सिंहासन बत्तीसी तेईस: Difference between revisions
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एक तपस्वी उल्टा लटका था। | एक तपस्वी उल्टा लटका था। | ||
दीवान ने बहुत-से फूल इकट्ठे किये और अपने देश लौटकर राजा को सब हाल कह सुनाया। | दीवान ने बहुत-से फूल इकट्ठे किये और अपने देश लौटकर राजा को सब हाल कह सुनाया। | ||
सुनकर राजा ने कहा: तुमने जो तपस्वी लटकता देखा, वह मेरा ही शरीर है। पूर्व जन्म में मैंने ऐसे ही तपस्या की थी। बीस योगी जो वहां बैठे हैं, वे तुम्हारे दिये हुए आदमी हैं। | |||
इतना बताकर राजा ने कहा: तुम चिंता न करो, जब तक मैं राजा हूं, तुम दीवान रहोगे। अपना परिचय देने के लिए मैंने यह सब किया था। अपने बड़े भाई को मैंने मारा तो इसमें दोष मेरा नहीं था। जो करम में लिखा होता है, सो होकर ही रहता है। | |||
पुतली बोली: राजा भोज! तुम हो ऐसे, तो सिंहासन पर बैठो? | |||
अगले दिन चौबीसवीं पुतली चित्रकला की बारी थी। उसने राजा को रोककर अपनी कहानी कही। | अगले दिन चौबीसवीं पुतली चित्रकला की बारी थी। उसने राजा को रोककर अपनी कहानी कही। |
Latest revision as of 11:06, 26 February 2013
सिंहासन बत्तीसी एक लोककथा संग्रह है। महाराजा विक्रमादित्य भारतीय लोककथाओं के एक बहुत ही चर्चित पात्र रहे हैं। प्राचीनकाल से ही उनके गुणों पर प्रकाश डालने वाली कथाओं की बहुत ही समृद्ध परम्परा रही है। सिंहासन बत्तीसी भी 32 कथाओं का संग्रह है जिसमें 32 पुतलियाँ विक्रमादित्य के विभिन्न गुणों का कथा के रूप में वर्णन करती हैं।
सिंहासन बत्तीसी तेईस
जब राजा विक्रमादित्य गद्दी पर बैठा तो उसने अपने दीवान से कहा कि तुमसे काम नहीं होगा। अच्छा हो कि मेरे लिए बीस दूसरे आदमी दे दो। दीवान ने ऐसा ही किया। वे लोग काम करने लगे। दीवान सोचने लगा कि वह अब क्या करे, जिससे राजा उससे खुश हो। संयोग की बात कि एक दिन उसे नदी में एक बहुत ही सुन्दर फूल बहता हुआ मिला, जिसे उसने राजा को भेंट कर दिया। राजा बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने कहा, "इस फूल का पेड़ लाकर मुझे दो, नहीं तो मैं तुम्हें देश-निकाला दे दूंगा।" दीवान बड़ा दु:खी हुआ और एक नाव पर कुछ सामान रखकर जिधर से फूल बहकर आया था, उधर चल दिया।
चलते-चलते वह एक पहाड़ के पास पहुंचा, जहां से नदी में पानी आ रहा था। वह नाव से उतरकर पहाड़ पर गया। वहां देखता क्या है कि हाथी, घोड़े, शेर आदि दहाड़ रहे हैं। वह आगे बढ़ा। उसे ठीक वैसा ही एक और फूल बहता हुआ दिखाई दिया। उसे आशा बंधी। आगे जाने पर उसे एक महल दिखाई दिया। वहां पेड़ में एक तपस्वी जंजीर से बंधा उलटा लटक रहा था और उसे घाव से लहू की जो बूंदें नीचे पानी में गिरती थीं, वे ही फूल बन जाती थीं। बीस और योगी वहां बैठे थे, जिनका शरीर सूखकर कांटा हो रहा था।
एक तपस्वी उल्टा लटका था।
दीवान ने बहुत-से फूल इकट्ठे किये और अपने देश लौटकर राजा को सब हाल कह सुनाया।
सुनकर राजा ने कहा: तुमने जो तपस्वी लटकता देखा, वह मेरा ही शरीर है। पूर्व जन्म में मैंने ऐसे ही तपस्या की थी। बीस योगी जो वहां बैठे हैं, वे तुम्हारे दिये हुए आदमी हैं।
इतना बताकर राजा ने कहा: तुम चिंता न करो, जब तक मैं राजा हूं, तुम दीवान रहोगे। अपना परिचय देने के लिए मैंने यह सब किया था। अपने बड़े भाई को मैंने मारा तो इसमें दोष मेरा नहीं था। जो करम में लिखा होता है, सो होकर ही रहता है।
पुतली बोली: राजा भोज! तुम हो ऐसे, तो सिंहासन पर बैठो?
अगले दिन चौबीसवीं पुतली चित्रकला की बारी थी। उसने राजा को रोककर अपनी कहानी कही।
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