प्रयोग:Shilpi6: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
('पंडित दीनदयाल उपाध्याय 1953 से 1968 तक भारतीय जनसंघ के ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
m (Text replace - " खिलाफ़ " to " ख़िलाफ़ ")
 
(114 intermediate revisions by 12 users not shown)
Line 1: Line 1:
पंडित दीनदयाल उपाध्याय [[1953]] से [[1968]] तक भारतीय जनसंघ के नेता रहे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक प्रखर विचारक, उत्कृष्ट संगठनकर्ता तथा एक ऐसे नेता थे जिन्होंने जीवनपर्यंन्त अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी व सत्यनिष्ठा को महत्व दिया। वे भारतीय जनता पार्टी के लिए वैचारिक मार्गदर्शन और नैतिक प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय मज़हब और संप्रदाय के आधार पर भारतीय संस्कृति का विभाजन करने वालों को देश के विभाजन का जिम्मेदार मानते थे। वह हिंदू राष्ट्रवादी तो थे ही, इसके साथ ही साथ भारतीय राजनीति के पुरोधा भी थे। उनकी मान्यता थी कि हिंदू कोई धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि [[भारत]] की राष्ट्रीय [[संस्कृति]] है।
बंदा सिहं बहादुर
==जीवन परिचय==
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म [[25 सितंबर]], [[1916]] को [[ब्रज]] के पवित्र क्षेत्र [[मथुरा]] ज़िले के छोटे से गाँव नगला चंद्रभान में हुआ था। इनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय था। इनकी माता का नाम रामप्यारी था जो धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। रेल की नौकरी होने के कारण उनके पिता का अधिक समय बाहर बीतता था। उनके पिता कभी-कभी छुट्टी मिलने पर ही घर आते थे। थोड़े समय बाद ही दीनदयाल के भाई ने जन्म लिया जिसका नाम शिवदयाल रखा गया। पिता भगवती प्रसाद ने अपनी पत्नी व बच्चों को मायके भेज दिया। उस समय उनके नाना चुन्नीलाल शुक्ल धनकिया में स्टेशन मास्टर थे। मामा का परिवार बहुत बड़ा था। दीनदयाल अपने ममेरे भाइयों के साथ खाते-खेलते बड़े हुए। वे दोनों ही रामप्यारी और दोनों बच्चों का खास ध्यान रखते थे।<br />
3 वर्ष की मासूम उम्र में दीनदयाल पिता के प्यार से वंचित हो गये। पति की मृत्यु से माँ रामप्यारी को अपना जीवन अंधकारमय लगने लगा। वे अत्यधिक बीमार रहने लगीं। उन्हें क्षय रोग लग गया। [[8 अगस्त]] सन् [[1924]] को रामप्यारी बच्चों को अकेला छोड़ ईश्वर को प्यारी हो गयीं। 7 वर्ष की कोमल अवस्था में दीनदयाल माता-पिता के प्यार से वंचित हो गये। जब [[भरतपुर]] में एक त्रासदी से उनका परिवार प्रभावित हुआ, तो सन् [[1934]] में बीमारी के कारण उनके भाई का देहान्त हो गया।
