने भी इस युग में [[दक्षिणापथ]] के विविध प्रदेशों पर शासन किया। जिस प्रकार उत्तरी भारत में विविध राजवंशों के प्रतापी व महत्त्वाकांक्षी राजा विजय यात्राएँ करने और अन्य राजाओं को जीतकर अपना उत्कर्ष करने के लिए तत्पर रहते थे, वही दशा दक्षिणापथ में भी थी।
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==वातापी के चालुक्य वंश का अन्त==
 
==वातापी के चालुक्य वंश का अन्त==
 
{{tocright}}
 
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[[विक्रमादित्य द्वितीय]] के बाद 744 ई. के लगभग [[कीर्तिवर्मा द्वितीय]] विशाल चालुक्य साम्राज्य का स्वामी बना। पर वह अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित साम्राज्य को क़ायम रखने में असमर्थ रहा। [[दन्तिदुर्ग]] नामक राष्ट्रकूट नेता ने उसे परास्त कर [[महाराष्ट्र]] में एक नए राजवंश की नींव डाली, और धीरे-धीरे राष्ट्रकूटों का यह वंश इतना शक्तिशाली हो गया, कि चालुक्यों का अन्त कर दक्षिणापथ पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। चालुक्यों के राज्य का अन्त 753 ई. के लगभग हुआ। [[वातापी कर्नाटक|वातापी]] के चालुक्य राजा न केवल वीर और विजेता थे, अपितु उन्होंने साहित्य, वास्तुकला आदि के संरक्षण व संवर्धन की ओर भी अपना ध्यान दिया।
 
[[विक्रमादित्य द्वितीय]] के बाद 744 ई. के लगभग [[कीर्तिवर्मा द्वितीय]] विशाल चालुक्य साम्राज्य का स्वामी बना। पर वह अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित साम्राज्य को क़ायम रखने में असमर्थ रहा। [[दन्तिदुर्ग]] नामक राष्ट्रकूट नेता ने उसे परास्त कर [[महाराष्ट्र]] में एक नए राजवंश की नींव डाली, और धीरे-धीरे राष्ट्रकूटों का यह वंश इतना शक्तिशाली हो गया, कि चालुक्यों का अन्त कर दक्षिणापथ पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। चालुक्यों के राज्य का अन्त 753 ई. के लगभग हुआ। [[वातापी कर्नाटक|वातापी]] के चालुक्य राजा न केवल वीर और विजेता थे, अपितु उन्होंने साहित्य, वास्तुकला आदि के संरक्षण व संवर्धन की ओर भी अपना ध्यान दिया।
 
==कल्याणी का चालुक्य वंश==
 
==कल्याणी का चालुक्य वंश==
'''चालुक्यों की मुख्य शाखा का अन्तिम महत्त्वपूर्ण''' शासक सम्भवतः [[कीर्तिवर्मा द्वितीय]] था। चालुक्यों की कुछ छोटी शाखाओं ने भी कुछ दिन तक शासन किया। ऐसी ही एक शाखा कल्याणी के चालुक्यों की थी, जिसका महत्त्वपूर्ण शासक तैल अथवा [[तैल चालुक्य|तैलप द्वितीय]] था, आरम्भ में वह [[राष्ट्रकूट वंश|राष्ट्रकूटों]] का सामन्त था, परन्तु बाद में राष्ट्रकूटों की दुर्बलता का लाभ उठाकर वह एक स्वतंत्र शासक बन गया। उसने अन्तिम राष्ट्रकूट शासक कक्र को अपदस्त कर सत्ता पर अधिकार कर लिया। इसकी पत्नी [[जक्कल महादेवी]] थी, जो राष्ट्रकूट शासक भामह की पुत्री थी। सत्तारूढ़ होने के बाद तैलप ने अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार करना आरम्भ किया। उसके इस साम्राज्य विस्तारवादी नीति का प्रबल विरोधी [[गंग वंश|गंग]] नरेश [[पांचाल देव]] था। दोनों के मध्य कई बार युद्ध हुआ। अन्त में वेल्लारी के सामन्त शासक [[गंगभूतिदेव]] की सहायता से तैलप ने पांचाल देव को पराजित कर मार दिया। इस महत्त्वपूर्ण विजय के उपलक्ष्य में तैलप द्वितीय ने 'पांचलमर्दनपंचानन' का विरुद्व धारण किया तथा अपने सहायक गंगभूतिदेव को तोरगाले का शासक बनाकर उसे 'आहवमल्ल' की उपाधि से अलंकृत किया। तैलप द्वितीय ने [[चेदि]], [[उड़ीसा]] और कुंतल ने शासक उत्तम [[चोल वंश|चोल]] तथा [[मालवा]] के [[परमार वंश|परमार]] राजा मुंज को पराजित किया। तैलप द्वितीय द्वारा मुंज के स्थान का उल्लेख आवन्तरकालीन ग्रन्थ [[आइना-ए-अकबरी]] तथा [[उज्जैन]] से प्राप्त अभिलेख में मिलता है। [[कन्नड़ भाषा|कन्नड़]] कथाओं में तैलप द्वितीय को भगवान [[श्रीकृष्ण]] का अवतार कहा गया है। उसने 'भुनैकमल्ल', 'महासामन्तधिपति', 'आहमल्ल', 'महाराजाधिराज', 'परमेश्वर', 'परमभट्टारक', 'चालुक्यभरण', 'सत्याश्रम', 'कुलतिलक' तथा 'समस्तभुवनाश्रय' आदि उपाधियां धारण की थीं। पहले चालुक्य वंश की राजधानी [[वातापी कर्नाटक|वातापी]] थी, पर इस नये चालुक्य वंश ने [[कल्याणी कर्नाटक|कल्याणी]] को राजधानी बनाकर अपनी शक्ति का विस्तार किया। इसीलिए ये 'कल्याणी के चालुक्य' कहलाते हैं।
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'''चालुक्यों की मुख्य शाखा का अन्तिम महत्त्वपूर्ण''' शासक सम्भवतः [[कीर्तिवर्मा द्वितीय]] था। चालुक्यों की कुछ छोटी शाखाओं ने भी कुछ दिन तक शासन किया। ऐसी ही एक शाखा कल्याणी के चालुक्यों की थी, जिसका महत्त्वपूर्ण शासक तैल अथवा [[तैल चालुक्य|तैलप द्वितीय]] था, आरम्भ में वह [[राष्ट्रकूट वंश|राष्ट्रकूटों]] का सामन्त था, परन्तु बाद में राष्ट्रकूटों की दुर्बलता का लाभ उठाकर वह एक स्वतंत्र शासक बन गया। उसने अन्तिम राष्ट्रकूट शासक कक्र को अपदस्त कर सत्ता पर अधिकार कर लिया। इसकी पत्नी 'जक्कल महादेवी' थी, जो राष्ट्रकूट शासक भामह की पुत्री थी। सत्तारूढ़ होने के बाद तैलप ने अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार करना आरम्भ किया। उसके इस साम्राज्य विस्तारवादी नीति का प्रबल विरोधी [[गंग वंश|गंग]] नरेश [[पांचाल देव]] था। दोनों के मध्य कई बार युद्ध हुआ। अन्त में वेल्लारी के सामन्त शासक [[गंगभूतिदेव]] की सहायता से तैलप ने पांचाल देव को पराजित कर मार दिया। इस महत्त्वपूर्ण विजय के उपलक्ष्य में तैलप द्वितीय ने 'पांचलमर्दनपंचानन' का विरुद्व धारण किया तथा अपने सहायक गंगभूतिदेव को तोरगाले का शासक बनाकर उसे '[[आहवमल्ल]]' की उपाधि से अलंकृत किया। तैलप द्वितीय ने [[चेदि]], [[उड़ीसा]] और कुंतल ने शासक उत्तम [[चोल वंश|चोल]] तथा [[मालवा]] के [[परमार वंश|परमार]] राजा मुंज को पराजित किया। तैलप द्वितीय द्वारा मुंज के स्थान का उल्लेख आवन्तरकालीन ग्रन्थ [[आइना-ए-अकबरी]] तथा [[उज्जैन]] से प्राप्त अभिलेख में मिलता है। [[कन्नड़ भाषा|कन्नड़]] कथाओं में तैलप द्वितीय को भगवान [[श्रीकृष्ण]] का अवतार कहा गया है। उसने 'भुनैकमल्ल', 'महासामन्तधिपति', 'आहमल्ल', 'महाराजाधिराज', 'परमेश्वर', 'परमभट्टारक', 'चालुक्यभरण', 'सत्याश्रम', 'कुलतिलक' तथा 'समस्तभुवनाश्रय' आदि उपाधियां धारण की थीं। पहले चालुक्य वंश की राजधानी [[वातापी कर्नाटक|वातापी]] थी, पर इस नये चालुक्य वंश ने [[कल्याणी कर्नाटक|कल्याणी]] को राजधानी बनाकर अपनी शक्ति का विस्तार किया। इसीलिए ये 'कल्याणी के चालुक्य' कहलाते हैं।
  
