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(01,10,2016)
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==जन्म एवं परिचय==
==जन्म एवं परिचय==
सरदार बुधसिंह का जन्म मई, 1884 ई. में जम्मू के मीरपुर नामक स्थान पर हुआ था। शिक्षा पूरी करने के बाद वे रियासत की सर्विस में सम्मिलित हो गए। सरदार बुधसिंह की पदोन्नति डिप्टी कमिश्नर के पद तक हुई। सार्वजनिक कामों में वे अपने सरकारी सेवाकाल में ही रुचि लेने लगे थे।  
सरदार बुध सिंह का जन्म मई, 1884 ई. में जम्मू के मीरपुर नामक स्थान पर हुआ था। शिक्षा पूरी करने के बाद वे रियासत की सर्विस में सम्मिलित हो गए। सरदार बुध सिंह की पदोन्नति डिप्टी कमिश्नर के पद तक हुई। सार्वजनिक कामों में वे अपने सरकारी सेवाकाल में ही रुचि लेने लगे थे।  
==सार्वजनिक कार्यो में योगदान==
==सार्वजनिक कार्यो में योगदान==
अकालियाँ ने जब [[अंग्रेज़|अंग्रेजों]] के विरुद्ध आंदोलन आरंभ किया तो बुधसिंह भी उनके समर्थक थे। रियासत में जनसामान्य की दुर्दशा की ओर अधिकारियों को ध्यान आकृष्ट करने के लिए उन्होंने [[1922]] में एक सार्वजनिक सभा को संबोधित किया था। [[1925]] में सरदार बुधसिंह ने डिप्टी कमिश्नर के पद से इस्तीफा दि दिया और पूरी तरह सार्वजनिक कामों में लग गए। [[सिक्ख]] और [[हिंदू]] दोनों उनका सम्मान करते थे।  
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==किसान पार्टी का गठन==
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सिक्कों ने पंजा साहिब के गुरुद्वारे के पुनरुद्धार के लिए उन्हें एक 'पंज प्यारा' चुना। जम्मू के डोगरा समुदाय ने तीन बार उन्हें 'डोगरा सभा' का अध्यक्ष चुनकर सम्मानित किया। [[1934]] में बुधसिंह नें 'किसान पार्टी' का गठन किया। उस समय तक शेख अब्दुल्ला 'मुस्लिम कांग्रेस' बना चुके थे। बुधसिंह आदि ने रियासत में संयुक्त मोर्चा बनाने का सुझाव दिया। इस पर 'मुस्लिम कांफ्रेस' का नाम [[1939]] में 'नेशनल कांफ्रेस' कर दिया गया और बुधसिंह लगभग 25 [[वर्ष|वर्षों]] तक उसके प्रमुख नेताओं में रहे। [[1944]] में वे 'नेशनल कांफ्रेस' के अध्यक्ष भी चुने गए। 1946 में उन्हें राजनीतिक आंदोलन के कारण जेल में बंद कर दिया गया था।
सरदार बुध सिंह को जम्मू के डोगरा समुदाय ने तीन बार उन्हें 'डोगरा सभा' का अध्यक्ष चुनकर सम्मानित किया। [[1934]] में बुध सिंह नें 'किसान पार्टी' का गठन किया। उस समय तक शेख अब्दुल्ला 'मुस्लिम कांग्रेस' बना चुके थे। बुध सिंह आदि ने रियासत में संयुक्त मोर्चा बनाने का सुझाव दिया। इस पर 'मुस्लिम कांफ्रेस' का नाम [[1939]] में 'नेशनल कांफ्रेस' कर दिया गया और बुध सिंह लगभग 25 [[वर्ष|वर्षों]] तक उसके प्रमुख नेताओं में रहे। [[1944]] में वे 'नेशनल कांफ्रेस' के अध्यक्ष भी चुने गए। 1946 में सरदार बुध सिंह को राजनीतिक आंदोलन के कारण जेल में बंद कर दिया गया था।
==राज्य सभा के सदस्य==
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स्वतंत्रता के बाद सरदार बुधसिंह शेख अब्दुल्ला के मंत्रिमंडल के सदस्य रहे। परंतु राज्य में जो पृथकतावादी तत्व उभर रहे थे। उनसे सामंजस्य न होने के कारण उन्होंने [[1950]] में मंत्रिमंडल छोड़ दिया। बाद में वे दो बार राज्य सभा के सदस्य रहे। लेकिन अपने जीवन का सबसे बड़ा आघात सरदार बुधसिंह को शेख अब्दुल्ला के कारण लगा। एक समय शेख उन्हें अपना 'आध्यात्मिक पिता' कह कर सम्मानित करते थे। बाद में उन्होंने अपने विचार और क्रिया कलाप बदल कर स्वयं को देश की मुख्य धारा से अलग कर लिया था। सरदार बुधसिंह बाद में कम्युनिस्ट विचारधारा की ओर आकृष्ट हो गए थे। अपने दीर्घकालीन योगदान के कारण बुधसिंह जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक चेतना के जनक माने जाते हैं।
स्वतंत्रता के बाद सरदार बुध सिंह शेख अब्दुल्ला के मंत्रिमंडल के सदस्य रहे। परंतु राज्य में जो पृथकतावादी तत्व उभर रहे थे। उनसे सामंजस्य न होने के कारण सरदार बुध सिंह ने [[1950]] में मंत्रिमंडल छोड़ दिया। बाद में वे दो बार राज्य सभा के सदस्य रहे। लेकिन अपने जीवन का सबसे बड़ा आघात सरदार बुध सिंह को शेख अब्दुल्ला के कारण लगा। एक समय शेख उन्हें अपना 'आध्यात्मिक पिता' कह कर सम्मानित करते थे। बाद में उन्होंने अपने विचार और क्रिया कलाप बदल कर स्वयं को देश की मुख्य धारा से अलग कर लिया था। सरदार बुध सिंह बाद में कम्युनिस्ट विचारधारा की ओर आकृष्ट हो गए थे। अपने दीर्घकालीन योगदान के कारण बुध सिंह जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक चेतना के जनक माने जाते हैं।
 
