रहीमन कीन्हीं प्रीति -रहीम: Difference between revisions

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‘रहीमन’ कीन्हीं प्रीति, साहब को पावै नहीं ।<br />
‘रहीमन’ कीन्हीं प्रीति, साहब को पावै नहीं ।<br />
जिनके अनगिनत मीत, समैं गरीबन को गनै ॥
जिनके अनगिनत मीत, समैं ग़रीबन को गनै ॥


;अर्थ
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मालिक से हमने प्रीति जोड़ी, पर उसे हमारी प्रीति पसन्द नहीं। उसके अनगिनत चाहक हैं, हम गरीबों की साईं के दरबार में गिनती ही क्या।
मालिक से हमने प्रीति जोड़ी, पर उसे हमारी प्रीति पसन्द नहीं। उसके अनगिनत चाहक हैं, हम ग़रीबों की साईं के दरबार में गिनती ही क्या।


{{लेख क्रम3| पिछला=ओछे को सतसंग -रहीम|मुख्य शीर्षक=रहीम के दोहे |अगला=रहिमन मोहिं न सुहाय -रहीम}}
{{लेख क्रम3| पिछला=ओछे को सतसंग -रहीम|मुख्य शीर्षक=रहीम के दोहे |अगला=रहिमन मोहिं न सुहाय -रहीम}}

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‘रहीमन’ कीन्हीं प्रीति, साहब को पावै नहीं ।
जिनके अनगिनत मीत, समैं ग़रीबन को गनै ॥

अर्थ

मालिक से हमने प्रीति जोड़ी, पर उसे हमारी प्रीति पसन्द नहीं। उसके अनगिनत चाहक हैं, हम ग़रीबों की साईं के दरबार में गिनती ही क्या।


left|50px|link=ओछे को सतसंग -रहीम|पीछे जाएँ रहीम के दोहे right|50px|link=रहिमन मोहिं न सुहाय -रहीम|आगे जाएँ

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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