 
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==चालुक्य शक्ति में निर्बलता==
 
==चालुक्य शक्ति में निर्बलता==
[[सोमेश्वर तृतीय]] के बाद [[कल्याणी कर्नाटक|कल्याणी]] के चालुक्य वंश का क्षय शुरू हो गया। 1138 ई. में [[सोमेश्वर तृतीय]] की मृत्यु हो जाने पर उसका पुत्र [[जगदेकमल्ल द्वितीय]] राजा बना। इस राजा के शासन काल में चालुक्यों में निर्बलता आ गई। अन्हिलवाड़ा कुमारपाल (1143-1171) के जगदेकमल्ल के साथ अनेक युद्ध हुए, जिनमें कुमारपाल विजयी हुआ। 1151 ई. में जगदेकमल्ल की मृत्यु के बाद [[तैलप तृतीय|तैल]] ने कल्याणी का राजसिंहासन प्राप्त किया। उसका मंत्री व सेनापति विज्जल था, जो [[कलचुरी वंश]] का था। विज्जल इतना शक्तिशाली व्यक्ति था, कि उसने राजा तैल को अपने हाथों में कठपुतली के समान बना रखा था। बहुत से सामन्त उसके हाथों में थे। उनकी सहायता से 1156 ई. के लगभग विज्जल ने तैल को राज्यच्युत कर स्वयं कल्याणी की राजगद्दी पर अपना अधिकार कर लिया, और वासव को अपना मंत्री नियुक्त किया।
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[[सोमेश्वर तृतीय]] के बाद [[कल्याणी कर्नाटक|कल्याणी]] के चालुक्य वंश का क्षय शुरू हो गया। 1138 ई. में [[सोमेश्वर तृतीय]] की मृत्यु हो जाने पर उसका पुत्र [[जगदेकमल्ल द्वितीय]] राजा बना। इस राजा के शासन काल में चालुक्यों में निर्बलता आ गई। अन्हिलवाड़ा [[कुमारपाल]] (1143-1172 ई.) के जगदेकमल्ल के साथ अनेक युद्ध हुए, जिनमें कुमारपाल विजयी हुआ। 1151 ई. में जगदेकमल्ल की मृत्यु के बाद [[तैलप तृतीय|तैल]] ने कल्याणी का राजसिंहासन प्राप्त किया। उसका मंत्री व सेनापति विज्जल था, जो [[कलचुरी वंश]] का था। विज्जल इतना शक्तिशाली व्यक्ति था, कि उसने राजा तैल को अपने हाथों में कठपुतली के समान बना रखा था। बहुत से सामन्त उसके हाथों में थे। उनकी सहायता से 1156 ई. के लगभग विज्जल ने तैल को राज्यच्युत कर स्वयं कल्याणी की राजगद्दी पर अपना अधिकार कर लिया, और वासव को अपना मंत्री नियुक्त किया।
 