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Revision as of 11:30, 10 February 2017

माधवी
पूरा नाम सरदार बुध सिंह
जन्म मई, 1884
जन्म भूमि मीरपुर, जम्मू
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि स्वतंत्रता सेनानी
धर्म सिक्ख
अन्य जानकारी अपने दीर्घकालीन योगदान के कारण बुध सिंह जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक चेतना के जनक माने जाते हैं।
अद्यतन‎ 04:31, 10 फ़रवरी-2017 (IST)

सरदार बुध सिंह (अंग्रेज़ी: Sardar Budh Singh, जन्म- मई, 1884 , मीरपुर, जम्मू) जम्मू कश्मीर के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और सार्वजनिक कार्यकर्ता थे। वे डिप्टी कमिश्नर भी थे। सरदार बुध सिंह के द्वारा 'किसान पार्टी' का गठन किया गया था तथा वे 'डोगरा सभा' के अध्यक्ष भी रहे। बुध सिंह 'नेशनल कांफ्रेस' के लगभग 25 वर्षों तक प्रमुख नेताओं में रहे। वे दो बार राज्य सभा के सदस्य रह चुके हैं।[1]

जन्म एवं परिचय

सरदार बुध सिंह का जन्म मई, 1884 ई. में जम्मू के मीरपुर नामक स्थान पर हुआ था। शिक्षा पूरी करने के बाद वे रियासत की सर्विस में सम्मिलित हो गए। सरदार बुध सिंह की पदोन्नति डिप्टी कमिश्नर के पद तक हुई। सार्वजनिक कामों में वे अपने सरकारी सेवाकाल में ही रुचि लेने लगे थे।

सार्वजनिक कार्यो में योगदान

अकालियाँ ने जब अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन आरंभ किया तो बुध सिंह भी उनके समर्थक थे। रियासत में जनसामान्य की दुर्दशा की ओर अधिकारियों को ध्यान आकृष्ट करने के लिए उन्होंने 1922 में एक सार्वजनिक सभा को संबोधित किया था। 1925 में सरदार बुध सिंह ने डिप्टी कमिश्नर के पद से इस्तीफा दि दिया और पूरी तरह सार्वजनिक कामों में लग गए। सिक्ख और हिंदू दोनों उनका सम्मान करते थे।

किसान पार्टी का गठन

सरदार बुध सिंह को जम्मू के डोगरा समुदाय ने तीन बार उन्हें 'डोगरा सभा' का अध्यक्ष चुनकर सम्मानित किया। 1934 में बुध सिंह नें 'किसान पार्टी' का गठन किया। उस समय तक शेख अब्दुल्ला 'मुस्लिम कांग्रेस' बना चुके थे। बुध सिंह आदि ने रियासत में संयुक्त मोर्चा बनाने का सुझाव दिया। इस पर 'मुस्लिम कांफ्रेस' का नाम 1939 में 'नेशनल कांफ्रेस' कर दिया गया और बुध सिंह लगभग 25 वर्षों तक उसके प्रमुख नेताओं में रहे। 1944 में वे 'नेशनल कांफ्रेस' के अध्यक्ष भी चुने गए। 1946 में सरदार बुध सिंह को राजनीतिक आंदोलन के कारण जेल में बंद कर दिया गया था।

