पंडित लखमीचन्द: Difference between revisions

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==शीर्षक उदाहरण 1==
==शीर्षक उदाहरण 1== 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में साँग कला हरियाणवी भाषी क्षेत्रों में लोकरंजन का सर्वप्रमुख माध्यम थी ।परंतु इसके सर्वाधिक लोकप्रिय एवं ज्ञात विद्वान कवि 20वीं शदी में ही हुए हैं । साँग की इस परंपरा का प्रारम्भ 18 वीं शताब्दी में श्री किशन लाल भाट से माना जाता है । इसके बाद श्री बंसीलाल , मो॰ अलीबख्श , श्री बालकराम , मो॰ अहमद बख्श ,पं॰ नेतराम, पं॰ दीपचन्द , श्री स्वरूप चंद , श्री हरदेवा स्वामी आदि साँगी 19वीं शताब्दी तक इस परंपरा को समृद्ध करते रहे । 20 वीं शदी के प्रारम्भ में श्री बाजे भगत जो श्री हरदेवा के शिष्य थे –एक सुप्रसिद्ध साँगी हुए हैं जिन्होने साँग कला को न केवल नैतिक एवं सामाजिक ऊंचाईयों के संबंध मे ही समृद्ध किया बल्कि इसमें काव्यात्मक शुद्धता को भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया । लगभग श्री बाजे भगत के समकालीन ही पं॰ लखमीचन्द हुए जो हरियाणा के सूर्यकवि एवं हरियाणवी भाषा के शेक्सपीयर के रूप में जाने जाते हैं । श्री लखमीचन्द एवं श्री बाजेभगत की परंपरा को आगे बढ़ाने वालों में श्री खेमचंद ,पं ॰ मांगेराम , श्री धनपत सिंह , श्री रामकिशन व्यास के नाम सर्वविख्यात हैं । वर्तमान समय में अनेकों साँग मंडलियाँ हैं जो इन्हीं सांगियों की परंपरा को टेलीविज़न और सिनेमा के युग में जीवित रखने के लिए संघर्षरत हैं जिनमे पं॰जयनारायण , श्री महावीर स्वामी ,श्री श्योनाथ त्यागी , मो॰ काला शरीफ़ ,श्री धरमवीर साँगी आदि प्रसिद्ध हैं । अन्य साँग रागनी गायकों में मास्टर सतवीर जी , श्री रणवीर बड़वासनियाँ , श्री पालेराम दहिया श्री गुलाबसिंह खंडेराव भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं ।


===शीर्षक उदाहरण 2===
===शीर्षक उदाहरण 2=== हरियाणा के सूर्यकवि एवं हरियाणवी भाषा के शेक्सपीयर के रूप में विख्यात पं॰ श्री लखमीचन्द का जन्म सन 1901 में तत्कालीन रोहतक जिले के सोनीपत तहसील मे जमुना नदी के किनारे बसे जांटी नामक गाँव के साधरण गौड़ ब्रहाम्ह्ण परिवार मे हुआ ।


====शीर्षक उदाहरण 3====
====शीर्षक उदाहरण 3====श्री लखमीचंद के पिता पं॰ उमदीराम एक साधारण से किसान थे ,जो अपनी थोड़ी सी जमीन पर कृषि करके समस्त परिवार का पालन - पोषण करते थे । जब लखमीचन्द कुछ बड़े हुए तो उन्हें विद्यालय न भेजकर गोचारण का काम दिया गया । गीत संगीत की लगन उन्हें बचपन से ही थी , अतः अन्य साथी ग्वालों के साथ घूमते –फिरते उनके मुख से सुने हुए टूटे –फूटे गीतों और रागनियों को गुनगुनाकर समय यापन करते थे । आयु बढने के साथ –साथ गीत-संगीत के प्रति उनकी आसक्ति इस कदर बढ़ गई की तात्कालीन लोककला साँग देखने के लिए कई-कई दिन बिना बताए घर से गायब रहते थे । एक बार उस समय के प्रसिद्ध साँगी पं॰ दीपचन्द का साँग देखने के लिए ,तथा दूसरी बार श्री निहाल सिंह का साँग देखने के लिए वे कई दिनों के लिए घर से गायब हो गए । तब बड़ी मुश्किल से उनके घरवाले उन्हें ढूंढकर घर लाए ।