==कल्याणी के चालुक्य वंश का अन्त==
 
==कल्याणी के चालुक्य वंश का अन्त==
 
[[भारत]] के धार्मिक इतिहास में 'वासव' का बहुत अधिक महत्त्व है। वह लिंगायत सम्प्रदाय का प्रवर्तक था। जिसका दक्षिणी भारत में बहुत प्रचार हुआ। विज्जल स्वयं [[जैन धर्म|जैन]] था, अतः राजा और मंत्री में विरोध उत्पन्न हो गया। इसके परिणामस्वरूप वासव ने विज्जल की हत्या कर दी। विज्जल के बाद उसके पुत्र 'सोविदेव' ने राज्य प्राप्त किया, और वासव की शक्ति को अपने क़ाबू में लाने में सफलता प्राप्त की। धार्मिक विरोध के कारण विज्जल और सोविदेव के समय में जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी, चालुक्य राजा तैल के पुत्र [[सोमेश्वर चतुर्थ]] ने उससे लाभ उठाया, और 1183 ई. में सोविदेव को परास्त कर चालुक्य कुल के गौरव को फिर से स्थापित किया। पर चालुक्यों की यह शक्ति देर तक स्थिर नहीं रह सकी। विज्जल और सोविदेव के समय में [[कल्याणी कर्नाटक|वातापी]] के राज्य में जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी, उसके कारण बहुत से सामन्त व अधीनस्थ राजा स्वतंत्र हो गए, और अन्य अनेक राजवंशों के प्रतापी व महत्त्वकांक्षी राजाओं ने विजय यात्राएँ कर अपनी शक्ति का उत्कर्ष शुरू कर दिया। इन प्रतापी राजाओं में देवगिरि के यादव राजा भिल्लम का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 1187 ई. में भिल्लम ने चालुक्य राजा सोमेश्वर चतुर्थ को परास्त कर कल्याणी पर अधिकार कर लिया, और इस प्रकार प्रतापी चालुक्य वंश का अन्त हुआ।
 
[[भारत]] के धार्मिक इतिहास में 'वासव' का बहुत अधिक महत्त्व है। वह लिंगायत सम्प्रदाय का प्रवर्तक था। जिसका दक्षिणी भारत में बहुत प्रचार हुआ। विज्जल स्वयं [[जैन धर्म|जैन]] था, अतः राजा और मंत्री में विरोध उत्पन्न हो गया। इसके परिणामस्वरूप वासव ने विज्जल की हत्या कर दी। विज्जल के बाद उसके पुत्र 'सोविदेव' ने राज्य प्राप्त किया, और वासव की शक्ति को अपने क़ाबू में लाने में सफलता प्राप्त की। धार्मिक विरोध के कारण विज्जल और सोविदेव के समय में जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी, चालुक्य राजा तैल के पुत्र [[सोमेश्वर चतुर्थ]] ने उससे लाभ उठाया, और 1183 ई. में सोविदेव को परास्त कर चालुक्य कुल के गौरव को फिर से स्थापित किया। पर चालुक्यों की यह शक्ति देर तक स्थिर नहीं रह सकी। विज्जल और सोविदेव के समय में [[कल्याणी कर्नाटक|वातापी]] के राज्य में जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी, उसके कारण बहुत से सामन्त व अधीनस्थ राजा स्वतंत्र हो गए, और अन्य अनेक राजवंशों के प्रतापी व महत्त्वकांक्षी राजाओं ने विजय यात्राएँ कर अपनी शक्ति का उत्कर्ष शुरू कर दिया। इन प्रतापी राजाओं में देवगिरि के यादव राजा भिल्लम का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 1187 ई. में भिल्लम ने चालुक्य राजा सोमेश्वर चतुर्थ को परास्त कर कल्याणी पर अधिकार कर लिया, और इस प्रकार प्रतापी चालुक्य वंश का अन्त हुआ।
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==वेंगि का चालुक्य वंश==
 
==वेंगि का चालुक्य वंश==
 
'''प्राचीन समय में चालुक्यों के अनेक राजवंशों''' ने दक्षिणापथ व [[गुजरात]] में शासन किया था। इनमें से [[अन्हिलवाड़]] (गुजरात) [[वातापी कर्नाटक|वातापी]] और [[कल्याणी कर्नाटक|कल्याणी]] को राजधानी बनाकर शासन करने वाले [[चालुक्य वंश]] थे। पर इन तीनों के अतिरिक्त चालुक्य का एक अन्य वंश भी था, जिसकी राजधानी वेंगि थी। यह इतिहास में 'पूर्वी चालुक्य' के नाम से विख्यात है, क्योंकि इसका राज्य चालुक्यों के मुख्य राजवंश (जिसने कल्याणी को राजधानी बनाकर शासन किया) के राज्य से पूर्व में स्थित था। इनसे पृथक्त्व प्रदर्शित करने के लिए कल्याणी के राजवंश को 'पश्चिमी चालुक्य राजवंश' भी कहा जाता है। इतिहास में वेंगि के पूर्वी चालुक्य वंश का बहुत अधिक महत्त्व नहीं है, क्योंकि उसके राजाओं ने न किसी बड़े साम्राज्य के निर्माण में सफलता प्राप्त की, और न दूर-दूर तक विजय यात्राएँ कीं। पर क्योंकि कुछ समय तक उसके राजाओं ने भी स्वतंत्र रूप से राज्य किया, अतः उनके सम्बन्ध में भी संक्षिप्त विवरण प्राप्त होता है।
 