राज्य सभा के सदस्य

स्वतंत्रता के बाद सरदार बुध सिंह शेख अब्दुल्ला के मंत्रिमंडल के सदस्य रहे। परंतु राज्य में जो पृथकतावादी तत्व उभर रहे थे। उनसे सामंजस्य न होने के कारण सरदार बुध सिंह ने 1950 में मंत्रिमंडल छोड़ दिया। बाद में वे दो बार राज्य सभा के सदस्य रहे। लेकिन अपने जीवन का सबसे बड़ा आघात सरदार बुध सिंह को शेख अब्दुल्ला के कारण लगा। एक समय शेख उन्हें अपना 'आध्यात्मिक पिता' कह कर सम्मानित करते थे। बाद में उन्होंने अपने विचार और क्रिया कलाप बदल कर स्वयं को देश की मुख्य धारा से अलग कर लिया था। सरदार बुध सिंह बाद में कम्युनिस्ट विचारधारा की ओर आकृष्ट हो गए थे। अपने दीर्घकालीन योगदान के कारण बुध सिंह जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक चेतना के जनक माने जाते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 904 |

संबंधित लेख

  1. REDIRECTसाँचा:स्वतन्त्रता सेनानी



(भूले बिसरे क्रांतिकारी,प्रं.सं112 योगेश चन्द्र चटर्जी (अंग्रेज़ी: Jogesh Chandra Chatterjee, जन्म- 1895, ढाका ज़िला, बंगाल; मृत्यु- 1969) बंगाल के एक प्रमुख क्रान्तिकारी थे।


1919 से पहले स्वतंत्रता संग्राम के नाम पर केवल एक ही क्रांतिकारी आंदोलन था। बाकी जो कुछ था, चाहे उसे और कुछ भी कहा जाए, पर उसे संग्राम का नाम नहीं दिया जा सकता। इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने प्रथम मयायुद्ध में किये गये अहसानों के बदले किस प्रकार रौटल कमेटी की स्थापना की और उसके फलस्वरूप किस प्रकार रौलट बिल पास हुआ और किस प्रकार उसके प्रतिबाद से होनेवाली एक सभा में अमृतसर में गोलियां चलाई गयीं और लगभग एक हजार आदमी मारे गये, किस प्रकार इसी जलियांवाला बाग के हवनकुण्ड से असहयोग आंदोलन निकला, यहा सभी जानते हैं। जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन चलाया, उस समय क्रांतिकारी ने अपना आंदोलन बंद कर दिया था। वे सभी इन प्रयोग से बहुत प्रभावित थे।

पर जब गांधीजी ने 1922 के प्रारंभ में चौरीचौरा में होनेवाली एक घटना के कारण असहयोग आंदोलन एकाएक बंद कर दिया, तो क्रांतिकारी आंदोलन फिर से चल निकला, क्योंकि कई क्रांतिकारियों का गांधी जी पर से विश्वास उठ गया था। उत्तर भारत में क्रांतिकारी फिर से संग्ठित होने लगे। इनके नेता थे सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी शचींद्रनाथ सान्याल, जो काशी और इलाहाबाद में रहते थे। दूसरे नेता थे शाहजहांपुर के रामप्रसाद 'बिस्मिल'। बंगाल के सुप्रसिद्ध 'अनुशीलता' दल ने क्रांतिकारी दल को फिर से संगठित करने के लिए के लिए काशी में दो युवकों को भेजा। बे साधु बनकर और उन्होंने 'कल्याण आश्रम' नाम के एक आश्रम खोला और वहां के युवकों से संपर्क स्थापित करने लगे। अपना कार्य संपन्न हो जाने पर वे बंगाल लौट गए और उनकी जगह योगेशचन्द्र चटर्ची आए। यह 1923 के शुरू की बात है। तब पहली बाद मुझे उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनका रोम रोम षड्यंत्रकारी लगता था। यह जिस काम का बीड़ा उठा कर आर थे, उससे पूरी तरह परिचित थे।