==शिक्षा==
गंगापुर में दीनदयाल के मामा राधारमण रहते थे। उनका परिवार उनके साथ ही था। गाँव में पढ़ाई का अच्छा प्रबन्ध नहीं था, इसलिए नाना चुन्नीलाल ने दीना और शिबु को पढ़ाई के लिए मामा के पास गंगापुर भेज दिया। गंगापुर में दीना की प्राथमिक शिक्षा का शुभारम्भ हुआ। मामा राधारमण की भी आय कम और खर्चा अधिक था। उनके अपने बच्चों का खर्च और साथ में दीना और शिबु का रहन-सहन और पढ़ाई का खर्च करनी पड़ती थी। सन् 1926 के सितम्बर माह में नाना चुन्नीलाल के स्वर्गवास की दुखद सूचना मिली। दीना के मन पर गहरी चोट लगी। इस दुःख से उबर भी नहीं पाए थे कि मामा राधारमण बीमार पड़ गए। वैद्यों ने बताया कि उन्हें टी.वी. की बीमारी हो गई है। उनका बचना कठिन है। वैद्यो ने औषधि देने से मना कर दिया। ऐसी स्थिति में क्या किया जाए, यही समस्या थी। [[लखनऊ]] में उनके एक सम्बन्धी रहते थे। उनके पास से राधारमण का बुलावा आया। लखनऊ में इलाज की अच्छी व्यवस्था थी। किन्तु उन्हें वहाँ कौन ले जाए, यही समस्या थी। कहीं यह छूत की बीमारी किसी और को न लग जाए, इसी से सब उनके पास जाने से भी डरते थे। दीना बराबर मामा की सेवा में लगा रहता था। मामा के मना करने पर भी वह नहीं मानता था। मामा का लड़का बनवारीलाल भी दीना के साथ पढ़ता था, किन्तु अपने पिता के पास जाने में वह भी छूत की बीमारी से डरता था। दीना की आयु इस समय ग्यारह-बारह वर्ष की थी। वह अपने मामा को लखनऊ ले जाने के लिए तैयार हुआ। मामा ने बहुत मना किया। दीना नहीं माना। अन्त में मामा को दीना की बात माननी ही पड़ी। लखनऊ में मामा का उपचार आरम्भ हुआ। दीना ने डटकर मामा की सेवा की। उसकी परीक्षा भी पास आ रही थी। किन्तु उसे मामा की सेवा के अलावा और कोई ध्यान नहीं था। परीक्षा का ध्यान आते ही मामा ने दीना को गंगापुर भेज दिया। दीना पढ़ भी नहीं सका था। किन्तु '''होनहार बिरवान के होत चीकने पात''' वाली कहावत को उसने चरितार्थ कर दिया। दीना ने परीक्षा में सर्वोच्च अंक पाकर प्रथम स्थान प्राप्त किया। यह सभी के लिए आश्चर्य और प्रसन्नता की बात थी। अब दीना को कोट गाँव जाना पड़ा। गंगापुर में आगे की पढ़ाई की व्यवस्था नहीं थी। कोट गाँव में उसने पाँचवीं कक्षा में प्रवेश लिया। वहाँ भी वह पढ़ाई में प्रथम ही रहता था। राजघर जाकर आठवीं और नवीं कक्षा पास की। दीना के पास पढ़ने के लिए पुस्तकें नहीं थीं।


