नाना साहब: Difference between revisions
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जब मई 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की ज्वालायें उठीं, नाना साहब भी राष्ट्र मुक्ति संघर्ष में कूद पड़े थे। उन्होंने कानपुर पर अधिकार कर लिया। कई मास इस पर आज़ादी का झण्डा लहराता रहा। कानपुर पर फिर से अधिकार करने के लिए हेवलाक ने विशाल सेना के साथ आक्रमण किया। उन्होंने कुछ समय तक शत्रु सेना से वीरता के साथ संघर्ष किया। अन्त में उनकी पराजय हुई। नाना साहब ने अपना साहस नहीं खोया और उन्होंने कई स्थानों में शत्रु सेना से संघर्ष किया। | जब मई 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की ज्वालायें उठीं, नाना साहब भी राष्ट्र मुक्ति संघर्ष में कूद पड़े थे। उन्होंने कानपुर पर अधिकार कर लिया। कई मास इस पर आज़ादी का झण्डा लहराता रहा। कानपुर पर फिर से अधिकार करने के लिए हेवलाक ने विशाल सेना के साथ आक्रमण किया। उन्होंने कुछ समय तक शत्रु सेना से वीरता के साथ संघर्ष किया। अन्त में उनकी पराजय हुई। नाना साहब ने अपना साहस नहीं खोया और उन्होंने कई स्थानों में शत्रु सेना से संघर्ष किया। | ||
अन्त में जब 1857 का प्रथम संग्राम असफल | अन्त में जब 1857 का प्रथम संग्राम असफल हुआ तब नाना साहब को सपरिवार [[नेपाल]] की शरण लेनी पड़ी लेकिन वहां शरण ना मिल सकी क्योंकि नेपाल दरबार अंग्रेजों को असन्तुष्ट नही करना चाहता था। जुलाई सन 1857 तक इस महान देश भक्त को घोर आपत्तियों में अपने दिन व्यतीत करने पड़े। उनका स्वराज्य स्थापना का स्वप्न टुट चुका था। | ||
अन्त में नेपाल स्थित देवखारी नावक गांव में जब वह सदलबल पड़ाव ड़ाले हुए थे, वह ज्वरग्रस्त हुए और केवल 34 वर्ष की अवस्था में 6 अक्टूबर 1858 को वह मृत्यु की हिमांकिनी गोद में सो गये। | अन्त में नेपाल स्थित देवखारी नावक गांव में जब वह सदलबल पड़ाव ड़ाले हुए थे, वह ज्वरग्रस्त हुए और केवल 34 वर्ष की अवस्था में 6 अक्टूबर 1858 को वह मृत्यु की हिमांकिनी गोद में सो गये। |
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महान स्वतन्त्रता सैनानी नाना साहब / Nana Sahab
पेशवा बाजीराव द्वितीय जिस समय दक्षिण छोड़कर गंगा तटस्थ बिठुर, कानपुर में रहने लगे थे तब उनके साथ दक्षिण के पं॰ माधवनारायण भट्ट और उनकी पत्नी गंगाबाई भी वही रहने लगे थे। इसी भट्ट दम्पत्ति से सन 1824 में एक ऐसे बालक का अवतरण हुआ जो हमारे देश के स्वतन्त्रता के इतिहास में अपने अनुपम देशप्रेम के कारण सदैव अमर रहेगा। पेशवा बाजीराव द्वितीय ने पुत्र हीन होने के कारण इसी बालक को गोद ले लिया था। कानपुर के पास गंगा तटस्थ बिठुर, कानपुर में ही रहते हुए बाल्यावस्था में ही नाना साहब ने घुड़सवारी, मल्लयुद्ध और तलवार चलाने में कुशलता प्राप्त कर ली थी।
लार्ड डलहौजी ने पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु के बाद नाना साहब को 8 लाख के पेन्शन से वंचित कर उन्हें अंग्रेजी राजा का शत्रु बना दिया था। नाना साहब ने इस अन्याय की फरियाद को देशभक्त अजीमुल्ला के माध्यम से इंलैण्ड की सरकार तक पहुंचाई थी। लेकिन प्रयास निस्फल रहा। अब दोनों ही अंग्रेजी राज्य के विरोधी हो गये और भारत से अंग्रेजी राज्य को उखाड़ फेंकने के प्रयास में लग गये। 1857 में भारत के विदेशी राज्य के उन्मूलनार्थ जो प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का विस्फोट हुआ था उसमें नाना साहब का विशेष उल्लेखनीय योगदान रहा था।
जब मई 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की ज्वालायें उठीं, नाना साहब भी राष्ट्र मुक्ति संघर्ष में कूद पड़े थे। उन्होंने कानपुर पर अधिकार कर लिया। कई मास इस पर आज़ादी का झण्डा लहराता रहा। कानपुर पर फिर से अधिकार करने के लिए हेवलाक ने विशाल सेना के साथ आक्रमण किया। उन्होंने कुछ समय तक शत्रु सेना से वीरता के साथ संघर्ष किया। अन्त में उनकी पराजय हुई। नाना साहब ने अपना साहस नहीं खोया और उन्होंने कई स्थानों में शत्रु सेना से संघर्ष किया।
अन्त में जब 1857 का प्रथम संग्राम असफल हुआ तब नाना साहब को सपरिवार नेपाल की शरण लेनी पड़ी लेकिन वहां शरण ना मिल सकी क्योंकि नेपाल दरबार अंग्रेजों को असन्तुष्ट नही करना चाहता था। जुलाई सन 1857 तक इस महान देश भक्त को घोर आपत्तियों में अपने दिन व्यतीत करने पड़े। उनका स्वराज्य स्थापना का स्वप्न टुट चुका था।
अन्त में नेपाल स्थित देवखारी नावक गांव में जब वह सदलबल पड़ाव ड़ाले हुए थे, वह ज्वरग्रस्त हुए और केवल 34 वर्ष की अवस्था में 6 अक्टूबर 1858 को वह मृत्यु की हिमांकिनी गोद में सो गये।
कुछ विद्वानों एवं शोधार्थियों के अनुसार महान क्रान्तिकारी नाना साहब के जीवन का पटाक्षेप नेपाल में न होकर, गुजरात के ऐतिहासिक स्थल सिहोर में हुआ। सिहोर में स्थित गोमतेश्वर स्थित गुफा, ब्रह्मकुण्ड की समाधि, नाना साहब के पौत्र केशवलाल के घर में सुरक्षित नागपुर, दिल्ली, पूना और नेपाल आदि से आये नाना को सम्बोधित पत्र तथा भवानी तलवार, नाना साहब की पोथी पूजा करने के ग्रन्थ और मूर्ति, पत्र तथा स्वाक्षरी; नाना साहब की मृत्यु तक उसकी सेवा करने वाली जड़ीबेन के घर से प्राप्त ग्रन्थ, छत्रपति पादुका और स्वयं जड़ीबेन द्वारा न्यायालय में दिये गये बयान इस तथ्य को सिद्ध करते है कि सिहीर, गुजरात के स्वामी दयानन्द योगेन्द्र नाना साहब ही थे जिन्होंने क्रान्ति की कोई संभावना न होने पर 1865 को सिहोर में सन्यास ले लिया था। मूलशंकर भट्ट और महेता जी के घरों से प्राप्त पोथियों से उपलब्ध तथ्यों के अनुसार बीमारी के बाद नाना साहब का निधन मूलशंकर भट्ट के निवास पर भाद्रमास की अमावस्या को हुआ।