ब्रजभाषा में तद्‌भव और तत्सम शब्द: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
(''''द्वितीय चरण के ब्रजभाषा साहित्य के''' पाँच बिन्दु अत...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
m (Text replacement - " तदभव " to " तद्भव ")
 
(One intermediate revision by one other user not shown)
Line 1: Line 1:
'''द्वितीय चरण के ब्रजभाषा साहित्य के''' पाँच बिन्दु अत्यन्त संलक्ष्य रूप से दिखाई देते पड़ते हैं।<br />
'''द्वितीय चरण के [[ब्रजभाषा]] साहित्य के''' पाँच बिन्दु अत्यन्त संलक्ष्य रूप से दिखाई देते पड़ते हैं।<br />
(1) तदभव और तत्सम शब्दों का एक ऐसा सहज सन्तुलन मिलता है, जिसमें तत्सम शब्द भी ब्रजभाषा की प्रकृति में ढले दिखते हैं, अधिकतर तो वे अर्द्ध-तत्सम रूप में। ‘प्रतीत’ के लिए ‘परतीति’ जबकि इसके साथ-साथ तदभव रूप ‘पतियाबो’ भी मिलता है, जैसे तत्सम प्रतिपादकों में नई नाम धातुएँ बनाकर ‘अभिलाष’ से ‘अभिलाखत’ या ‘अनुराग’ से ‘अनुरागत’। इस अवधि में समानान्तर तत्सम और तदभव शब्दों के अर्थक्षेत्र भी कुछ न कुछ स्पष्टत: व्यतिरेकी हो गए हैं। जब नख-शिख की बात करेंगे, तब ‘नह’ का प्रयोग नहीं करेंगे और जब दसों नह का प्रयोग करेंगे, तब ‘नख’ वहाँ प्रयुक्त नहीं होगा।<br />
(1) तद्भव और तत्सम शब्दों का एक ऐसा सहज सन्तुलन मिलता है, जिसमें तत्सम शब्द भी ब्रजभाषा की प्रकृति में ढले दिखते हैं, अधिकतर तो वे अर्द्ध-तत्सम रूप में। ‘प्रतीत’ के लिए ‘परतीति’ जबकि इसके साथ-साथ तद्भव रूप ‘पतियाबो’ भी मिलता है, जैसे तत्सम प्रतिपादकों में नई नाम धातुएँ बनाकर ‘अभिलाष’ से ‘अभिलाखत’ या ‘अनुराग’ से ‘अनुरागत’। इस अवधि में समानान्तर तत्सम और तद्भव शब्दों के अर्थक्षेत्र भी कुछ न कुछ स्पष्टत: व्यतिरेकी हो गए हैं। जब नख-शिख की बात करेंगे, तब ‘नह’ का प्रयोग नहीं करेंगे और जब दसों नह का प्रयोग करेंगे, तब ‘नख’ वहाँ प्रयुक्त नहीं होगा।<br />
[[चित्र:Hindi-Alphabhet.jpg|thumb|हिन्दी वर्णमाला]]
[[चित्र:Hindi-Alphabhet.jpg|thumb|हिन्दी वर्णमाला]]
(2)मूलक्रिया और साधित क्रिया रूपों की इस काल में प्रचुरता यह इंगित करती है कि इस काल के साहित्य में व्यापारों की विविधता को सूक्ष्मता से निरखने की कोशिश की गई है। आधुनिक [[हिन्दी]] में तो शुद्ध क्रिया रूप या क्रिया-साधित रूप कम हो गये हैं। इसमें विचारत की जगह पर विचार करना ही अधिक ग्राह्य रूप है। इस काल की ब्रजभाषा में समस्त क्रियापद, मिश्र क्रियापद (संज्ञा+होकर) जैसे तो मिलते हैं, ‘कर’ के साथ क्रिया पद नहीं मिलते या बहुत विरल हैं।<br />
(2)मूलक्रिया और साधित क्रिया रूपों की इस काल में प्रचुरता यह इंगित करती है कि इस काल के साहित्य में व्यापारों की विविधता को सूक्ष्मता से निरखने की कोशिश की गई है। आधुनिक [[हिन्दी]] में तो शुद्ध क्रिया रूप या क्रिया-साधित रूप कम हो गये हैं। इसमें विचारत की जगह पर विचार करना ही अधिक ग्राह्य रूप है। इस काल की ब्रजभाषा में समस्त क्रियापद, मिश्र क्रियापद (संज्ञा+होकर) जैसे तो मिलते हैं, ‘कर’ के साथ क्रिया पद नहीं मिलते या बहुत विरल हैं।<br />
(3)इसी काल में हिन्दी का मुहावरा विकसित हुआ, जैसे-
(3)इसी काल में [[हिन्दी]] का मुहावरा विकसित हुआ, जैसे-
<blockquote><poem>जदपि टेव तुम जानत उनकी तऊ मोहि कहि आवै।
<blockquote><poem>जदपि टेव तुम जानत उनकी तऊ मोहि कहि आवै।
प्रात होत मेरे अलक लडैतहिं माखन रोटी भावै।</poem></blockquote>
प्रात होत मेरे अलक लडैतहिं माखन रोटी भावै।</poem></blockquote>