उसके मामा का लड़का भी उसके साथ पढ़ता था। जब वह सो जाता या पढ़ाई नहीं करता था। तब दीना उसकी पुस्तकों से पढ़ लेता था। अब दीना नवीं कक्षा में था। उसे फिर भारी दुःख का सामना करना पड़ा। उसका छोटा भाई शिबु भी टाइफाइड होने से चल बसा। दीना को गहरा दुःख हुआ। दोनों भाइयों में बहुत अधिक प्यार था। नवीं कक्षा पास करने के बाद दीना राजघर से सीकर गया। वहाँ भी उसने अपने अध्यापकों पर अपनी बुद्धि, लगन और परिश्रम की धाक जमा दी। सभी उसे बहुत प्यार करते थे। हाईस्कूल की परीक्षा से कुछ माह पूर्व दीना बीमार पड़ गया। हाईस्कूल की परीक्षा आरम्भ हो गई। दीना ने अच्छी तरह अपने प्रश्नपत्र किए। वह न केवल परीक्षा में प्रथम आया बल्कि कई विषयों में एक नया रिकार्ड भी बनाया। उसकी रेखागणित की उत्तर-पुस्तिका कितने ही वर्षों तक नमूने के रूप में रखी गई। गणित उसका प्रिय विषय था।
लछमन दास, लछमन देव या माधो दास भी कहलाते हैं (ज़ – 1670, रजौरी, भारत; मृ-जून 1716, दिल्ली ) भारत के मुग़ल शासकों के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने वाले पहले सिक्ख सैन्य प्रमुख, जिन्होंने सिक्खों के राज्य का अस्थायी विस्तार भी किया।
सीकर के महाराज को इस मेधावी छात्र के विषय में खबर मिली। उन्होंने एक दिन दीना को बुलाया। उन्होंने कहा,<blockquote>‘‘बेटा, तुमने बहुत ही अच्छे अंक प्राप्त किए हैं। बताओ, तुम्हें पारितोषिक के रूप में क्या चाहिए ?’’ दीना ने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया, ‘‘केवल आपका आशीर्वाद।’</blockquote>’ महाराज उस उत्तर से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने दीना को एक स्वर्ण पदक, पुस्तकों के लिए 250 रुपये और 10 रुपये प्रतिमाह विद्यार्थी-वेतन देकर आशीर्वाद दिया।
युवावस्था में उन्होंने पहले समन (योगी) बनने का निश्चय किया और 1708 में गुरु गोबिंद सिंह का शिष्य बनने तक वह माधो दास के नाम से जाने जाते रहे। सिक्ख बिरादरी में शामिल होने के बाद उनका नाम बंदा सिंह बहादुर हो गया और वह लोकप्रिय तो नहीं, सम्मानित सेनानी अवश्य बन गए, उनके तटस्थ, ठंडे और अवैयक्तिक स्व्भाव ने उन्हें उनके लोगों के बीच लोकप्रिय नहीं बनने दिया।
इसके बाद दीनदयाल जी कॉलिज में पढ़ने के लिए पिलानी चले गए। वहाँ भी सभी अध्यापक उनके विनम्र स्वभाव, लगन और प्रखर बुद्धि से बड़े प्रभावित थे। पढ़ाई में पिछड़े छात्र उनसे पढ़ते थे और मार्गदर्शन पाते थे। दीनदयाल जी इन सबको बड़े प्यार से पढ़ाते और समझाते थे। ऐसे कई छात्र हर समय उन्हीं के पास बैठे रहते थे।
बंदा सिंह ने 1709 में मुग़लों पर हमला करके बहुत बड़े क्षेत्र पर क़ब्ज़ा कर लिया। दक्कन क्षेत्र में उनके द्वारा लूटमार और क़त्लेआम से मुग़लों को उन पर पूरी ताकत से हमला करना पड़ा। 1715 में आठ महीनों की घेरेबंदी के बाद मुग़लों ने क़िलेबंद शहर गुरुदास नांगल पर क़ब्ज़ा कर लिया। बंदा सिंह और उनके साथियों को कैद करके दिल्ली ले जाया गया, जहां जहां छह महीने तक हर दिन उनके कुछ लोगों को मौत की सज़ा दी जाती रही। जब उनकी बारी आई, तो बंदा सिंह ने मुसलमान न्यायाधीश से कहा कि उनका यही हाल होना था, क्योंकि अपने प्यारे गुरु गोबिंद सिंह की इच्छाओं को पूरा करने में वह नाक़ाम रहे। उन्हें लाल गर्म लोहे की छड़ों से यातना देकर मार डाला गया।