'''प्राचीन समय में चालुक्यों के अनेक राजवंशों''' ने दक्षिणापथ व [[गुजरात]] में शासन किया था। इनमें से [[अन्हिलवाड़]] (गुजरात) [[वातापी कर्नाटक|वातापी]] और [[कल्याणी कर्नाटक|कल्याणी]] को राजधानी बनाकर शासन करने वाले [[चालुक्य वंश]] थे। पर इन तीनों के अतिरिक्त चालुक्य का एक अन्य वंश भी था, जिसकी राजधानी वेंगि थी। यह इतिहास में 'पूर्वी चालुक्य' के नाम से विख्यात है, क्योंकि इसका राज्य चालुक्यों के मुख्य राजवंश (जिसने कल्याणी को राजधानी बनाकर शासन किया) के राज्य से पूर्व में स्थित था। इनसे पृथक्त्व प्रदर्शित करने के लिए कल्याणी के राजवंश को 'पश्चिमी चालुक्य राजवंश' भी कहा जाता है। इतिहास में वेंगि के पूर्वी चालुक्य वंश का बहुत अधिक महत्त्व नहीं है, क्योंकि उसके राजाओं ने न किसी बड़े साम्राज्य के निर्माण में सफलता प्राप्त की, और न दूर-दूर तक विजय यात्राएँ कीं। पर क्योंकि कुछ समय तक उसके राजाओं ने भी स्वतंत्र रूप से राज्य किया, अतः उनके सम्बन्ध में भी संक्षिप्त विवरण प्राप्त होता है।
*'''जिस समय''' [[वातापी कर्नाटक|वातापी]] के प्रसिद्ध चालुक्य सम्राट [[पुलकेशी द्वितीय]] ने (सातवीं सदी के पूर्वार्ध में) [[दक्षिणापथ]] में अपने विशाल साम्राज्य की स्थापना की, उसने अपने छोटे भाई 'कुब्ज विष्णुवर्धन' को वेंगि का शासन करने के लिए नियुक्त किया था। 'विष्णुवर्धन' की स्थिति एक प्रान्तीय शासक के समान थी, और वह [[पुलकेशी द्वितीय]] की ओर से ही [[कृष्णा नदी|कृष्णा]] और [[गोदावरी नदी|गोदावरी नदियों]] के मध्यवर्ती प्रदेश का शासन करता था। पर उसका पुत्र 'जयसिंह प्रथम' पूर्णतया स्वतंत्र हो गया था, और इस प्रकार पूर्वी चालुक्य वंश का प्रादुर्भाव हुआ। इस वंश के स्वतंत्र राज्य का प्रारम्भकाल सातवीं सदी के मध्य भाग में था।  
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*'''जिस समय''' [[वातापी कर्नाटक|वातापी]] के प्रसिद्ध चालुक्य सम्राट [[पुलकेशी द्वितीय]] ने (सातवीं [[सदी]] के पूर्वार्ध में) [[दक्षिणापथ]] में अपने विशाल साम्राज्य की स्थापना की, उसने अपने छोटे भाई '[[कुब्ज विष्णुवर्धन]]' को वेंगि का शासन करने के लिए नियुक्त किया था। 'विष्णुवर्धन' की स्थिति एक प्रान्तीय शासक के समान थी, और वह [[पुलकेशी द्वितीय]] की ओर से ही [[कृष्णा नदी|कृष्णा]] और [[गोदावरी नदी|गोदावरी नदियों]] के मध्यवर्ती प्रदेश का शासन करता था। पर उसका पुत्र 'जयसिंह प्रथम' पूर्णतया स्वतंत्र हो गया था, और इस प्रकार पूर्वी चालुक्य वंश का प्रादुर्भाव हुआ। इस वंश के स्वतंत्र राज्य का प्रारम्भकाल सातवीं [[सदी]] के मध्य भाग में था।  
 
*'''जब तक वातापी में मध्य''' [[चालुक्य वंश]] की शक्ति क़ायम रही, वेंगि के पूर्वी चालुक्यों को अपने उत्कर्ष का अवसर नहीं मिल सका। पर जब 753 ई. के लगभग राष्टकूट [[दन्तिदुर्ग]] द्वारा वातापी के चालुक्य राज्य का अन्त कर दिया गया, तो वेंगि के राजवंश में अनेक ऐसे प्रतापी राजा हुए, जिन्होंने [[राष्ट्रकूट वंश|राष्ट्रकूटों]] और अन्य पड़ोसी राजाओं पर आक्रमण करके उनके साथ युद्ध किया। इनमें 'विक्रमादित्य द्वितीय' (लगभग 799-843) और 'विजयादित्य तृतीय' (843-888) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन दोनों राजाओं ने राष्टकूटों के मुक़ाबले में अपने राज्य की स्वतंत्र सत्ता क़ायम रखने में सफलता प्राप्त की। इनके उत्तराधिकारी चालुक्य राजा भी अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने में सफल रहे।  
 
*'''जब तक वातापी में मध्य''' [[चालुक्य वंश]] की शक्ति क़ायम रही, वेंगि के पूर्वी चालुक्यों को अपने उत्कर्ष का अवसर नहीं मिल सका। पर जब 753 ई. के लगभग राष्टकूट [[दन्तिदुर्ग]] द्वारा वातापी के चालुक्य राज्य का अन्त कर दिया गया, तो वेंगि के राजवंश में अनेक ऐसे प्रतापी राजा हुए, जिन्होंने [[राष्ट्रकूट वंश|राष्ट्रकूटों]] और अन्य पड़ोसी राजाओं पर आक्रमण करके उनके साथ युद्ध किया। इनमें 'विक्रमादित्य द्वितीय' (लगभग 799-843) और 'विजयादित्य तृतीय' (843-888) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन दोनों राजाओं ने राष्टकूटों के मुक़ाबले में अपने राज्य की स्वतंत्र सत्ता क़ायम रखने में सफलता प्राप्त की। इनके उत्तराधिकारी चालुक्य राजा भी अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने में सफल रहे।  
*'''दसवीं सदी के अन्तिम भाग में''' वेंगि को एक नयी विपत्ति का सामना करना पड़ा। जो चोलराज [[राजराज प्रथम]] (985-1014) के रूप में थी। इस समय तक दक्षिणापथ में राष्टकूटों की शक्ति का अन्त हो चुका था, और [[कल्याणी कर्नाटक|कल्याणी]] को अपनी राजधानी बनाकर चालुक्य एक बार फिर दक्षिणापथपति बन गए थे। राजराज प्रथम ने न केवल कल्याणी के चालुक्य राजा [[सत्याश्रय]] को परास्त किया, अपितु वेंगि के चालुक्य राजा पर भी आक्रमण किया। इस समय वेंगि के राजसिंहासन पर 'शक्तिवर्मा' विराजमान था। उसने चोल आक्रान्ता का मुक़ाबला करने के लिए बहुत प्रयत्न किया, और अनेक युद्धों में उसे सफलता भी प्राप्त हुई, पर उसके उत्तराधिकारी 'विमलादित्य' (1011-1018) ने यही उचित समझा, कि शक्तिशाली चोल सम्राट की अधीनता स्वीकार कर ली जाए।  
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*'''दसवीं [[सदी]] के अन्तिम भाग में''' वेंगि को एक नयी विपत्ति का सामना करना पड़ा। जो चोलराज [[राजराज प्रथम]] (985-1014) के रूप में थी। इस समय तक दक्षिणापथ में राष्टकूटों की शक्ति का अन्त हो चुका था, और [[कल्याणी कर्नाटक|कल्याणी]] को अपनी राजधानी बनाकर चालुक्य एक बार फिर दक्षिणापथपति बन गए थे। राजराज प्रथम ने न केवल कल्याणी के चालुक्य राजा [[सत्याश्रय]] को परास्त किया, अपितु वेंगि के चालुक्य राजा पर भी आक्रमण किया। इस समय वेंगि के राजसिंहासन पर 'शक्तिवर्मा' विराजमान था। उसने चोल आक्रान्ता का मुक़ाबला करने के लिए बहुत प्रयत्न किया, और अनेक युद्धों में उसे सफलता भी प्राप्त हुई, पर उसके उत्तराधिकारी 'विमलादित्य' (1011-1018) ने यही उचित समझा, कि शक्तिशाली चोल सम्राट की अधीनता स्वीकार कर ली जाए।  
 
