मिर्ज़ा साहिबां: Difference between revisions

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इस प्रेम कहानी की शुरुआत हुई आज़ादी के पहले [[पंजाब]] के खीवा गांव से, जो अब [[पाकिस्तान]] में है। यहां के अस्पताल में एक स्त्री ने एक लड़के को जन्म दिया, लेकिन कुछ देर बाद बेटे को जन्म देते ही उस स्त्री की मौत हो गई। उसके पास के बिस्तर पर एक अन्य स्त्री ने लड़की को जन्म दिया था। नवजात बच्चे को भूख से बिलखता देखकर लड़की की मां से रहा नहीं गया और उसने उस लड़के को भी दूध पिला दिया, जिससे ये दोनों लड़का और लड़की दूध के रिश्ते से भाई-बहन बन गए। गुजरते वक्त के साथ दोनों बड़े हो गए। लड़की का नाम फ़तेह बीबी रखा गया, जिसका [[विवाह]] खरराल जट समुदाय के सरदार वंजाल से हो गया। दूसरी तरफ़ लड़के का नाम खेवा ख़ान रखा गया, जो सियाल जट समुदाय का राजा बना। खेवा की शादी भी एक सुंदर लड़की से हो गई।
इस प्रेम कहानी की शुरुआत हुई आज़ादी के पहले [[पंजाब]] के खीवा गांव से, जो अब [[पाकिस्तान]] में है। यहां के अस्पताल में एक स्त्री ने एक लड़के को जन्म दिया, लेकिन कुछ देर बाद बेटे को जन्म देते ही उस स्त्री की मौत हो गई। उसके पास के बिस्तर पर एक अन्य स्त्री ने लड़की को जन्म दिया था। नवजात बच्चे को भूख से बिलखता देखकर लड़की की मां से रहा नहीं गया और उसने उस लड़के को भी दूध पिला दिया, जिससे ये दोनों लड़का और लड़की दूध के रिश्ते से भाई-बहन बन गए। गुजरते वक्त के साथ दोनों बड़े हो गए। लड़की का नाम फ़तेह बीबी रखा गया, जिसका [[विवाह]] खरराल जट समुदाय के सरदार वंजाल से हो गया। दूसरी तरफ़ लड़के का नाम खेवा ख़ान रखा गया, जो सियाल जट समुदाय का राजा बना। खेवा की शादी भी एक सुंदर लड़की से हो गई।
====साहिबांं और मिर्ज़ा का बचपन====
====साहिबांं और मिर्ज़ा का बचपन====
फतेह बीबी को एक लड़का हुआ, जिसका नाम मिर्ज़ा रखा गया, जबकि खेवा खान के घर चांद-सी बेटी ने जन्म लिया, जिसका नाम साहिबांं रखा गया। मिर्ज़ा की मां ने अपने बेटे को उनके दूध के रिश्ते के भाई खीवा खान के घर पढ़ाई करने के लिए भेज दिया। वहां जाकर मिर्ज़ा की पहली मुलाकात साहिबांं से हुई। दोनों का बचपन साथ गुजरा। दोनों के बीच अच्छी दोस्ती हो गई। लेकिन बढ़ती उम्र के साथ उनकी दोस्ती प्यार में बदल गई। धीरे-धीरे उनके प्रेम की चर्चा गली, मोहल्लों और [[मस्जिद|मस्जिदों]] में भी होने लगी। जब इस बात की भनक दोनों के माता-पिता को हुई तो मिर्ज़ा और साहिबांं दोनों को अलग कर दिया गया। कहा जाता है- साहिबांं इतनी सुंदर थी कि उसे देखते ही कोई भी अपने होश खो बैठता था। जबकि मिर्ज़ा तीर चलाने में इतने उस्ताद थे कि कोई भी उनके निशाने से नहीं बच सकता था। वह अपने किसी भी तीर को किसी भी दिशा में मोड़ सकते थे। उनके पास हमेशा तीर और धनुष रहते थे। मिर्ज़ा अपने साथ 300 तीर लेकर चलते थे।
फतेह बीबी को एक लड़का हुआ, जिसका नाम मिर्ज़ा रखा गया, जबकि खेवा खान के घर चांद-सी बेटी ने जन्म लिया, जिसका नाम साहिबांं रखा गया। मिर्ज़ा की मां ने अपने बेटे को उनके दूध के रिश्ते के भाई खीवा ख़ान के घर पढ़ाई करने के लिए भेज दिया। वहां जाकर मिर्ज़ा की पहली मुलाकात साहिबांं से हुई। दोनों का बचपन साथ गुजरा। दोनों के बीच अच्छी दोस्ती हो गई। लेकिन बढ़ती उम्र के साथ उनकी दोस्ती प्यार में बदल गई। धीरे-धीरे उनके प्रेम की चर्चा गली, मोहल्लों और [[मस्जिद|मस्जिदों]] में भी होने लगी। जब इस बात की भनक दोनों के माता-पिता को हुई तो मिर्ज़ा और साहिबांं दोनों को अलग कर दिया गया। कहा जाता है- साहिबांं इतनी सुंदर थी कि उसे देखते ही कोई भी अपने होश खो बैठता था। जबकि मिर्ज़ा तीर चलाने में इतने उस्ताद थे कि कोई भी उनके निशाने से नहीं बच सकता था। वह अपने किसी भी तीर को किसी भी दिशा में मोड़ सकते थे। उनके पास हमेशा तीर और धनुष रहते थे। मिर्ज़ा अपने साथ 300 तीर लेकर चलते थे।
==साहिबांं और मिर्ज़ा की मृत्यु==
====साहिबांं और मिर्ज़ा की मृत्यु====
दोनों को अलग करने के कुछ दिनों बाद साहिबांं का ताहिर ख़ान नाम के शख्स के साथ रिश्ता पक्का कर दिया गया। साहिबांं ने किसी तरह ये खबर मिर्ज़ा तक पहुंचाई। मिर्ज़ा, साहिबांं को उसके निकाह के दिन घर से लेकर फरार हो गए। दोनों भागते-भागते इतना थक गए कि पेड़ के नीचे बैठकर कुछ पल आराम करने लगे। साहिबांं के भाई और होने वाला पति दोनों को मारने के इरादे से पीछा करते हुए उन तक पहुंच गए। इस दौरान मिर्ज़ा थककर इतना चूर हो चुके थे कि वह सो गए। साहिबांं ने सोचा कि जब मेरे भाई आएंगे तो यहां खूनी खेल चालू हो जाएगा। इसलिए साहिबांं ने मिर्ज़ा के 300 तीर तोड़ डाले। शायद ऐसा करने के पीछे भाईयों के लिए साहिबांं के दिल में गहरा प्यार था। वहीं कुछ लोगों का ये भी मानना है कि मिर्ज़ा को अपने निशाने पर इतना यकीन था कि उसने भागने का इरादा छोड़कर सबको मारने की ठान रखी थी। इसलिए साहिबांं को लगा कि अगर
दोनों को अलग करने के कुछ दिनों बाद साहिबांं का ताहिर ख़ान नाम के शख्स के साथ रिश्ता पक्का कर दिया गया। साहिबांं ने किसी तरह ये खबर मिर्ज़ा तक पहुंचाई। मिर्ज़ा, साहिबांं को उसके निकाह के दिन घर से लेकर फरार हो गए। दोनों भागते-भागते इतना थक गए कि पेड़ के नीचे बैठकर कुछ पल आराम करने लगे। साहिबांं के भाई और होने वाला पति दोनों को मारने के इरादे से पीछा करते हुए उन तक पहुंच गए। इस दौरान मिर्ज़ा थककर इतना चूर हो चुके थे कि वह सो गए। साहिबांं ने सोचा कि जब मेरे भाई आएंगे तो यहां खूनी खेल चालू हो जाएगा। इसलिए साहिबांं ने मिर्ज़ा के 300 तीर तोड़ डाले। शायद ऐसा करने के पीछे भाईयों के लिए साहिबांं के दिल में गहरा प्यार था। वहीं कुछ लोगों का ये भी मानना है कि मिर्ज़ा को अपने निशाने पर इतना यकीन था कि उसने भागने का इरादा छोड़कर सबको मारने की ठान रखी थी। इसलिए साहिबांं को लगा कि अगर वह उनके 300 तीर तोड़ देगी तो शायद इस खूनी जंग से बचकर मिर्ज़ा उस गांव से निकलने को तैयार हो जाएँ। इन सब बातों के दौरान साहिबांं के भाई उनके पास पहुंच गए और दोनों को मारने के लिए अपने-अपने तीर निकाल लिए।  
वो उनके 300 तीर तोड़ देगी तो शायद इस खूनी जंग से बचकर मिर्ज़ा उस गांव से निकलने को तैयार हो जाए। इन सब बातों के दौरान साहिबांं के भाई उनके पास पहुंच गए और दोनों को मारने के लिए अपने-अपने तीर निकाल लिए।  