सन् 1937, इण्टरमीडिएट की परीक्षा दी । इस परीक्षा में भी दीनदयाल जी ने सर्वाधिक अंक प्राप्त कर एक कीर्तिमान स्थापित किया। बिड़ला कॉलिज में इससे पूर्व किसी भी छात्र के इतने अंक नहीं आए थे। जब इस बात की सूचना घनश्याम दास बिड़ला तक पहुँची तो वे बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने दीनदयाल जी को एक स्वर्ण पदक प्रदान किया। उन्होंने दीनदयाल जी को अपनी संस्था में एक नौकरी देने की बात कही। दीनदयाल जी ने विनम्रता के साथ धन्यवाद देते हुए आगे पढ़ने की इच्छा व्यक्त की। बिड़ला जी इस उत्तर से बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा, ‘‘आगे पढ़ना चाहते हो, बड़ी अच्छी बात है। हमारे यहाँ तुम्हारे लिए एक नौकरी हमेशा खाली रहेगी। जब चाहो आ सकते हो।’’ धन्यवाद देकर दीनदयाल जी चले गए। बिड़ला जी ने उन्हें छात्रवृत्ति प्रदान की।


दीनदयाल जी को बी.ए. करना था। इसके लिए एस.डी. कॉलिज, [[कानपुर]] में प्रवेश लिया। मन लगाकर अध्ययन किया। छात्रावास में रहते थे। वहाँ उनका सम्पर्क श्री सुन्दरसिंह भण्डारी, बलवंत महासिंघे जैसे कई लोगों से हुआ। राजनीतिक चर्चाएँ काफी-काफी देर तक चलती थीं। यहाँ उनमें राष्ट्र की सेवा के बीज का स्फुरण हुआ। बलवंत महासिंघे के सम्पर्क के कारण दीनदयाल जी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यक्रमों में रुचि लेने लगे। इन सब व्यस्तताओं के बाद भी उन्होंने सन् 1939 में प्रथम श्रेणी में बी.ए. की परीक्षा पास की। पंडित जी एम.ए. करने के लिए आगरा चले गये। वे यहाँ पर श्री नानाजी देशमुख और श्री भाऊ जुगाडे के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे। इसी बीच दीनदयाल जी की चचेरी बहन रमा देवी बीमार पड़ गयीं और वे इलाज कराने के लिए [[आगरा]] चली गयीं, जहां उनकी मृत्यु हो गयी। दीनदयालजी इस घटना से बहुत उदास रहने लगे और एम.ए. की परीक्षा नहीं दे सके। सीकर के महाराजा और श्री बिड़ला से मिलने वाली छात्रवृत्ति बन्द कर दी गई।
बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी
==संघर्ष==
पंडित दीनदयाल उपाध्याय अपनी चाची के कहने पर धोती तथा कुर्ते में और अपने सिर पर टोपी लगाकर सरकार द्वारा संचालित प्रतियोगी परीक्षा दी जबकि दूसरे उम्मीदवार पश्चिमी सूट पहने हुए थे। उम्मीदवारों ने मजाक में उन्हें 'पंडितजी' कहकर पुकारा-यह एक उपनाम था जिसे लाखों लोग बाद के वर्षों में उनके लिए सम्मान और प्यार से इस्तेमाल किया करते थे। इस परीक्षा में वे चयनित उम्मीदवारों में सबसे ऊपर रहे। वे अपने चाचा की अनुमति लेकर बेसिक ट्रेनिंग (बी.टी.) करने के लिए प्रयाग चले गए और [[प्रयाग]] में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में भाग लेना जारी रखा। बेसिक ट्रेनिंग (बी.टी.) पूरी करने के बाद वे पूरी तरह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यों में जुट गए और प्रचारक के रूप में जिला लखीमपुर (उत्तर प्रदेश) चले गए। सन् 1955 में वे [[उत्तर प्रदेश]] में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांतीय प्रचारक बन गए।
उन्होंने लखनऊ में ''राष्ट्र धर्म प्रकाशन'' नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की और अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए एक मासिक पत्रिका ''राष्ट्र धर्म'' शुरू की। बाद में उन्होंने 'पांचजन्य' (साप्ताहिक) तथा 'स्वदेश' (दैनिक) की शुरूआत की। सन् 1950 में केन्द्र में पूर्व मंत्री डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने नेहरू-लियाकत समझौते का विरोध किया और मंत्रिमंडल के अपने पद से त्यागपत्र दे दिया तथा लोकतांत्रिक ताकतों का एक साझा मंच बनाने के लिए वे विरोधी पक्ष में शामिल हो गए। डॉ. मुकर्जी ने राजनीतिक स्तर पर कार्य को आगे बढ़ाने के लिए निष्ठावान युवाओ को संगठित करने में श्री गुरूजी से मदद मांगी।