*[[राजराज प्रथम]] ने विमलादित्य के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर उसे अपना सम्बन्धी व परम सहायक बना लिया। विमलादित्य के बाद उसका पुत्र 'विष्णुवर्धन' पूर्वी चालुक्य राज्य का स्वामी बना। उसका विवाह भी चोलवंश की ही एक कुमारी के साथ हुआ था। उसका पुत्र 'राजेन्द्र' था, जो 'कुलोत्तुंग' के नाम से वेंगि का राजा बना। उसका विवाह भी एक चोल राजकुमारी के साथ हुआ, और विवाहों के कारण वेंगि के चालुक्य कुल और चोलराज का सम्बन्ध बहुत घनिष्ठ हो गया।  
 
*[[राजराज प्रथम]] ने विमलादित्य के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर उसे अपना सम्बन्धी व परम सहायक बना लिया। विमलादित्य के बाद उसका पुत्र 'विष्णुवर्धन' पूर्वी चालुक्य राज्य का स्वामी बना। उसका विवाह भी चोलवंश की ही एक कुमारी के साथ हुआ था। उसका पुत्र 'राजेन्द्र' था, जो 'कुलोत्तुंग' के नाम से वेंगि का राजा बना। उसका विवाह भी एक चोल राजकुमारी के साथ हुआ, और विवाहों के कारण वेंगि के चालुक्य कुल और चोलराज का सम्बन्ध बहुत घनिष्ठ हो गया।  
*'''चोलराजा''' [[अधिराजेन्द्र]] के कोई सन्तान नहीं थी। वह 1070 ई. में चोल राज्य का स्वामी बना, और उसी साल उसकी मृत्यु भी हो गई। इस दशा में वेंगि के चालुक्य राजा राजेन्द्र कुलोत्तुंग ने चोल वंश का राज्य भी प्राप्त कर लिया, क्योंकि वह चोल राजकुमारी का पुत्र था। इस प्रकार चोल राज्य और वेंगि का पूर्वी चालुक्य राज्य परस्पर मिल कर एक हो गए, और 'राजेन्द्र कुलोत्तुंग' के वंशज इन दोनों राज्यों पर दो सदी के लगभग तक शासन करते रहे। 1070 के बाद वेंगि के राजवंश की अपनी कोई पृथक सत्ता नहीं रह गयी थी।  
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*'''चोलराजा''' [[अधिराजेन्द्र]] के कोई सन्तान नहीं थी। वह 1070 ई. में चोल राज्य का स्वामी बना, और उसी साल उसकी मृत्यु भी हो गई। इस दशा में वेंगि के चालुक्य राजा राजेन्द्र कुलोत्तुंग ने चोल वंश का राज्य भी प्राप्त कर लिया, क्योंकि वह चोल राजकुमारी का पुत्र था। इस प्रकार चोल राज्य और वेंगि का पूर्वी चालुक्य राज्य परस्पर मिल कर एक हो गए, और 'राजेन्द्र कुलोत्तुंग' के वंशज इन दोनों राज्यों पर दो [[सदी]] के लगभग तक शासन करते रहे। 1070 के बाद वेंगि के राजवंश की अपनी कोई पृथक् सत्ता नहीं रह गयी थी।  
*'''कल्याणी के चालुक्य वंश''' का दक्षिणापथ के बड़े भाग पर उनका आधिपत्य था, और अनेक प्रतापी चालुक्य राजाओं ने दक्षिण में [[चोल साम्राज्य|चोल]], [[पांड्य साम्राज्य|पांड्य]] और [[केरल]] तक व उत्तर में [[बंगाल|बंग]], [[मगध]] और [[नेपाल]] तक विजय यात्राएँ की थीं। पर जब बारहवीं सदी के अन्तिम भाग में चालुक्यों की शक्ति क्षीण हुई, तो उनके अनेक सामन्त राजा स्वतंत्र हो गए, और अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से शासन करने लगे। जिस प्रकार उत्तरी भारत में [[गुर्जर प्रतिहार वंश| गुर्जर प्रतिहार]] साम्राज्य के ह्रास काल में अनेक छोटे-बड़े [[राजपूत]] राज्य क़ायम हुए, वैसे ही दक्षिणी भारत में कल्याणी के चालुक्यों की शक्ति क्षीण होने पर अनेक राजाओं ने स्वतंत्र होकर अपने पृथक राज्यों की स्थापना की।  
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*'''कल्याणी के चालुक्य वंश''' का दक्षिणापथ के बड़े भाग पर उनका आधिपत्य था, और अनेक प्रतापी चालुक्य राजाओं ने दक्षिण में [[चोल साम्राज्य|चोल]], [[पांड्य साम्राज्य|पांड्य]] और [[केरल]] तक व उत्तर में [[बंगाल|बंग]], [[मगध]] और [[नेपाल]] तक विजय यात्राएँ की थीं। पर जब बारहवीं [[सदी]] के अन्तिम भाग में चालुक्यों की शक्ति क्षीण हुई, तो उनके अनेक सामन्त राजा स्वतंत्र हो गए, और अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से शासन करने लगे। जिस प्रकार उत्तरी भारत में [[गुर्जर प्रतिहार वंश| गुर्जर प्रतिहार]] साम्राज्य के ह्रास काल में अनेक छोटे-बड़े [[राजपूत]] राज्य क़ायम हुए, वैसे ही दक्षिणी भारत में कल्याणी के चालुक्यों की शक्ति क्षीण होने पर अनेक राजाओं ने स्वतंत्र होकर अपने पृथक् राज्यों की स्थापना की।  
  