भाईयों का पहला तीर साहिबांं को लगा। अपने प्यार की चीख सुनकर मिर्ज़ा की आंख खुल गई। ये देखकर जैसे ही मिर्ज़ा ने अपना धनुष उठाया तो उनकी नज़र अपने 300 टूटे हुए तीरों पर गई। उन्हें समझते हुए देर नहीं लगी कि साहिबांं ने ऐसा क्यों किया है। कुछ लोग इसे साहिबांं के धोखे से भी जोड़कर देखते हैं। कहते हैं साहिबांं मिर्ज़ा से इतना प्यार करती थी कि जब भी कोई तीर मिर्ज़ा के पास आता तो वह खुद बीच में आकर खुद पर वार ले लेती थी। इस तरह करीब 40-50 तीरों ने साहिबांं को छलनी कर दिया। ऐसे में मिर्ज़ा ने साहिबांं से रोते हुए कहा ‘साथ जीने-मरने की कसम खाई थी। क्या अकेले ही जाना चाहती हो?’ अपनी कसम को याद दिलाते ही साहिबांं एक पल के लिए मिर्ज़ा के सामने से हट गई और एक तीर सीधे मिर्ज़ा के गले पर लगा। फिर तो अनगिनत तीरों ने दोनों के सीने को छलनी कर दिया और इस तरह एक और प्रेम कहानी हमेशा के लिए गहरी नींद में सो गई।
भाईयों का पहला तीर साहिबांं को लगा। अपने प्यार की चीख सुनकर मिर्ज़ा की आंख खुल गई। ये देखकर जैसे ही मिर्ज़ा ने अपना धनुष उठाया तो उनकी नज़र अपने 300 टूटे हुए तीरों पर गई। उन्हें समझते हुए देर नहीं लगी कि साहिबांं ने ऐसा क्यों किया है। कुछ लोग इसे साहिबांं के धोखे से भी जोड़कर देखते हैं। कहते हैं साहिबांं मिर्ज़ा से इतना प्यार करती थी कि जब भी कोई तीर मिर्ज़ा के पास आता तो वह खुद बीच में आकर खुद पर वार ले लेती थी। इस तरह करीब 40-50 तीरों ने साहिबांं को छलनी कर दिया। ऐसे में मिर्ज़ा ने साहिबांं से रोते हुए कहा ‘साथ जीने-मरने की कसम खाई थी। क्या अकेले ही जाना चाहती हो?’ अपनी कसम को याद दिलाते ही साहिबांं एक पल के लिए मिर्ज़ा के सामने से हट गई और एक तीर सीधे मिर्ज़ा के गले पर लगा। फिर तो अनगिनत तीरों ने दोनों के सीने को छलनी कर दिया और इस तरह एक और प्रेम कहानी हमेशा के लिए गहरी नींद में सो गई।