=====शीर्षक उदाहरण 4=====
=====शीर्षक उदाहरण 4=====इन्हीं दिनों पं॰ लखमीचन्द के जीवन मे एक नए अध्याय का सूत्रपात हुआ सौभाग्य से तात्कालीन सुप्रसिद्ध लोककवि मानसिंह उनके गाँव में
एक विवाहोत्सव पर भजन गाने के लिए आमंत्रित होकर पधारे । कवि मानसिंह की मधुर कंठ-माधुरी ने किशोरायु लखमीचन्द का कुछ ऐसा मन मोहित किया कि प्रथम भेंट मे ही उन्होने श्री मानसिंह को अपना सतगुरु बना लिया और अपनी संगीत-पिपासा को शांत करने के लिए गुरु के साथ चल दिए । लगभग एक साल तक पूरी निष्ठा एवं लगन के गुरु सेवा करके घर लौटे तो वे गायन एवं वादन कि कला के साथ-साथ एक लोक –कवि भी बन चुके थे । कहते हैं कि वैसे तो मानसिंह अपने जमाने के एक साधारण कवि गायक ही थे परंतु शिष्य का लगाव और श्रद्धा इतनी गहरी थी कि गुरु प्रभाव उसी प्रकार फलदायक हुआ जिस प्रकार सीधे-साधे सकुरात का अपने शिष्य प्लूटो पर या श्री रामानन्द का कबीर पर । पं॰ लखमीचन्द का संपूर्ण जीवन गुरुमय रहा । गायन कला के पश्चात अभिनय कला में महारत अर्जित करने हेतु ये कुछ दिनों मेहंदीपुर निवासी श्रीचंद साँगी की साँग मंडली ने भी रहे तथा बाद में विख्यात साँगी सोहन कुंडलवाला के बेड़े मे भी रहे परंतु अपना गुरु श्री मानसिंह को ही स्वीकार किया । कुछ दिनों के बाद लघभग बीस साल कि आयु में पं॰ लखमीचन्द ने अपने गुरूभाई जयलाल उर्फ जैली के साथ मिलकर स्वतंत्र साँग मंडली बना ली और सारे हरियाणा में घूम--घूम कर अपने स्वयं रचित सांगो का प्रचार करने लगे तो कुछ ही दिनों में सफलता और लोकप्रियता के सोपान चढ़ गए तथा सर्वाधिक लोकप्रिय साँगी , सूर्यकवि का दर्जा हासिल कर गए । प्रारम्भ में इनके साँग श्रंगार रस से परिपूरित थे जो बाद में सामजिकता, नैतिक मूल्यों एवं अध्यात्म का चरम एहसास लिए हुए हैं । इस प्रकार इन्होने समाज के हर वर्ग मे अपनी पैठ बनाई जिस कारण आज भी इनकी कई काव्य पंक्तियाँ हरियाणवी समाज में कहावतों कोई भांति प्रयोग कि जाती हैं ।
श्री लखमीचन्द बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे । वे केवल एक लोककवि या लोक कलाकार ही नहीं अपितु एक उदारचेता , दानी ,एवं लोक-कल्याण कि भावना से ओतप्रोत समाज-सुधारक थे । इनकी बुद्धिमत्ता एवं गायन कौशल को देखकर प्रसिद स्वतन्त्रता सेनानी एवं संस्कृत के विद्वान पं॰ टीकाराम(रोहतक निवासी ) ने इनको बहुत दिनों अपने पास ठहराया तथा संस्कृत भाषा एवं वेदों का अध्ययन कराया । श्री लखमीचन्द द्वारा रचित सांगों की संख्या बीस से अधिक है जिनमे प्रमुख हैं – नौटंकी , हूर मेनका ,भक्त पूर्णमल, मीराबाई , सेठ ताराचंद , सत्यवान-सावित्री , शाही लकड़हारा , चीर पर्व (महाभारत ) कृष्ण-जन्म ,राजा भोज – शरणदेय ,नल-दमयंती , राजपूत चापसिंह ,पद्मावत ,भूप पुरंजय आदि । सांगो के अतिरिक्त इन्होने कुछ मुक्तक पदों एवं रागनियों की रचना भी की है जिनमे भक्ति भावना , साधु सेवा ,गऊ सेवा , सामाजिकता , नैतिकता , देशप्रेम , मानवता, दानशीलता आदि भावों की सर्वोतम अभिव्यक्ति है । पं॰ जी की रचनाओं में संगीत एवं कला पक्ष सर्वाधिक रूप से मजबूत होता है । विभिन्न काव्य शिल्प रूप जैसे – अलंकार सौन्दर्य एवं विविधता , छंद –विधान की भिन्नता , भाषा में तुकबंदी एवं नाद सौन्दर्य , मुहावरों एवं लोकोक्तियों का कुशलता पूर्वक प्रयोग ,छंदो की नयी चाल आदि शिल्प एवं भाव गुण इन्हे कविश्रेष्ठ , सूर्यकवि , कविशिरोमणि जैसी उपाधियाँ देने को सार्थक सिद्ध करते हैं ।
 