पंडित दीनदयालजी ने [[21 सितम्बर]], [[1951]] को उत्तर प्रदेश का एक राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया और नई पार्टी की राज्य ईकाई, भारतीय जनसंघ की नींव डाली। पंडित दीनदयालजी इसके पीछे की सक्रिय शक्ति थे और डॉ. मुकर्जी ने [[21 अक्तूबर]], [[1951]] को आयोजित पहले अखिल भारतीय सम्मेलन की अध्यक्षता की। पंडित दीनदयालजी की संगठनात्मक कुशलता बेजोड़ थी। आखिर में जनसंघ के [[इतिहास]] में चिरस्मरणीय दिन आ गया जब पार्टी के इस अत्यधिक सरल तथा विनीत नेता को सन् 1968 में पार्टी के सर्वोच्च अध्यक्ष पद पर बिठाया गया। दीनदयालजी इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को संभालने के पश्चात जनसंघ का संदेश लेकर दक्षिण [[भारत]] गए।
ब्रिटिश अधिवक्ता एवं प्राच्यविद सर विलियम जोन्स द्वारा 15 जनवरी 1784 को प्राच्य विद्याध्ययन को प्रोत्साहन देने के लिये गठित सभा।
==मृत्यु==
संस्थापना दिवस के उपलक्ष्य में जोन्स ने अपने प्रसिध्द अभिभाषणों की श्रृंखला का पहला भाषण दिया।
विलक्षण बुद्धि, सरल व्यक्तित्व एवं नेतृत्व के अनगिनत गुणों के स्वामी, पं. दीनदयाल उपाध्याय जी की हत्या सिर्फ 52 वर्ष की आयु में 11 फरवरी 1968 को मुगलसराय के पास रेलगाडी म यात्रा करते समय हुई थी। उनका पार्थिव शरीर मुगलसराय स्टेशन के वार्ड में पडा पाया गया। भारतीय राजनीतिक क्षितीज के  इस प्रकाशमान सूर्य ने भारतवर्ष  में सभ्यतामूलक राजनीतिक विचारधारा  का प्रचार एवं प्रोत्साहन करते हुए अपने प्राण राष्ट्र को समर्पित कर दिया।
इस सभा को तत्कालीन बंगाल के प्रथम गवर्नर-जनरल ( 1772-95 ) वॉरेन हेस्टिग्ज़ का सहयोग और प्रोत्साहन मिला। जोन्स की मृत्यु ( 1794 ) तक यह सभा हिंदू संस्कृति तथा ज्ञान के महत्त्व व आर्य भाषाओं में संस्कृत की अहम भूमिका जैसे उनके विचारों की संवाहक थी।
 
 
बरारी घाटी का युद्ध
 
 
(9 जन॰ 1760), भारतीय इतिहास में पतन की ओर अग्रसर मुग़ल साम्राज्य पर नियंत्रण के लिए मराठों पर की गई अफ़ग़ान विजयों में से एक, जिसने अंग्रजों को बंगाल में पैर जमाने का समय दे दिया। दिल्ली से 16 किमी उत्तर में यमुना नदी के बरारी घाट (नौका घाट ) पर पंजाब से अहमद शाह दुर्रानी की अफ़ग़ान सेना से पीछे हट रहे मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया पर ऊंचे उगे सरकंडों की आड़ में छिपे अफ़गान सिपाहियों ने नदी पार करके अचानक हमला कर दिया। दत्ताजी मारे गए और उनकी सेना तितर-बितर हो गई। उनकी पराजय से दिल्ली पर अफ़ग़ानों के अधिकार का मार्ग प्रशस्त हो गया।
 
 
बर्द्धमान ज़िला
 
बर्द्धमान ज़िला दो अलग क्षेत्रों में बंटा है। पूर्वी भाग एक निम्न जलोढ़ मैदान है, जो सघन जनसंख्यायुक्त और पानी से भरा व दलदली रहता है। पूर्व की प्रमुख फ़सलें चावल, मक्का, दलहन और तिलहन हैं। पश्चिमी क्षेत्र बंगाल के सर्वाधिक व्यस्त औधोगिक क्षेत्रों में से एक है, यहां रानीगंज के बढ़िया कोयला भंडार और पड़ोसी क्षेत्रों में कच्चा लोहा और दूसरे खनिज़ उपलब्ध हैं। दामोदर नदी तट पर विकसित दुर्गापुर और आसनसोल के औद्योगिक नगर व कुछ और नगर, जिन्हें सामुहिक तौर पर दुर्गापुर औद्योगिक पट्टी के नाम से जाना जाता है, कोलकाता के बाद बंगाल का सबसे महत्त्वपूर्ण औद्योगिक क्षेत्र हैं। इस ज़िले में बर्द्धमान विश्वविद्यालय से संबद्ध एक इंजीनियरिंग कॉलेज और अनेक महाविद्यालय हैं। दामोदर घाटी निगम सिंचाई, औद्योगिक क्षेत्रों में बिजली की आपूर्ति और बाढ़ नियंत्रण का काम करता है। पूर्व की प्रमुख फ़सलें चावल, मक्का, दलहन और तिलहन हैं। जनसंख्या (2001) शहर 2,85,871; ज़िला कुल 69,19,698।
 
 
 
बरौनी
 
 
 
