प्रायश्चित्त: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "Category:हिन्दू धर्म कोश" to "Category:हिन्दू धर्म Category:हिन्दू धर्म कोश ") |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "==टीका टिप्पणी और संदर्भ==" to "{{संदर्भ ग्रंथ}} ==टीका टिप्पणी और संदर्भ==") |
||
Line 24: | Line 24: | ||
|शोध= | |शोध= | ||
}} | }} | ||
{{संदर्भ ग्रंथ}} | |||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
*<span>पुस्तक हिन्दू धर्म कोश से पेज संख्या 430-431 | '''डॉ. राजबली पाण्डेय''' |उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान (हिन्दी समिति प्रभाग) |राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन महात्मा गाँधी मार्ग, लखनऊ </span> | *<span>पुस्तक हिन्दू धर्म कोश से पेज संख्या 430-431 | '''डॉ. राजबली पाण्डेय''' |उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान (हिन्दी समिति प्रभाग) |राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन महात्मा गाँधी मार्ग, लखनऊ </span> |
Revision as of 10:01, 21 March 2011
वैदिक ग्रन्थों में प्रायश्चित्ति और प्रायश्चित्त दोनों शब्द एक ही अर्थ में पाये जाते हैं। इनसे पापमोचन के लिए धार्मिक कृत्य अथवा तप करने का बोध होता है।
परवर्ती साहित्य
- परवर्ती साहित्य में 'प्रायश्चित्त' शब्द ही अधिक प्रचलित है। इसकी कई व्युत्पत्तियाँ बताई गई हैं। निबन्धकारों ने इसका व्युत्पत्तिगत अर्थ 'प्राय: (=तप), चित्त' (दृढ़ संकल्प) अर्थात् तप करने का दृढ़ संकल्प किया है।
- याज्ञवल्क्यस्मृति (3.206) की बालम्भट्टी टीका में एक श्लोकर्द्ध उदधृत है, जिसके अनुसार इस शब्द की व्युत्पत्ति 'प्राय:=पाप, चित्त=शुद्धि' अर्थात् पाप की शुद्धि की गई है।[1]
- पराशरमाधवीय (2.1.3) में एक स्मृति के आधार पर कहा गया है कि प्रायश्चित वह क्रिया है, जिसके द्वारा अनुताप करने वाले पापी का चित्त मानसिक असन्तुलन से (प्रायश:) मुक्त किया जाता है। प्रायश्चित नैमित्तिकीय कृत्य है, किन्तु इसमें पापमोचन की कामना कर्ता में होती है, जिससे यह काम्य भी कहा जा सकता है।
प्रकार
पाप ऐच्छिक और अनैच्छिक दो प्रकार के होते हैं, इसलिए धर्मशास्त्र में इस बात पर विचार किया गया है कि दोनों प्रकार के पापों में प्रायश्चित करना आवश्यक है या नहीं। एक मत है कि केवल अनैच्छिक पाप प्रायश्चित से दूर होते हैं और उन्हीं को दूर करने के लिए प्रायश्चित्त करना चाहिए; ऐच्छिक पापों का फल तो भोगना ही पड़ता है। उनका मोचन प्रायश्चित से नहीं होता।[2]
दूसरे मत के अनुसार दोनों प्रकार के पापों के लिए प्रायश्चित करना चाहिए; भले ही पारलौकिक फलभोग (नरकादि) मनुष्य को अपने दुष्कर्म के कारण भोगना पड़े। प्रायश्चित के द्वारा वह सामाजिक सम्पर्क के योग्य हो जाता है।[3]
धर्मशास्त्र
कुछ बहुत से ऐसे अपराध हैं, जिनके लिए राजदण्ड और प्रायश्चित दोनों का विधान धर्मशास्त्रों में पाया जाता है। जैसे- हत्या, चोरी, सपिण्ड से योनिसम्बन्घ, धोखा आदि। इसका कारण यह है कि राजदण्ड से मनुष्य के शारीरिक कार्यों पर नियंत्रण होता है, किन्तु उसकी मानसिक शुद्धि नहीं होती और वह सामाजिक सम्पर्क के योग्य नहीं बनता। अत: धर्मशास्त्र में प्रायश्चित भी आवश्यक बतलाया गया है। प्रायश्चित का विधान करते समय इस बात पर विचार किया गया है कि पाप अथवा अपराध कामत: (इच्छा से) किया गया है अथव अनिच्छा से (अकामत:); प्रथम अपराध है अथवा पुनरावृत्त। साथ ही परिस्थिति, समय, स्थान, वर्ण, वय, शक्ति, विद्या, धन आदि पर भी विचार किया गया है। यदि परिषद द्वारा विहित प्रायश्चित की अवहेलना कोई व्यक्ति करता था तो उसे राज्य दण्ड देता था। अब धर्मशास्त्र, परिषद और जाति सभी के प्रभाव उठते जा रहे हैं, कुछ धार्मिक परिवारों को छोड़कर प्रायश्चित नहीं करता। प्रायश्चित के ऊपर धर्मशास्त्र का बहुत बड़ा साहित्य है। स्मृतियों के मोटे तौर पर तीन विभाग हैं-
- आचार
- व्यवहार
- प्रायश्चित।
इसके अतिरिक्त बहुत से निबन्ध ग्रन्थ और पद्धतियाँ भी प्रायश्चितों पर लिखी गईं हैं।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- पुस्तक हिन्दू धर्म कोश से पेज संख्या 430-431 | डॉ. राजबली पाण्डेय |उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान (हिन्दी समिति प्रभाग) |राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन महात्मा गाँधी मार्ग, लखनऊ