हरियाणवी संस्कृति के पुरोधा और लोकनायक पं॰ लखमीचन्द का देहांत सन 1945 में मात्र 44 वर्ष की आयु मे ही हो गया । एक प्रसिद लोककवि श्री जगदीश चंद्र ने उनके जीवन संदर्भ एवं व्यक्तित्व के बारे में एक रागनी मे लिखा है –
माता –पिता ने तप करके वो पुत्र रूप मे पाये थे । (टेक )
आत्म - ज्ञान से आशा तृष्णा ना कदे पास फटकती थी ,
राग - भाग बैराग त्याग संतोष वीरता शक्ति थी ,
दया धर्म पुण्ण दान-शीलता गुरु में श्रद्धा भक्ति थी ,
ताल तर्ज सुरीली कविता नौ रस भरी टपकती थी ,
चरणों लक्ष्मी झुकती थी पर हाथ द्रव ना लाये थे ।
माता –पिता ने तप.......
सन उन्नीस सौ पैंतालीस मे देशनगर घर छोड़ गए ,
दो की साल ग्यास आसौज सुदी स्वर्ग लोक को दौड़ गए ,
तात भ्रात भार्या सूत दारा सबसे नाता तोड़ गए ,
कित ढूंढे जगदीश चंद्र ना कोए पता ठिकाना छोड़ गए ॥
माता पिता ने तप .....
 
पं॰ श्री लखमीचन्द 1903-1945


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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Revision as of 10:52, 15 April 2013

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==शीर्षक उदाहरण 1== 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में साँग कला हरियाणवी भाषी क्षेत्रों में लोकरंजन का सर्वप्रमुख माध्यम थी ।परंतु इसके सर्वाधिक लोकप्रिय एवं ज्ञात विद्वान कवि 20वीं शदी में ही हुए हैं । साँग की इस परंपरा का प्रारम्भ 18 वीं शताब्दी में श्री किशन लाल भाट से माना जाता है । इसके बाद श्री बंसीलाल , मो॰ अलीबख्श , श्री बालकराम , मो॰ अहमद बख्श ,पं॰ नेतराम, पं॰ दीपचन्द , श्री स्वरूप चंद , श्री हरदेवा स्वामी आदि साँगी 19वीं शताब्दी तक इस परंपरा को समृद्ध करते रहे । 20 वीं शदी के प्रारम्भ में श्री बाजे भगत जो श्री हरदेवा के शिष्य थे –एक सुप्रसिद्ध साँगी हुए हैं जिन्होने साँग कला को न केवल नैतिक एवं सामाजिक ऊंचाईयों के संबंध मे ही समृद्ध किया बल्कि इसमें काव्यात्मक शुद्धता को भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया । लगभग श्री बाजे भगत के समकालीन ही पं॰ लखमीचन्द हुए जो हरियाणा के सूर्यकवि एवं हरियाणवी भाषा के शेक्सपीयर के रूप में जाने जाते हैं । श्री लखमीचन्द एवं श्री बाजेभगत की परंपरा को आगे बढ़ाने वालों में श्री खेमचंद ,पं ॰ मांगेराम , श्री धनपत सिंह , श्री रामकिशन व्यास के नाम सर्वविख्यात हैं । वर्तमान समय में अनेकों साँग मंडलियाँ हैं जो इन्हीं सांगियों की परंपरा को टेलीविज़न और सिनेमा के युग में जीवित रखने के लिए संघर्षरत हैं जिनमे पं॰जयनारायण , श्री महावीर स्वामी ,श्री श्योनाथ त्यागी , मो॰ काला शरीफ़ ,श्री धरमवीर साँगी आदि प्रसिद्ध हैं । अन्य साँग रागनी गायकों में मास्टर सतवीर जी , श्री रणवीर बड़वासनियाँ , श्री पालेराम दहिया श्री गुलाबसिंह खंडेराव भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं ।