बसव
 
12वीं शताब्दी के धार्मिक सुधारक, उपदेशक, धर्म मीमांसक और चालुक्य राजा बिज्जला I (शासनकाल, 1156-67) के राजसी कोषागार के प्रबंधक, बसव हिंदू वीरशैव (लिंगायत) मत के पवित्र ग्रंथों में से एक, बसव पुराण के रचयिता हैं। परंपरा के अनुसार, वह वीरशैव के वास्तविक संस्थापक थे, परंतु चालुक्य अभिलेखों से पता चलता है कि उन्होंने वास्तव में पहले से मौजूद मत को पुनर्जीवित किया।
बसव ने वीरशैव संस्थाओं को सहायता देकर और वीरशैव मत की शिक्षा देकर प्रचार में सहायता दी थी। उनके चाचा प्रधानमंत्री थे और उन्होंने बसव को कोषागार प्रमुख के रूप में नियुक्त किया था। कई वर्ष तक उनके गुट को काफ़ी लोकप्रियता मिली, परंतु दरबार में अन्य गुट उनकी शक्तियों और उनकी शह में वीरशैल मत के प्रसार से क्षुब्ध थे। उनके द्वारा लगाए गए आरोपों के कारण वह राज्य छोड़ कर चले गए और शीघ्र ही उनकी मृत्यु हो गई। भगवान शिव की स्तुति में उनके रचित भजनों से उन्हें कन्नड़ साहित्य में प्रमुख स्थान तथा हिंदू भक्ति साहित्य में भी स्थान मिला।
 
 
बाउल
 
 
बंगाल के धार्मिक गायकों के एक संप्रदाय के सदस्य, जो अपने अपारंपरित व्यवहार तथा रहस्यात्मक गीतों की सहजता एवं उन्मुक्तता के लिए जाने जाते है। इनके हिंदू ( मूल रूप से वैष्णव ) और मुसलमान ( आमतौर पर सूफ़ी ), दोनों है। इनके गीत अक्सर मनुष्य एवं उसके भीतर बसे इष्टदेव के बीच प्रेम से संबंधित होते हैं। इस संप्रदाय के विकास के बारे में बहुत कम जानकारी है, क्योंकि इनके गीतों का संकलन एवं लेखन 20 वीं सदी में ही शुरू हुआ। रबींद्रनाथ ठाकुर उन कई बांग्ला लेखकों में से एक थे, जिन्होंने बाउल गीतों से प्रेरणा लिए जाने की बात स्वीकार की।
 
 
दास
 
 
 
दस्यु भी कहा जाता है, भारत में आदिम समुदाय के लोग, जिनका यहां आ कर बसने वाले आर्यों के साथ टकराव हुआ, 1500 ई॰पू॰ में आर्यों ने इनका काली चमड़ी वाले, कटु भाषी लोगों के रूप में वर्णन किया है, जो लिंग की पूजा करते थे। इस प्रकार कई विद्वानों की यह धारणा बनी कि हिंदुओं के धार्मिक प्रतीक लिंगम की पूजा की यहां से शुरुआत हुई, हांलांकि हो सकता है कि इसका संबंध उनकी यौन क्रियाओं से रहा हो। वे क़िलेबंद स्थानों पर रहते थे जहां से वे अपनी सेनाएं भेजते थे। वे संभवत: मूल शूद्र या श्रमिक रहे होंगे, जो तीनों उच्च वर्गों, ब्राह्मणों (पुरोहित), क्षत्रियों (योध्दाओं) और वैश्यों ( व्यापारियों) की सेवा करते थे और जिन्हें उनके धार्मिक अनुष्ठानों से अलग रखा गया था।

