गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-12: Difference between revisions
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मनुष्य के अंदर जो भगवान् हैं, वही नर में नारायण का सनातन अवतार हैं; और नर में जो अभिव्यक्ति है वही बहिर्जगत् में उनका चिह्र और विकास है। इस प्रकार जब अवतार-तत्व हमारी समझ में आ जाता है तब हम देखते हैं कि चाहे गीता की मूलगत शिक्षा-जिसको जानना ही हमारा प्रस्तुत विषय है- की दृष्टि से हो, या आम तौर पर आध्यात्मिक जीवन की दृष्टि से हो, इस ग्रंथ के बाह्य पहलू का महत्व गौण ही है। यूरोप में ईसा की ऐतिहासिकता पर जो वाद-विवाद चलता है वह अध्यात्मचेता भारतवर्ष के विचार में प्रायः समय का दुरुपयोग ही है; ऐसे वाद-विवाद चलता को वह ऐतिहासिक दृष्टि से तो महत्व देगा, पर उसकी दृष्टि में इसका कोई धार्मिक महत्व नहीं है, क्योंकि ईसा कोई मनुष्य युसूफ नाम के किसी बढई के पुत्र-रूप से नजरथ या बेथलहम मे पैदा हुए, पढ़े और राजद्रोह के किसी सच्चे या बनावटी अपराध में मृत्यु दण्ड से दंडित हुए या नहीं, इन बातों में आखिर क्या आता-जाता है जब कि हम आध्यात्मिक अनुभव से अपने अंतःस्थित ईसा को जान सकते हैं और ऊध्र्व चेतना में ऊपर उठकर उनकी शिक्षा की ज्योति मे निवास कर सकते हैं, ईसा का सूली पर चढ़ना भगवान् के साथ जिस ऐक्य का प्रतीक है उस ऐक्य के द्वारा प्रकृति विधान की दासता से मुक्त हो सकते हैं? ईसा अर्थात् ईश्वर का बनाया हुआ मनुष्य यदि हमारे अध्यात्म भाव में स्थित है तो इस बात का बहुत अधिक मूल्य नहीं दीखता कि मेरी के कोई पुत्र जोडिया मे शरीरतः थे या नहीं उन्होंने कष्ट झेले और अपने प्राणों को न्योछावर किया या नहीं। इसी प्रकार जिन श्रीकृष्ण का हमारे लिये महत्व है वे भगवान् के शाश्वत अवतार है, कोई ऐतिहासिक गुरु या मनुष्यों के नेता नहीं। इसलिये गीतोपदेश के सारतत्व को ग्रहण करने के लिये हमें महाभारत के उन मानव-रूप भगवान् श्रीकृष्ण के केवल आध्यात्मिक मर्म के साथ ही मतलब रखना चाहिये जो कुरुक्षेत्र की संग्राम भूमि में हमारे सामने अर्जुन के गुरु-रूप में अवस्थित हैं। ऐतिहासिक श्रीकृष्ण भी थे, इसमें कोई संदेह नहीं। छांदोग्य उपनिषद् में, पहले-पहल, यह नाम आता है और वहां इनके बारे में जो कुछ मालूम होता है वह इतना ही है कि आध्यात्मिक परंपरा में ब्रह्मवेत्ता के रूप में उनका नाम सुप्रसिद्ध था, उनका व्यक्त्वि और उनका इतिवृत्ति लोगों में इतना व्यापक था कि केवल देवकी-पुत्र श्रीकृष्ण कहने से ही लोग जान जाते थे कि किसकी चर्चा हो रही है। इसी उपनिषद् में विचित्रवीर्य के पुत्र राजा धृतराष्ट्र का भी नामोल्लेख है। और, चूंकि यह परंपरा इन दोनो नामों को महाभारत-काल में भी इतने निकट संपर्क में चलाये चली है, कारण ये दोनों-के-दोनों ही महाभारत के प्रमुख व्यक्ति हैं, इसलिये हम इस निर्णय पर भली प्रकार पहुंच सकते हैं कि ये दोनों वास्तव में समकालीन थे और यह कि इस महाकाव्य में अधिकतर ऐतिहासिक व्यक्तियों की ही चर्चा हुई है और कुरुक्षेत्र के संबंध मे किसी ऐसी घटना का ही उल्लेख है जिसकी छाप इस जाति के स्मृति-पट पर अच्छी तरह पड़ी हुई थी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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