===शीर्षक उदाहरण 2=== हरियाणा के सूर्यकवि एवं हरियाणवी भाषा के शेक्सपीयर के रूप में विख्यात पं॰ श्री लखमीचन्द का जन्म सन 1901 में तत्कालीन रोहतक जिले के सोनीपत तहसील मे जमुना नदी के किनारे बसे जांटी नामक गाँव के साधरण गौड़ ब्रहाम्ह्ण परिवार मे हुआ ।

====शीर्षक उदाहरण 3====श्री लखमीचंद के पिता पं॰ उमदीराम एक साधारण से किसान थे ,जो अपनी थोड़ी सी जमीन पर कृषि करके समस्त परिवार का पालन - पोषण करते थे । जब लखमीचन्द कुछ बड़े हुए तो उन्हें विद्यालय न भेजकर गोचारण का काम दिया गया । गीत संगीत की लगन उन्हें बचपन से ही थी , अतः अन्य साथी ग्वालों के साथ घूमते –फिरते उनके मुख से सुने हुए टूटे –फूटे गीतों और रागनियों को गुनगुनाकर समय यापन करते थे । आयु बढने के साथ –साथ गीत-संगीत के प्रति उनकी आसक्ति इस कदर बढ़ गई की तात्कालीन लोककला साँग देखने के लिए कई-कई दिन बिना बताए घर से गायब रहते थे । एक बार उस समय के प्रसिद्ध साँगी पं॰ दीपचन्द का साँग देखने के लिए ,तथा दूसरी बार श्री निहाल सिंह का साँग देखने के लिए वे कई दिनों के लिए घर से गायब हो गए । तब बड़ी मुश्किल से उनके घरवाले उन्हें ढूंढकर घर लाए ।