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==

Latest revision as of 13:29, 1 August 2017

vatapi ke chaluky shasak
shasak shasanakal
jayasianh chaluky -
ranarag -
pulakeshi pratham (550-566 ee.)
kirtivarma pratham (566-567 ee.)
mangalesh (597-98 se 609 ee.)
pulakeshi dvitiy (609-10 se 642-43 ee.)
vikramadity pratham (654-55 se 680 ee.)
vinayadity (680 se 696 ee.)
vijayadity (696 se 733 ee.)
vikramadity dvitiy (733 se 745 ee.)
kirtivarma dvitiy (745 se 753 ee.)

chalukyoan ki utpatti ka vishay atyant hi vivadaspad hai. varahamihir ki 'brihatsanhita' mean inhean 'shoolik' jati ka mana gaya hai, jabaki prithvirajaraso mean inaki utpati aboo parvat par kiye gaye yajn ke agnikund se batayi gayi hai. 'vikramaankadevacharit' mean is vansh ki utpatti bhagavan brahm ke chuluk se bataee gee hai. itihasavidh 'vinsent e. smith' inhean videshi manate haian. 'eph. phlit' tatha 'ke.e. nilakanth shastri' ne is vansh ka nam 'chalaky' bataya hai. 'ar.ji. bhandarakare' ne is vansh ka prarambhik nam 'chaluky' ka ullekh kiya hai. hvenasaang ne chaluky naresh pulakeshi dvitiy ko kshatriy kaha hai. is prakar chaluky nareshoan ki vansh evan utpatti ka koee abhilekhiy sakshy nahian milata hai.

vansh shakhaean

dakshinapath maury samrajy ke aantargat tha. jab maury samratoan ki shakti shithil huee, aur bharat mean anek pradesh unaki adhinata se mukt hokar svatantr hone lage, to dakshinapath mean satavahan vansh ne apane ek prithakh rajy ki sthapana ki. kalantar mean is satavahan vansh ka bahut hi utkarsh hua, aur isane magadh par bhi apana adhipaty sthapit kar liya. shakoan ke sath nirantar sangharsh ke karan jab is rajavansh ki shakti kshin huee, to dakshinapath mean anek ne rajavanshoan ka pradurbhav hua, jisamean vakatak, kadamb aur pallav vansh ke nam vishesh roop se ullekhaniy hai. inhian vanshoan mean se vatapi ya badami ka chaluky vansh aur kalyani ka chaluky vansh bhi ek tha.

vatapi v badami ka chaluky vansh

chhathi shatabdi ke madhy se lekar athavian shatabdi ke madhy tak dakshinapath par jis chaluky vansh ki shakha ka adhipaty raha usaka utkarsh sthal badami ya vatapi hone ke karan use badami ya vatapi chaluky kaha jata hai. is shakha ko poorvakalin pashchimi chaluky bhi kaha jata hai. pulakeshin dvitiy ke ehol abhilekh se badami ke chalukyoan ke bar mean pramanik jnan prapt hota hai. aihol lekh ki rachana ravikrit ne ki thi.

vatapi ka chaluky vansh

vakatak vansh ke raja b de pratapi the aur unhoanne videshi kushanoan ki shakti ka kshay karane mean bahut adhik kartritv pradarshit kiya tha. in rajaoan ne apani vijayoan ke upalakshy mean anek ashvamedh yajnoan ka bhi anushthan kiya. paanchavian sadi ke prarambh mean guptoan ke utkarsh ke karan is vansh ke rajy ki svatantr satta ka ant hua. kadamb vansh ka rajy uttari kanara belagaanv aur dharava d ke pradeshoan mean tha. pratapi gupt samratoan ne ise bhi gupt samrajy ki adhinata mean lane mean saphalata prapt ki thi. pallav vansh ki rajadhani kaanchi thi, aur samrat samudragupt ne usaki bhi vijay ki thi. gupt samrajy ke kshin hone par uttari bharat ke saman dakshinapath mean bhi anek rajavanshoan ne svatantratapoorvak shasan karana prarambh kiya. dakshinapath ke in rajyoan mean chaluky aur rashtrakoot vanshoan ke dvara sthapit rajy pradhan the. unake atirikt devagiri ke yadav, varangal ke kakatiy, koankan ke shilahar, banavasi ke kadamb, talaka d ke gang aur dvarasamudr ke hoyasal vanshoan ne bhi is yug mean dakshinapath ke vividh pradeshoan par shasan kiya. jis prakar uttari bharat mean vividh rajavanshoan ke pratapi v mahattvakaankshi raja vijay yatraean karane aur any rajaoan ko jitakar apana utkarsh karane ke lie tatpar rahate the, vahi dasha dakshinapath mean bhi thi.

vatapi ke chaluky vansh ka ant

vikramadity dvitiy ke bad 744 ee. ke lagabhag kirtivarma dvitiy vishal chaluky samrajy ka svami bana. par vah apane poorvajoan dvara sthapit samrajy ko qayam rakhane mean asamarth raha. dantidurg namak rashtrakoot neta ne use parast kar maharashtr mean ek ne rajavansh ki nianv dali, aur dhire-dhire rashtrakootoan ka yah vansh itana shaktishali ho gaya, ki chalukyoan ka ant kar dakshinapath par apana adhipaty sthapit kar liya. chalukyoan ke rajy ka ant 753 ee. ke lagabhag hua. vatapi ke chaluky raja n keval vir aur vijeta the, apitu unhoanne sahity, vastukala adi ke sanrakshan v sanvardhan ki or bhi apana dhyan diya.

kalyani ka chaluky vansh

chalukyoan ki mukhy shakha ka antim mahattvapoorn shasak sambhavatah kirtivarma dvitiy tha. chalukyoan ki kuchh chhoti shakhaoan ne bhi kuchh din tak shasan kiya. aisi hi ek shakha kalyani ke chalukyoan ki thi, jisaka mahattvapoorn shasak tail athava tailap dvitiy tha, arambh mean vah rashtrakootoan ka samant tha, parantu bad mean rashtrakootoan ki durbalata ka labh uthakar vah ek svatantr shasak ban gaya. usane antim rashtrakoot shasak kakr ko apadast kar satta par adhikar kar liya. isaki patni 'jakkal mahadevi' thi, jo rashtrakoot shasak bhamah ki putri thi. sattaroodh hone ke bad tailap ne apane rajy ki simaoan ka vistar karana arambh kiya. usake is samrajy vistaravadi niti ka prabal virodhi gang naresh paanchal dev tha. donoan ke madhy kee bar yuddh hua. ant mean vellari ke samant shasak gangabhootidev ki sahayata se tailap ne paanchal dev ko parajit kar mar diya. is mahattvapoorn vijay ke upalakshy mean tailap dvitiy ne 'paanchalamardanapanchanan' ka virudv dharan kiya tatha apane sahayak gangabhootidev ko toragale ka shasak banakar use 'ahavamall' ki upadhi se alankrit kiya. tailap dvitiy ne chedi, u disa aur kuantal ne shasak uttam chol tatha malava ke paramar raja muanj ko parajit kiya. tailap dvitiy dvara muanj ke sthan ka ullekh avantarakalin granth aina-e-akabari tatha ujjain se prapt abhilekh mean milata hai. kann d kathaoan mean tailap dvitiy ko bhagavan shrikrishna ka avatar kaha gaya hai. usane 'bhunaikamall', 'mahasamantadhipati', 'ahamall', 'maharajadhiraj', 'parameshvar', 'paramabhattarak', 'chalukyabharan', 'satyashram', 'kulatilak' tatha 'samastabhuvanashray' adi upadhiyaan dharan ki thian. pahale chaluky vansh ki rajadhani vatapi thi, par is naye chaluky vansh ne kalyani ko rajadhani banakar apani shakti ka vistar kiya. isilie ye 'kalyani ke chaluky' kahalate haian.

kalyani ke chaluky shasak
shasak shasanakal
tailap -
satyashray (977 se 1008 ee.)
vikramadity pancham (1008 ee.)
achchan dvitiy -
jayasianh jagadekamall (1015 se 1045 ee.)
someshvar pratham ahavamall (1043 se 1068 ee.)
someshvar dvitiy bhuvanaikamall (1068 se 1070 ee.)
vikramadity shashth (1070 se 1126 ee.)
someshvar tritiy (1126 se 1138 ee.)
jagadekamall dvitiy (1138-1151 ee.)
tailap tritiy (1151-1156 ee.)
someshvar chaturth (1181-1189 ee.)

chaluky shakti mean nirbalata

someshvar tritiy ke bad kalyani ke chaluky vansh ka kshay shuroo ho gaya. 1138 ee. mean someshvar tritiy ki mrityu ho jane par usaka putr jagadekamall dvitiy raja bana. is raja ke shasan kal mean chalukyoan mean nirbalata a gee. anhilava da kumarapal (1143-1172 ee.) ke jagadekamall ke sath anek yuddh hue, jinamean kumarapal vijayi hua. 1151 ee. mean jagadekamall ki mrityu ke bad tail ne kalyani ka rajasianhasan prapt kiya. usaka mantri v senapati vijjal tha, jo kalachuri vansh ka tha. vijjal itana shaktishali vyakti tha, ki usane raja tail ko apane hathoan mean kathaputali ke saman bana rakha tha. bahut se samant usake hathoan mean the. unaki sahayata se 1156 ee. ke lagabhag vijjal ne tail ko rajyachyut kar svayan kalyani ki rajagaddi par apana adhikar kar liya, aur vasav ko apana mantri niyukt kiya.

kalyani ke chaluky vansh ka ant

bharat ke dharmik itihas mean 'vasav' ka bahut adhik mahattv hai. vah liangayat sampraday ka pravartak tha. jisaka dakshini bharat mean bahut prachar hua. vijjal svayan jain tha, atah raja aur mantri mean virodh utpann ho gaya. isake parinamasvaroop vasav ne vijjal ki hatya kar di. vijjal ke bad usake putr 'sovidev' ne rajy prapt kiya, aur vasav ki shakti ko apane qaboo mean lane mean saphalata prapt ki. dharmik virodh ke karan vijjal aur sovidev ke samay mean jo avyavastha utpann ho gee thi, chaluky raja tail ke putr someshvar chaturth ne usase labh uthaya, aur 1183 ee. mean sovidev ko parast kar chaluky kul ke gaurav ko phir se sthapit kiya. par chalukyoan ki yah shakti der tak sthir nahian rah saki. vijjal aur sovidev ke samay mean vatapi ke rajy mean jo avyavastha utpann ho gee thi, usake karan bahut se samant v adhinasth raja svatantr ho ge, aur any anek rajavanshoan ke pratapi v mahattvakaankshi rajaoan ne vijay yatraean kar apani shakti ka utkarsh shuroo kar diya. in pratapi rajaoan mean devagiri ke yadav raja bhillam ka nam vishesh roop se ullekhaniy hai. 1187 ee. mean bhillam ne chaluky raja someshvar chaturth ko parast kar kalyani par adhikar kar liya, aur is prakar pratapi chaluky vansh ka ant hua.