Latest revision as of 11:35, 14 May 2013

बंदा सिहं बहादुर

लछमन दास, लछमन देव या माधो दास भी कहलाते हैं (ज़ – 1670, रजौरी, भारत; मृ-जून 1716, दिल्ली ) भारत के मुग़ल शासकों के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने वाले पहले सिक्ख सैन्य प्रमुख, जिन्होंने सिक्खों के राज्य का अस्थायी विस्तार भी किया। युवावस्था में उन्होंने पहले समन (योगी) बनने का निश्चय किया और 1708 में गुरु गोबिंद सिंह का शिष्य बनने तक वह माधो दास के नाम से जाने जाते रहे। सिक्ख बिरादरी में शामिल होने के बाद उनका नाम बंदा सिंह बहादुर हो गया और वह लोकप्रिय तो नहीं, सम्मानित सेनानी अवश्य बन गए, उनके तटस्थ, ठंडे और अवैयक्तिक स्व्भाव ने उन्हें उनके लोगों के बीच लोकप्रिय नहीं बनने दिया। बंदा सिंह ने 1709 में मुग़लों पर हमला करके बहुत बड़े क्षेत्र पर क़ब्ज़ा कर लिया। दक्कन क्षेत्र में उनके द्वारा लूटमार और क़त्लेआम से मुग़लों को उन पर पूरी ताकत से हमला करना पड़ा। 1715 में आठ महीनों की घेरेबंदी के बाद मुग़लों ने क़िलेबंद शहर गुरुदास नांगल पर क़ब्ज़ा कर लिया। बंदा सिंह और उनके साथियों को कैद करके दिल्ली ले जाया गया, जहां जहां छह महीने तक हर दिन उनके कुछ लोगों को मौत की सज़ा दी जाती रही। जब उनकी बारी आई, तो बंदा सिंह ने मुसलमान न्यायाधीश से कहा कि उनका यही हाल होना था, क्योंकि अपने प्यारे गुरु गोबिंद सिंह की इच्छाओं को पूरा करने में वह नाक़ाम रहे। उन्हें लाल गर्म लोहे की छड़ों से यातना देकर मार डाला गया।


बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी

ब्रिटिश अधिवक्ता एवं प्राच्यविद सर विलियम जोन्स द्वारा 15 जनवरी 1784 को प्राच्य विद्याध्ययन को प्रोत्साहन देने के लिये गठित सभा। संस्थापना दिवस के उपलक्ष्य में जोन्स ने अपने प्रसिध्द अभिभाषणों की श्रृंखला का पहला भाषण दिया। इस सभा को तत्कालीन बंगाल के प्रथम गवर्नर-जनरल ( 1772-95 ) वॉरेन हेस्टिग्ज़ का सहयोग और प्रोत्साहन मिला। जोन्स की मृत्यु ( 1794 ) तक यह सभा हिंदू संस्कृति तथा ज्ञान के महत्त्व व आर्य भाषाओं में संस्कृत की अहम भूमिका जैसे उनके विचारों की संवाहक थी।


बरारी घाटी का युद्ध


(9 जन॰ 1760), भारतीय इतिहास में पतन की ओर अग्रसर मुग़ल साम्राज्य पर नियंत्रण के लिए मराठों पर की गई अफ़ग़ान विजयों में से एक, जिसने अंग्रजों को बंगाल में पैर जमाने का समय दे दिया। दिल्ली से 16 किमी उत्तर में यमुना नदी के बरारी घाट (नौका घाट ) पर पंजाब से अहमद शाह दुर्रानी की अफ़ग़ान सेना से पीछे हट रहे मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया पर ऊंचे उगे सरकंडों की आड़ में छिपे अफ़गान सिपाहियों ने नदी पार करके अचानक हमला कर दिया। दत्ताजी मारे गए और उनकी सेना तितर-बितर हो गई। उनकी पराजय से दिल्ली पर अफ़ग़ानों के अधिकार का मार्ग प्रशस्त हो गया।


बर्द्धमान ज़िला

बर्द्धमान ज़िला दो अलग क्षेत्रों में बंटा है। पूर्वी भाग एक निम्न जलोढ़ मैदान है, जो सघन जनसंख्यायुक्त और पानी से भरा व दलदली रहता है। पूर्व की प्रमुख फ़सलें चावल, मक्का, दलहन और तिलहन हैं। पश्चिमी क्षेत्र बंगाल के सर्वाधिक व्यस्त औधोगिक क्षेत्रों में से एक है, यहां रानीगंज के बढ़िया कोयला भंडार और पड़ोसी क्षेत्रों में कच्चा लोहा और दूसरे खनिज़ उपलब्ध हैं। दामोदर नदी तट पर विकसित दुर्गापुर और आसनसोल के औद्योगिक नगर व कुछ और नगर, जिन्हें सामुहिक तौर पर दुर्गापुर औद्योगिक पट्टी के नाम से जाना जाता है, कोलकाता के बाद बंगाल का सबसे महत्त्वपूर्ण औद्योगिक क्षेत्र हैं। इस ज़िले में बर्द्धमान विश्वविद्यालय से संबद्ध एक इंजीनियरिंग कॉलेज और अनेक महाविद्यालय हैं। दामोदर घाटी निगम सिंचाई, औद्योगिक क्षेत्रों में बिजली की आपूर्ति और बाढ़ नियंत्रण का काम करता है। पूर्व की प्रमुख फ़सलें चावल, मक्का, दलहन और तिलहन हैं। जनसंख्या (2001) शहर 2,85,871; ज़िला कुल 69,19,698।