Latest revision as of 12:59, 15 July 2017

thumb|250px|मिर्ज़ा साहिबा मिर्ज़ा साहिबांं की प्रेमकथा पंजाब की लोक कथाओं में बेहद प्रचलित है। पंजाब के खीवा नामक गांव से शुरु हुई ये प्रेम कहानी प्रेमी-प्रेमिका की मृत्यु के साथ ही खत्म हो जाती है। ये प्रेम कथा जितनी पुरानी है, उतनी ही दर्द से भरी भी है।

कथा

इस प्रेम कहानी की शुरुआत हुई आज़ादी के पहले पंजाब के खीवा गांव से, जो अब पाकिस्तान में है। यहां के अस्पताल में एक स्त्री ने एक लड़के को जन्म दिया, लेकिन कुछ देर बाद बेटे को जन्म देते ही उस स्त्री की मौत हो गई। उसके पास के बिस्तर पर एक अन्य स्त्री ने लड़की को जन्म दिया था। नवजात बच्चे को भूख से बिलखता देखकर लड़की की मां से रहा नहीं गया और उसने उस लड़के को भी दूध पिला दिया, जिससे ये दोनों लड़का और लड़की दूध के रिश्ते से भाई-बहन बन गए। गुजरते वक्त के साथ दोनों बड़े हो गए। लड़की का नाम फ़तेह बीबी रखा गया, जिसका विवाह खरराल जट समुदाय के सरदार वंजाल से हो गया। दूसरी तरफ़ लड़के का नाम खेवा ख़ान रखा गया, जो सियाल जट समुदाय का राजा बना। खेवा की शादी भी एक सुंदर लड़की से हो गई।

साहिबांं और मिर्ज़ा का बचपन

फतेह बीबी को एक लड़का हुआ, जिसका नाम मिर्ज़ा रखा गया, जबकि खेवा खान के घर चांद-सी बेटी ने जन्म लिया, जिसका नाम साहिबांं रखा गया। मिर्ज़ा की मां ने अपने बेटे को उनके दूध के रिश्ते के भाई खीवा ख़ान के घर पढ़ाई करने के लिए भेज दिया। वहां जाकर मिर्ज़ा की पहली मुलाकात साहिबांं से हुई। दोनों का बचपन साथ गुजरा। दोनों के बीच अच्छी दोस्ती हो गई। लेकिन बढ़ती उम्र के साथ उनकी दोस्ती प्यार में बदल गई। धीरे-धीरे उनके प्रेम की चर्चा गली, मोहल्लों और मस्जिदों में भी होने लगी। जब इस बात की भनक दोनों के माता-पिता को हुई तो मिर्ज़ा और साहिबांं दोनों को अलग कर दिया गया। कहा जाता है- साहिबांं इतनी सुंदर थी कि उसे देखते ही कोई भी अपने होश खो बैठता था। जबकि मिर्ज़ा तीर चलाने में इतने उस्ताद थे कि कोई भी उनके निशाने से नहीं बच सकता था। वह अपने किसी भी तीर को किसी भी दिशा में मोड़ सकते थे। उनके पास हमेशा तीर और धनुष रहते थे। मिर्ज़ा अपने साथ 300 तीर लेकर चलते थे।

