हरिजन सेवक संघ: Difference between revisions
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हरिजन सेवक संघ एक अखिल भारतीय संगठन है जिसका निर्माण गांधीजी ने हिन्दू समाज से अश्पृश्यता मिटाने के लक्ष्य से किया। इस संघ की कल्पना तत्वत 'प्रायश्चित करने वालों' के एक समाज के रूप में की गयी थी, जिससे हिन्दू समाज तथाकथित अस्पृश्यों के प्रति किये गये अपने पाप का प्रायश्चित कर सके। उसका कार्य किसी को विशेषाधिकार देने के बजाय ऋण चुकाना है, इसलिए उसकी कार्यकारिणी में वे ही लोग रखे गये, जिन्हें प्रायश्चित करना था।
ऋण उतारने का काम
'हरिजन सेवक संघ' यद्यपि अस्पृश्यता को जड़-मूल से मिटा देने और हरिजनों की दशा सुधारने के उद्देश्य से स्थापित किया गया था, लेकिन उसकी कार्यकारिणी में सवर्ण हिन्दुओं को ही लिये जाने पर अनेक लोगों ने सवाल खड़े किये। गाँधीजी इस प्रश्न पर दृढ़ रहे। उन्होंने लोगों को समझाया कि 'हरिजन सेवक संघ' का काम किसी विशेषाधिकार का दावा करने या किसी पर कृपा करने का नहीं है, वह तो 'ऋण उतारने' का काम है। वह प्रायश्चित करनेवालों का समाज है। इस मामले में पापी तो सवर्ण हिन्दू हैं, इसलिए उन्हीं को हरिजनों की सेवा करके और सवर्ण हिन्दू लोकमत को हिन्दू धर्म के माथे से अस्पृश्यता का कलंक दूर करने की शिक्षा देकर प्रायश्चित और पश्चाताप करना है। जब तक अन्याय करनेवाला सच्चा पश्चाताप न करे, तब तक अस्पृश्यता जड़ से नहीं मिटायी जा सकती और पश्चाताप दूसरों के द्वारा नहीं किया जा सकता-उसे तो स्वयं ही करना होता है।
गाँधीजी से पूछा गया- सवर्ण हिन्दू हरिजनों के हितों की देखभाल कैसे कर सकते हैं? जिन वर्गों ने उनके हाथों दीर्घकाल से कष्ट उठाये हैं, उनकी भावनाओं को वे कैसे समझ सकते हैं?
गाँधीजी ने उत्तर दिया- सवर्ण हिन्दू स्वेच्छापूर्वक, नाम के लिए नहीं, बल्कि व्यवहार में भंगी बन जायें। यदि सवर्ण हिन्दू अपना कर्तव्य पूरी तरह और अच्छी तरह पालन करें, तो हरिजन देखते-ही-देखते ऊपर उठ जायेंगे और हिन्दू धर्म अस्पृश्यता के कलंक से शुद्ध होकर संसार के लिए बहुमूल्य विरासत छोड़ जायेगा।
श्री प्यारेलाल ने सच कहा है कि गाँधीजी ने अस्पृश्यता के विरुद्ध लड़े जाने वाले धर्म-युद्ध को अपने राजनीतिक कार्यक्रम का अविभाज्य अंग बनाकर अपने सारे राजनीतिक जीवन को ख़तरे में डाल दिया था। उन्होंने जब अस्पृश्यता निवारण आन्दोलन चलाया था, उस समय भी समाज और उनके निकट के कुछ साथी उनके उस क़दम को पसन्द नहीं करते थे। उन्होंने अपना बोरिया-बिस्तर बाँधकर चले जाने की तैयारी भी कर ली थी, परन्तु गाँधीजी इससे विचलित नहीं हुए। उन्हें इससे आन्तरिक संतोष ही हुआ था।
दलित चेतना की बेचैनी
'हरिजन सेवक संघ' के कार्यकर्ताओं की एक बैठक में यह सवाल उठाया गया कि यदि सवर्ण हिन्दू]छूत और अछूत की समानता का दावा सच्चे हृदय से करते हैं, तो उन दोनों में विवाह क्यों नहीं होते? गाँधीजी ने उत्तर दिया- आपको याद होगा कि मैंने बहुत पहले यह नियम बना लिया है कि दो पक्षों में से एक पक्ष यदि हरिजन न हो, तो ऐसे किसी विवाह में न तो मैं उपस्थित होता हूँ और न उसे आशीर्वाद देता हूँ। स्पर्श मात्र से भ्रष्ट करने वाली अस्पृश्यता अब भूतकाल की वस्तु बन गयी है। अब तो हरिजनों का सांस्कृतिक और आर्थिक उत्थान करने की ज़रूरत है, ताकि छूत-अछूत के सब भेद मिट जायें।
गाँधीजी ने अस्पृश्यता की तकलीफ़ एक व्यापक स्तर पर महसूस की थी। 30 दिसम्बर 1920 की एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने गोपालकृष्ण गोखले को उद्धृत किया-"जैसे हम अंत्यजों को अस्पृश्य समझते हैं, वैसे ही यूरोप के लोग हमें, हिन्दू-मुसलमान सबको, अस्पृश्य समझते हैं। हमें उनके साथ रहने की अनुमति नहीं, हमें उनके बराबर अधिकार नहीं। हिन्दुओं ने अन्त्यजों को जितना बेहाल किया है, उतना ही दक्षिण अफ़्रीका के गोरों ने भारतवासियों को किया है। भारत से बाहर के साम्राज्य के जितने उपनिवेश हैं, उनमें भी गोरों का बरताव ऐसा ही है, जैसा कि हिन्दू समाज का अछूतों के साथ है। इसीलिए गोखलेजी ने कहा था कि "हम हिन्दू समाज की अब तक की शैतानियत का फल भोग रहे हैं। समाज ने बड़ा पाप किया है, भारी शैतानियत दिखायी है। उसी के परिणामस्वरूप दक्षिण अफ़्रीका में हमारी बुरी हालत हुई है। मैंने इसे तुरन्त स्वीकार कर लिया। यह बात बिल्कुल सच थी। उसके बाद मेरा अनुभव भी ऐसा ही है। चूँकि गाँधीजी ने रंगभेद की इस अस्पृश्यता की यातना स्वयं भोगी और झेली थी, इसीलिए उनकी आत्मा में किसी दलित से अधिक दलित चेतना की बेचैनी और छटपटाहट मिलती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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