बरौनी


बसव

12वीं शताब्दी के धार्मिक सुधारक, उपदेशक, धर्म मीमांसक और चालुक्य राजा बिज्जला I (शासनकाल, 1156-67) के राजसी कोषागार के प्रबंधक, बसव हिंदू वीरशैव (लिंगायत) मत के पवित्र ग्रंथों में से एक, बसव पुराण के रचयिता हैं। परंपरा के अनुसार, वह वीरशैव के वास्तविक संस्थापक थे, परंतु चालुक्य अभिलेखों से पता चलता है कि उन्होंने वास्तव में पहले से मौजूद मत को पुनर्जीवित किया। बसव ने वीरशैव संस्थाओं को सहायता देकर और वीरशैव मत की शिक्षा देकर प्रचार में सहायता दी थी। उनके चाचा प्रधानमंत्री थे और उन्होंने बसव को कोषागार प्रमुख के रूप में नियुक्त किया था। कई वर्ष तक उनके गुट को काफ़ी लोकप्रियता मिली, परंतु दरबार में अन्य गुट उनकी शक्तियों और उनकी शह में वीरशैल मत के प्रसार से क्षुब्ध थे। उनके द्वारा लगाए गए आरोपों के कारण वह राज्य छोड़ कर चले गए और शीघ्र ही उनकी मृत्यु हो गई। भगवान शिव की स्तुति में उनके रचित भजनों से उन्हें कन्नड़ साहित्य में प्रमुख स्थान तथा हिंदू भक्ति साहित्य में भी स्थान मिला।


बाउल


बंगाल के धार्मिक गायकों के एक संप्रदाय के सदस्य, जो अपने अपारंपरित व्यवहार तथा रहस्यात्मक गीतों की सहजता एवं उन्मुक्तता के लिए जाने जाते है। इनके हिंदू ( मूल रूप से वैष्णव ) और मुसलमान ( आमतौर पर सूफ़ी ), दोनों है। इनके गीत अक्सर मनुष्य एवं उसके भीतर बसे इष्टदेव के बीच प्रेम से संबंधित होते हैं। इस संप्रदाय के विकास के बारे में बहुत कम जानकारी है, क्योंकि इनके गीतों का संकलन एवं लेखन 20 वीं सदी में ही शुरू हुआ। रबींद्रनाथ ठाकुर उन कई बांग्ला लेखकों में से एक थे, जिन्होंने बाउल गीतों से प्रेरणा लिए जाने की बात स्वीकार की।


दास


दस्यु भी कहा जाता है, भारत में आदिम समुदाय के लोग, जिनका यहां आ कर बसने वाले आर्यों के साथ टकराव हुआ, 1500 ई॰पू॰ में आर्यों ने इनका काली चमड़ी वाले, कटु भाषी लोगों के रूप में वर्णन किया है, जो लिंग की पूजा करते थे। इस प्रकार कई विद्वानों की यह धारणा बनी कि हिंदुओं के धार्मिक प्रतीक लिंगम की पूजा की यहां से शुरुआत हुई, हांलांकि हो सकता है कि इसका संबंध उनकी यौन क्रियाओं से रहा हो। वे क़िलेबंद स्थानों पर रहते थे जहां से वे अपनी सेनाएं भेजते थे। वे संभवत: मूल शूद्र या श्रमिक रहे होंगे, जो तीनों उच्च वर्गों, ब्राह्मणों (पुरोहित), क्षत्रियों (योध्दाओं) और वैश्यों ( व्यापारियों) की सेवा करते थे और जिन्हें उनके धार्मिक अनुष्ठानों से अलग रखा गया था।