साहिबांं और मिर्ज़ा की मृत्यु

दोनों को अलग करने के कुछ दिनों बाद साहिबांं का ताहिर ख़ान नाम के शख्स के साथ रिश्ता पक्का कर दिया गया। साहिबांं ने किसी तरह ये खबर मिर्ज़ा तक पहुंचाई। मिर्ज़ा, साहिबांं को उसके निकाह के दिन घर से लेकर फरार हो गए। दोनों भागते-भागते इतना थक गए कि पेड़ के नीचे बैठकर कुछ पल आराम करने लगे। साहिबांं के भाई और होने वाला पति दोनों को मारने के इरादे से पीछा करते हुए उन तक पहुंच गए। इस दौरान मिर्ज़ा थककर इतना चूर हो चुके थे कि वह सो गए। साहिबांं ने सोचा कि जब मेरे भाई आएंगे तो यहां खूनी खेल चालू हो जाएगा। इसलिए साहिबांं ने मिर्ज़ा के 300 तीर तोड़ डाले। शायद ऐसा करने के पीछे भाईयों के लिए साहिबांं के दिल में गहरा प्यार था। वहीं कुछ लोगों का ये भी मानना है कि मिर्ज़ा को अपने निशाने पर इतना यकीन था कि उसने भागने का इरादा छोड़कर सबको मारने की ठान रखी थी। इसलिए साहिबांं को लगा कि अगर वह उनके 300 तीर तोड़ देगी तो शायद इस खूनी जंग से बचकर मिर्ज़ा उस गांव से निकलने को तैयार हो जाएँ। इन सब बातों के दौरान साहिबांं के भाई उनके पास पहुंच गए और दोनों को मारने के लिए अपने-अपने तीर निकाल लिए।

भाईयों का पहला तीर साहिबांं को लगा। अपने प्यार की चीख सुनकर मिर्ज़ा की आंख खुल गई। ये देखकर जैसे ही मिर्ज़ा ने अपना धनुष उठाया तो उनकी नज़र अपने 300 टूटे हुए तीरों पर गई। उन्हें समझते हुए देर नहीं लगी कि साहिबांं ने ऐसा क्यों किया है। कुछ लोग इसे साहिबांं के धोखे से भी जोड़कर देखते हैं। कहते हैं साहिबांं मिर्ज़ा से इतना प्यार करती थी कि जब भी कोई तीर मिर्ज़ा के पास आता तो वह खुद बीच में आकर खुद पर वार ले लेती थी। इस तरह करीब 40-50 तीरों ने साहिबांं को छलनी कर दिया। ऐसे में मिर्ज़ा ने साहिबांं से रोते हुए कहा ‘साथ जीने-मरने की कसम खाई थी। क्या अकेले ही जाना चाहती हो?’ अपनी कसम को याद दिलाते ही साहिबांं एक पल के लिए मिर्ज़ा के सामने से हट गई और एक तीर सीधे मिर्ज़ा के गले पर लगा। फिर तो अनगिनत तीरों ने दोनों के सीने को छलनी कर दिया और इस तरह एक और प्रेम कहानी हमेशा के लिए गहरी नींद में सो गई।

किवदंती

मिर्ज़ा साहिबां की प्रेमकथा के विषय में जो कहानी मिलती है, उनमें से एक में यह कहा जाता है कि साहिबां मर जाती है। वह अपने भाईयों को रोकने के लिए मिर्ज़ा के सामने खड़ी हो जाती है, लेकिन उनके तीर दोनों को चीर देते हैं और दोनों शरशैय्या पर हमेशा के लिए सो जाते हैं। जबकि दूसरी कहानी में मिर्ज़ा साहिबां को जिंदा रहने के लिए कहता है और फिर साहिबां जिंदा रहती है, लेकिन ऐसे जैसे मन मिर्ज़ा का और तन साहिबां का। कौन-सा अंत सच है? इस विषय में प्रमाणिकता नहीं है, लेकिन ये कहानी जितनी पुरानी है उतनी ही दर्द से भरी भी है। मिर्ज़ा और साहिबां की ये अमर प्रेम कहानी पंजाब के लोकगीतों में अक्सर सुनने को मिल जाती है।


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