गुरु हरगोविंद सिंह: Difference between revisions

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गुरु हरगोविंद सिंह जी का जन्म माता गंगा व पिता गुरु अर्जुन सिंह के यहाँ 14 जून, सन् 1595 ई॰ में बडाली (भारत) में हुआ था। यह सिक्खों के छठे गुरु थे, जिन्होंने एक मज़बूत सिख सेना सगठित की, अपने पिता गुरु अर्जुन के (मुग़ल शासकों (1606) के हाथों पहले सिख शहीद) निर्देशानुसार सिक्ख पंथ को योद्धा-चरित्र प्रदान किया था।
 
==इतिहास==
गुरु हरगोविंद से पहले सिक्ख पथ निष्क्रिय था। प्रतीक रूप में अस्त्र-शस्त्र धारण कर, हरगोविंद गुरु के तख़्त पर बैठे। उन्होंने अपना ज़्यादातर समय युद्ध प्रशिक्षण एव युद्ध कला में लगाया तथा बाद में वह कुशल तलवारबाज़ और कुश्ती व घुड़ सवारी में माहिर हो गए। तमाम विरोध के बावज़ूद हरगोविंद ने अपनी सेना संगाठित की और अपने शहरों की क़िलेबंदी की। 1609 में उन्होंने अमृतसर में अकाल तख़्त (ईश्वर का सिंहासन ) का निर्माण किया, इसमें संयुक्त रूप से एक मंदिर और सभागार हैं, जहाँ सिख-राष्ट्रीयता से संबंधित आध्यात्मिक और सांसारिक मामलों को निपटाया जा सकता था।
 
==सिक्खों के प्रति आस्था==
उन्होंने अमृतसर के निकट एक क़िला बनवाया और उसका नाम लौहगढ़ रखा। उन्होंने बड़ी कुशलता से अपने अनुयायियों में युद्ध के लिए इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास पैदा किया। मुग़ल बदशाह जहाँगीर ने सिक्खों की मजबूत होती हुई स्थिति को ख़तरा मानकर गुरु हरगोविंद सिंह को ग्वालियर में कैद कर लिया। गुरु हरगोविंद सिंह बारह वर्षो तक क़ैद में रहे, लेकिन उनके प्रति सिक्खों की आस्था और मजबूत हुई। अंतत: मुग़लों का विरोध करने वाले भारतीय राज्यों के ख़िलाफ़ सिक्खों का समर्थन प्राप्त करने के उद्देश्य से बादशाह पीछे हटे और गुरु को रिहा कर दिया। हरगोविंद ने यह भाँपकर कि मुग़लों के साथ संघर्ष का समय नज़दीक है, अपनी पुरानी युद्ध नीति जारी रखी।
 
==धर्म की रक्षा==
जहाँगीर की मृत्यु (1627) के बाद नए मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने उग्रता से सिक्खों पर अत्याचार शुरू किया। मुग़लों की अजेयता को झुठलाते हुए गुरु हरगोविंद के नेतृव्य में सिक्खों ने चार बार शाहजहाँ की सेना को मात दी। इस प्रकार अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित आदर्शों में गुरु हरगोविंद सिंह ने एक और आदर्श जोड़ा, सिक्खों का यह अधिकार और कर्तव्य है कि अगर ज़रुरत हो, तो वे तलवार उठाकर भी अपने धर्म की रक्षा करें। अपनी मृत्यु से ठीक पहले गुरु हरगोविंद ने अपने पोते हर राय को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
 
==सिक्ख धर्म में दीवाली==
सिखों के छठे गुरु हरगोविंद सिंह जी को दीवाली वाले दिन मुगल बादशाह जहाँगीर की कैद से मुक्ति मिली थी। गुरु हरगोविंद सिंह जी की बढ़ती शक्ति से घबरा कर मुगल बादशाह जहाँगीर ने उन्हें और उनके 52 साथियों को ग्वालियर के क़िले में बंदी बनाया हुआ था। जहांगीर ने सन् 1619 ई॰ में देश भर के लोगों द्वारा हरगोविंद सिंह जी को छोड़ने की अपील पर गुरु को दीवाली वाले दिन मुक्त किया था। हरगोविंद सिंह जी  कैद से मुक्त होते ही अमृतसर पहुँचे और वहां विशेष प्रार्थना का आयोजन किया गया। हरगोविंद सिंह जी के रिहा होने की खुशी में गुरु की माता ने सभी लोगों में मिठाई बाँटी और चारों ओर दीप जलाए गए। इसी वजह से सिख धर्म में दीवाली को 'बंदी छोड़ दिवस' के रूप में मनाया जाता है। सन् 1577 में दीवाली के दिन ही  अमृतसर के प्रसिद्घ स्वर्ण मंदिर की नींव रखी गई थी। सिख धर्म में दीवाली के त्योहार को तीन दिन तक आनद के साथ मनाया जाता है। अमृतसर में दीवाली के दिन विशेष समारोह का आयोजन किया जाता है, जिसमें दूर-दूर से लोग आते हैं। पवित्र सरोवर में इस दिन लोग सुबह-सुबह डुबकी लगाते हैं और स्वर्ण मंदिर के दर्शन करते हैं।
==हस्तलिखित लेख==
बदायूं में कांशीरामगनर जनपद के कस्बा सोरो में सिखों के गुरु श्री हरगोविंद सिंह जी महाराज का हस्तलिखित लेख (हुकुमनामा) मिला है। नानकमत्ता के कारसेवक बाबा तरसेम सिंह ने आज वहां जाकर उसे देखा और उसे हासिल करने के प्रयास शुरू कर दिए हैं।
 
==मृत्यु==
बादशाह जहाँगीर के आदेश से पाँचवें गुरु अर्जुन को फाँसी दे दी जाने पर गुरु हरगोविंद सिंह गद्दी पर बैठे। वे केवल धर्मोपदेशक ही नहीं, कुशल संगठनकर्ता भी थे और उन्होंने अपने अनुयायियों को शस्त्र धारण करने के लिए प्रेरित किया तथा छोटी सी सेना इकट्ठी कर ली। इससे कुपित होकर बादशाह जहाँगीर ने उनको बारह वर्ष तक क़ैद में डाले रखा। रिहा होने पर उन्होंने शाहजहाँ के खिलाफ बगावत कर दी और 1628 ई॰ में अमृतसर के निकट संग्राम में शाही फ़ौज को हरा दिया। अंत में उन्हें कश्मीर के पहाड़ में शरण लेनी पड़ी, जहाँ सन् 1644 ई॰ में कीरतपुर (पंजाब) भारत में उनकी मृत्यु हो गई।

Latest revision as of 11:13, 6 June 2013