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[[भारतकोश सम्पादकीय 8 जुलाई 2012|मानसून का शंख]]
[[भारतकोश सम्पादकीय 16 जुलाई 2012|शर्मदार की मौत]]
           "आपको कुछ पता भी है कि दुनिया में क्या हो रहा है, अरे! दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गयी और एक हमारे ये हैं... भोले भंडारी... अरे महाराज समाधि लगाये ही बैठे रहोगे या कुछ मेरी भी सुनोगे ?" [[कैलास पर्वत]] पर [[पार्वती देवी|पार्वती मैया]] ग़ुस्से से भन्ना रही थीं। [[शिव|शंकर जी]] ने ध्यान भंग करना ही सही समझा और बोले-
           जानवर अपनी बुद्धि का प्रयोग तार्किक धरातल पर नहीं कर सकते। इसीलिए जानवर को दो प्रकार से ही शिक्षित किया जा सकता है- डरा कर और भोजन के लालच से किंतु मनुष्य के लिए एक तीसरा तरीक़ा भी प्रयोग में लाया गया। वह था प्रेम द्वारा सीखना। तीसरा याने प्रेम से सीखने वाला तरीक़ा सबसे अधिक सहज और प्रभावशाली होता है। [[भारतकोश सम्पादकीय 16 जुलाई 2012|पूरा पढ़ें]]
"तुम्हारी ही तो सुनता हूँ भागवान... दूसरे देवता तो चार-चार... छह-छह ब्याह करके बैठे हैं और मैं तो सिर्फ़ तुम्हारी ही माला जपता रहता हूँ... अब हुआ क्या जो [[नंदी]] की तरह सींग समेत लड़ रही हो ?" [[भारतकोश सम्पादकीय 8 जुलाई 2012|पूरा पढ़ें]]
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| [[भारतकोश सम्पादकीय 1 जुलाई 2012|कहता है जुगाड़ सारा ज़माना]]  
 
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Revision as of 09:17, 16 July 2012

साप्ताहिक सम्पादकीय-आदित्य चौधरी

border|right|130px|link=भारतकोश सम्पादकीय 16 जुलाई 2012

शर्मदार की मौत
          जानवर अपनी बुद्धि का प्रयोग तार्किक धरातल पर नहीं कर सकते। इसीलिए जानवर को दो प्रकार से ही शिक्षित किया जा सकता है- डरा कर और भोजन के लालच से किंतु मनुष्य के लिए एक तीसरा तरीक़ा भी प्रयोग में लाया गया। वह था प्रेम द्वारा सीखना। तीसरा याने प्रेम से सीखने वाला तरीक़ा सबसे अधिक सहज और प्रभावशाली होता है। पूरा पढ़ें

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