Latest revision as of 14:17, 30 June 2017

द्वितीय चरण के ब्रजभाषा साहित्य के पाँच बिन्दु अत्यन्त संलक्ष्य रूप से दिखाई देते पड़ते हैं।
(1) तद्भव और तत्सम शब्दों का एक ऐसा सहज सन्तुलन मिलता है, जिसमें तत्सम शब्द भी ब्रजभाषा की प्रकृति में ढले दिखते हैं, अधिकतर तो वे अर्द्ध-तत्सम रूप में। ‘प्रतीत’ के लिए ‘परतीति’ जबकि इसके साथ-साथ तद्भव रूप ‘पतियाबो’ भी मिलता है, जैसे तत्सम प्रतिपादकों में नई नाम धातुएँ बनाकर ‘अभिलाष’ से ‘अभिलाखत’ या ‘अनुराग’ से ‘अनुरागत’। इस अवधि में समानान्तर तत्सम और तद्भव शब्दों के अर्थक्षेत्र भी कुछ न कुछ स्पष्टत: व्यतिरेकी हो गए हैं। जब नख-शिख की बात करेंगे, तब ‘नह’ का प्रयोग नहीं करेंगे और जब दसों नह का प्रयोग करेंगे, तब ‘नख’ वहाँ प्रयुक्त नहीं होगा।
thumb|हिन्दी वर्णमाला (2)मूलक्रिया और साधित क्रिया रूपों की इस काल में प्रचुरता यह इंगित करती है कि इस काल के साहित्य में व्यापारों की विविधता को सूक्ष्मता से निरखने की कोशिश की गई है। आधुनिक हिन्दी में तो शुद्ध क्रिया रूप या क्रिया-साधित रूप कम हो गये हैं। इसमें विचारत की जगह पर विचार करना ही अधिक ग्राह्य रूप है। इस काल की ब्रजभाषा में समस्त क्रियापद, मिश्र क्रियापद (संज्ञा+होकर) जैसे तो मिलते हैं, ‘कर’ के साथ क्रिया पद नहीं मिलते या बहुत विरल हैं।
(3)इसी काल में हिन्दी का मुहावरा विकसित हुआ, जैसे-

जदपि टेव तुम जानत उनकी तऊ मोहि कहि आवै।
प्रात होत मेरे अलक लडैतहिं माखन रोटी भावै।

[[चित्र:Tulsidas.jpg|thumb|गोस्वामी तुलसीदास]] ‘तऊ मोहि कहि आवै’ में कहने की लाचारी और कहने की आवश्यकता दोनों एक ही उक्ति में व्यक्त करने का उपाय ढूँढ लिया गया है अथवा निम्नलिखित प्रयोग में ‘नैन नचाय कहीं मुसकाय लला फिर अइयो खेलन होरी’, में एक साथ हास-परिहास, चुनौती और उल्लास तीनों की अभिव्यक्ति ‘फिरि आइयो खेलन होरी’ के द्वारा की गई है।
(4)सार्थक शब्द चयन में कुशलता अपने चरम पर पहुँच गई है, जैसे तुलसीदास की इस पंक्ति में-‘कहे राम रस न रहत’ में अनुभव के अनुपात में कहने के फीकेपन की अभिव्यक्ति जितने ‘कहे रस न रहत से हो सकती है’ उतने अन्य किसी उक्ति-खण्ड से नहीं या सूरदास के प्रसिद्ध पद में राधा के सन्देश को जहाँ इस रूप में कहा गया है, ‘तुम्हारी भावती कहीं’ वहाँ ‘भावती’ का चयन प्रिया की अपेक्षा, प्यारी की अपेक्षा अधिक सार्थक है, क्योंकि भावती में दो-दो अभिव्यंजनायें एक साथ हैं-भाव के अनुकूल और ‘भावतिय’ राधा में दोनों सामर्थ्य है। वे श्रीकृष्ण के भाव में ही डूबी हुई हैं और स्त्री रूप न होकर श्रीकृष्ण के भाव का ही विग्रह है।
(5)अन्तिम बिन्दु यह है कि इस काल की भाषा में ब्यौरा प्रस्तुत करते समय बहुत संयम से काम लिया गया है। अर्थात् सावधानी से भाव-बोधक ब्यौरे ही चुनकर रखे गये हैं और कुछ शब्द या अभिधान केन्द्रभूत होकर के स्थापित हो गए हैं। उनसे आशुलिपि की भाषा का काम लिया जाता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि पुराने कविसमयों और नये कविसमयों की उदभावना कल्पना के साथ की गई है, जैसे सूरदास की इस पंक्ति में-

‘चलि चकई वह चरन सरोवर जहाँ रैन नहिं होइ’



पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख