प्रणववाद

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  • इस सिद्धान्त के अनुसार शब्द अथवा नाद को ही ब्रह्म या अन्तिम तत्त्व मानकर उसकी उपासना की जाती है।
  • किसी न किसी रूप में सभी योगसाधना के अभ्यासी शब्द की उपासना करते हैं।
  • यह प्रणाली अतिप्राचीन है।
  • प्रणव के रूप में इसका मूल वेदमंत्रों में वर्तमान है।
  • इसका प्राचीन नाम 'स्फोटवाद' भी है।
  • छठी शताब्दी के लगभग सिद्धयोगी भृतहरि ने प्रसिद्ध ग्रन्थ वाक्यपदीय में 'शब्दाद्वैतवाद' का प्रवर्तन किया था।
  • नाथ सम्प्रदाय में भी शब्द की उपासना पर ही ज़ोर दिया जाता है।
  • चरनदासी पन्थ में भी शब्द का प्राधान्य है।
  • आधुनिक संतमार्गी राधास्वामी सत्संगी लोग शब्द की ही उपासना करते हैं।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ


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