=====शीर्षक उदाहरण 4=====इन्हीं दिनों पं॰ लखमीचन्द के जीवन मे एक नए अध्याय का सूत्रपात हुआ सौभाग्य से तात्कालीन सुप्रसिद्ध लोककवि मानसिंह उनके गाँव में एक विवाहोत्सव पर भजन गाने के लिए आमंत्रित होकर पधारे । कवि मानसिंह की मधुर कंठ-माधुरी ने किशोरायु लखमीचन्द का कुछ ऐसा मन मोहित किया कि प्रथम भेंट मे ही उन्होने श्री मानसिंह को अपना सतगुरु बना लिया और अपनी संगीत-पिपासा को शांत करने के लिए गुरु के साथ चल दिए । लगभग एक साल तक पूरी निष्ठा एवं लगन के गुरु सेवा करके घर लौटे तो वे गायन एवं वादन कि कला के साथ-साथ एक लोक –कवि भी बन चुके थे । कहते हैं कि वैसे तो मानसिंह अपने जमाने के एक साधारण कवि गायक ही थे परंतु शिष्य का लगाव और श्रद्धा इतनी गहरी थी कि गुरु प्रभाव उसी प्रकार फलदायक हुआ जिस प्रकार सीधे-साधे सकुरात का अपने शिष्य प्लूटो पर या श्री रामानन्द का कबीर पर । पं॰ लखमीचन्द का संपूर्ण जीवन गुरुमय रहा । गायन कला के पश्चात अभिनय कला में महारत अर्जित करने हेतु ये कुछ दिनों मेहंदीपुर निवासी श्रीचंद साँगी की साँग मंडली ने भी रहे तथा बाद में विख्यात साँगी सोहन कुंडलवाला के बेड़े मे भी रहे परंतु अपना गुरु श्री मानसिंह को ही स्वीकार किया । कुछ दिनों के बाद लघभग बीस साल कि आयु में पं॰ लखमीचन्द ने अपने गुरूभाई जयलाल उर्फ जैली के साथ मिलकर स्वतंत्र साँग मंडली बना ली और सारे हरियाणा में घूम--घूम कर अपने स्वयं रचित सांगो का प्रचार करने लगे तो कुछ ही दिनों में सफलता और लोकप्रियता के सोपान चढ़ गए तथा सर्वाधिक लोकप्रिय साँगी , सूर्यकवि का दर्जा हासिल कर गए । प्रारम्भ में इनके साँग श्रंगार रस से परिपूरित थे जो बाद में सामजिकता, नैतिक मूल्यों एवं अध्यात्म का चरम एहसास लिए हुए हैं । इस प्रकार इन्होने समाज के हर वर्ग मे अपनी पैठ बनाई जिस कारण आज भी इनकी कई काव्य पंक्तियाँ हरियाणवी समाज में कहावतों कोई भांति प्रयोग कि जाती हैं । श्री लखमीचन्द बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे । वे केवल एक लोककवि या लोक कलाकार ही नहीं अपितु एक उदारचेता , दानी ,एवं लोक-कल्याण कि भावना से ओतप्रोत समाज-सुधारक थे । इनकी बुद्धिमत्ता एवं गायन कौशल को देखकर प्रसिद स्वतन्त्रता सेनानी एवं संस्कृत के विद्वान पं॰ टीकाराम(रोहतक निवासी ) ने इनको बहुत दिनों अपने पास ठहराया तथा संस्कृत भाषा एवं वेदों का अध्ययन कराया । श्री लखमीचन्द द्वारा रचित सांगों की संख्या बीस से अधिक है जिनमे प्रमुख हैं – नौटंकी , हूर मेनका ,भक्त पूर्णमल, मीराबाई , सेठ ताराचंद , सत्यवान-सावित्री , शाही लकड़हारा , चीर पर्व (महाभारत ) कृष्ण-जन्म ,राजा भोज – शरणदेय ,नल-दमयंती , राजपूत चापसिंह ,पद्मावत ,भूप पुरंजय आदि । सांगो के अतिरिक्त इन्होने कुछ मुक्तक पदों एवं रागनियों की रचना भी की है जिनमे भक्ति भावना , साधु सेवा ,गऊ सेवा , सामाजिकता , नैतिकता , देशप्रेम , मानवता, दानशीलता आदि भावों की सर्वोतम अभिव्यक्ति है । पं॰ जी की रचनाओं में संगीत एवं कला पक्ष सर्वाधिक रूप से मजबूत होता है । विभिन्न काव्य शिल्प रूप जैसे – अलंकार सौन्दर्य एवं विविधता , छंद –विधान की भिन्नता , भाषा में तुकबंदी एवं नाद सौन्दर्य , मुहावरों एवं लोकोक्तियों का कुशलता पूर्वक प्रयोग ,छंदो की नयी चाल आदि शिल्प एवं भाव गुण इन्हे कविश्रेष्ठ , सूर्यकवि , कविशिरोमणि जैसी उपाधियाँ देने को सार्थक सिद्ध करते हैं ।

हरियाणवी संस्कृति के पुरोधा और लोकनायक पं॰ लखमीचन्द का देहांत सन 1945 में मात्र 44 वर्ष की आयु मे ही हो गया । एक प्रसिद लोककवि श्री जगदीश चंद्र ने उनके जीवन संदर्भ एवं व्यक्तित्व के बारे में एक रागनी मे लिखा है – माता –पिता ने तप करके वो पुत्र रूप मे पाये थे । (टेक ) आत्म - ज्ञान से आशा तृष्णा ना कदे पास फटकती थी , राग - भाग बैराग त्याग संतोष वीरता शक्ति थी , दया धर्म पुण्ण दान-शीलता गुरु में श्रद्धा भक्ति थी , ताल तर्ज सुरीली कविता नौ रस भरी टपकती थी , चरणों लक्ष्मी झुकती थी पर हाथ द्रव ना लाये थे । माता –पिता ने तप....... सन उन्नीस सौ पैंतालीस मे देशनगर घर छोड़ गए , दो की साल ग्यास आसौज सुदी स्वर्ग लोक को दौड़ गए , तात भ्रात भार्या सूत दारा सबसे नाता तोड़ गए , कित ढूंढे जगदीश चंद्र ना कोए पता ठिकाना छोड़ गए ॥ माता पिता ने तप .....

पं॰ श्री लखमीचन्द 1903-1945



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