veangi ka chaluky vansh

prachin samay mean chalukyoan ke anek rajavanshoan ne dakshinapath v gujarat mean shasan kiya tha. inamean se anhilava d (gujarat) vatapi aur kalyani ko rajadhani banakar shasan karane vale chaluky vansh the. par in tinoan ke atirikt chaluky ka ek any vansh bhi tha, jisaki rajadhani veangi thi. yah itihas mean 'poorvi chaluky' ke nam se vikhyat hai, kyoanki isaka rajy chalukyoan ke mukhy rajavansh (jisane kalyani ko rajadhani banakar shasan kiya) ke rajy se poorv mean sthit tha. inase prithaktv pradarshit karane ke lie kalyani ke rajavansh ko 'pashchimi chaluky rajavansh' bhi kaha jata hai. itihas mean veangi ke poorvi chaluky vansh ka bahut adhik mahattv nahian hai, kyoanki usake rajaoan ne n kisi b de samrajy ke nirman mean saphalata prapt ki, aur n door-door tak vijay yatraean kian. par kyoanki kuchh samay tak usake rajaoan ne bhi svatantr roop se rajy kiya, atah unake sambandh mean bhi sankshipt vivaran prapt hota hai.

  • jis samay vatapi ke prasiddh chaluky samrat pulakeshi dvitiy ne (satavian sadi ke poorvardh mean) dakshinapath mean apane vishal samrajy ki sthapana ki, usane apane chhote bhaee 'kubj vishnuvardhan' ko veangi ka shasan karane ke lie niyukt kiya tha. 'vishnuvardhan' ki sthiti ek prantiy shasak ke saman thi, aur vah pulakeshi dvitiy ki or se hi krishnaa aur godavari nadiyoan ke madhyavarti pradesh ka shasan karata tha. par usaka putr 'jayasianh pratham' poornataya svatantr ho gaya tha, aur is prakar poorvi chaluky vansh ka pradurbhav hua. is vansh ke svatantr rajy ka prarambhakal satavian sadi ke madhy bhag mean tha.
  • jab tak vatapi mean madhy chaluky vansh ki shakti qayam rahi, veangi ke poorvi chalukyoan ko apane utkarsh ka avasar nahian mil saka. par jab 753 ee. ke lagabhag rashtakoot dantidurg dvara vatapi ke chaluky rajy ka ant kar diya gaya, to veangi ke rajavansh mean anek aise pratapi raja hue, jinhoanne rashtrakootoan aur any p dosi rajaoan par akraman karake unake sath yuddh kiya. inamean 'vikramadity dvitiy' (lagabhag 799-843) aur 'vijayadity tritiy' (843-888) ke nam vishesh roop se ullekhaniy haian. in donoan rajaoan ne rashtakootoan ke muqabale mean apane rajy ki svatantr satta qayam rakhane mean saphalata prapt ki. inake uttaradhikari chaluky raja bhi apani svatantrata ki raksha karane mean saphal rahe.
  • dasavian sadi ke antim bhag mean veangi ko ek nayi vipatti ka samana karana p da. jo cholaraj rajaraj pratham (985-1014) ke roop mean thi. is samay tak dakshinapath mean rashtakootoan ki shakti ka ant ho chuka tha, aur kalyani ko apani rajadhani banakar chaluky ek bar phir dakshinapathapati ban ge the. rajaraj pratham ne n keval kalyani ke chaluky raja satyashray ko parast kiya, apitu veangi ke chaluky raja par bhi akraman kiya. is samay veangi ke rajasianhasan par 'shaktivarma' virajaman tha. usane chol akranta ka muqabala karane ke lie bahut prayatn kiya, aur anek yuddhoan mean use saphalata bhi prapt huee, par usake uttaradhikari 'vimaladity' (1011-1018) ne yahi uchit samajha, ki shaktishali chol samrat ki adhinata svikar kar li jae.
  • rajaraj pratham ne vimaladity ke sath apani putri ka vivah kar use apana sambandhi v param sahayak bana liya. vimaladity ke bad usaka putr 'vishnuvardhan' poorvi chaluky rajy ka svami bana. usaka vivah bhi cholavansh ki hi ek kumari ke sath hua tha. usaka putr 'rajendr' tha, jo 'kulottuang' ke nam se veangi ka raja bana. usaka vivah bhi ek chol rajakumari ke sath hua, aur vivahoan ke karan veangi ke chaluky kul aur cholaraj ka sambandh bahut ghanishth ho gaya.
  • cholaraja adhirajendr ke koee santan nahian thi. vah 1070 ee. mean chol rajy ka svami bana, aur usi sal usaki mrityu bhi ho gee. is dasha mean veangi ke chaluky raja rajendr kulottuang ne chol vansh ka rajy bhi prapt kar liya, kyoanki vah chol rajakumari ka putr tha. is prakar chol rajy aur veangi ka poorvi chaluky rajy paraspar mil kar ek ho ge, aur 'rajendr kulottuang' ke vanshaj in donoan rajyoan par do sadi ke lagabhag tak shasan karate rahe. 1070 ke bad veangi ke rajavansh ki apani koee prithakh satta nahian rah gayi thi.
  • kalyani ke chaluky vansh ka dakshinapath ke b de bhag par unaka adhipaty tha, aur anek pratapi chaluky rajaoan ne dakshin mean chol, paandy aur keral tak v uttar mean bang, magadh aur nepal tak vijay yatraean ki thian. par jab barahavian sadi ke antim bhag mean chalukyoan ki shakti kshin huee, to unake anek samant raja svatantr ho ge, aur apane-apane kshetr mean svatantr roop se shasan karane lage. jis prakar uttari bharat mean gurjar pratihar samrajy ke hras kal mean anek chhote-b de rajapoot rajy qayam hue, vaise hi dakshini bharat mean kalyani ke chalukyoan ki shakti kshin hone par anek rajaoan ne svatantr hokar apane prithakh rajyoan ki sthapana ki.


panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh

sanbandhit lekh

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