एक कठिनाई यह थी वह कि वह हिंदी नहीं जानते थे। पर जल्दी ही जन्होंने हिंदी का काम चलाऊ ज्ञान प्राप्त कर लिया। फिर हम लोग उसके सद्दायक तो थे ही। युवकों ने अनायास ही उनको अपना बड़ा मान लिया। उनकी आंखों में कोई ऐसी बात थी जिससे विश्वास उत्पन्न होता था, पहले था। पहले तो हमारी भेंट गंगा किनारे किसी मिर्जन घाट पर होती थी और संध्या के बाद बातचीत होती थी; पर बाद में एकाध उनके निवास पर जाने का मौका भी मिला। मुझे आज भी वह दृश्य नहीं भूलता। अलम्यूनियम के दो-तीन बर्तन, एक मामूली-सा बस्तर, एक जोड़ी चप्पल- बस, यही उनक सारा सामान था। खर्च से बचने के लिए यह स्वयं खाना पकाते थे और लगभग पाँच रुपए महीने में गुजर करते थे। क्रांतिकारी, योगेशचन्द्र को 'योगेश दा' कहते थे और इसी नाते वह दल परिचित थे।

कुछ दिनों तक अनुशीलन दल का काम अलग चलता रहा। पर जल्दी ही अनुभव हुआ कि जब शचींद्रनाथ और योगेशचन्द्र एक ही काम कर रहे है, तक कोई कारण नहीं कि दो दल काम करें। इस लिए यह प्रयत्न होने लगा कि दोनों दल एक हो जाएं। योगेश चटर्जी को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी। वह तो काम करना चाहते थे।

शचींद्रनाथ सान्याल ने योगेश चटर्जी से बातचीत की, पर योगेश स्वयं कुछ नहीं कर सकते थे, क्योंकि वह अनुशीलता दल की तरफ से आये हुए थे और यह दल बहुत ही अनुशासित दल था। इसलिए उन्होंने बंगाल में अन्य नेताओं से बातचीत की और थोड़े दिनों में दोनों दल एक हो गये। शचींद्र नाथ सान्याल विवाहित थे और उनको बहुत-से काम रहते थे। इसलिए दल की तरफ से दौरा करने का काम मुख्यत: योगेश दा पर पड़ा और उन्होंने इस काम में बहुत चतुराई दिखायी। वह कानपुर गये और वहां पुराने क्रांतिकारी सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य से मिले। वहाँ का काम उन्हीं के नेतृत्व में चल रहा था। वहाँ उनकी भेंट डॉ. रामदुलारे त्रिवेदी से भी हुई और रामदुलारे को लेकर वह शाहजहांपुर गये, जहां वह पं. रामप्रसाद 'बिस्मिल' से मिले। रामप्रसाद 'बिस्मिल' मैनपुरी षड्यंत्र के फरार थे। पुलिस उन्हें कभी गिरफ्तार न कर सकी। वह लई साल फरार रहे और अंत में जब युद्ध के बाद माफी के अंतर्गत उन्हें भी माफी मिल गयी, तब वह बाहर आये। योगेश दा उनसे मिले। जिसके फलस्वरूप यह दल बहुत बड़ा दल हो गया तथा इसका स्वरूप और दृढ़ हो गया।

योगेशचन्द्र चटर्जी कुमिल्ला के रहने वाले थे। वहीं वह क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल हुए थे। उन्होंने कभी बताया तो नहीं, पर ऐसा अनुमान किया जाता है कि युद्ध काल में कलकत्ता में बसंत चटर्जी की जो रोमांचकारी हत्या हुई थी, उसमें उन्होंने भाग लिया था। पुलिस उन्हें मौके पर गिरफ्तार नहीं कर सकी, पर बाद में उन्हें गिरफ्तार कर, कई तरह की यातनाएं दी गयीं। उनको मारा-पीटा गया, बर्फ की सिल्लियों पर लिटाया गया, और इस पर भी जब वह न माने, तो उन्हें अधम-से-अधम ढंग से प्रताड़ित किया गया। इस तरह कहा जा सकता है कि योगेशचन्द्र उन तमाम यातनाओं और विषत्तियों में से गुजरे, जो उन दिनों क्रांतिकारियों के हिस्सा पड़ती थीं। पिलिस को जब उनके विरुद्ध कोई प्रमाण नहीं मिला, तो उन्हें नजरबंद कर दिया गया।

युद्ध खत्म होने पर वह आम माफी में नजरबंदी से छूटे। इसी के बाद असहयोग आंदोलन चला और उस दौरान उन्होंने चुप्पी रखी। मगर ज्यों ही असहयोग आंदोलन समाप्त हुआ, वह फिर कार्य क्षेत्र में कूद पड़े।

यद्यपि दल के सब से बड़े नेता शचींद्रनाथ सान्याल थे, पर नौजवान योगेश दा को ज्यादा पसंद करते थे, क्योंकि उनके व्यक्तित्व का प्रभाव लोगों पर कुछ और ही पड़ा था। उनको देखकर लगता था जैसे वह विपत्ति सहने और उस पर विजय पाने के लिए ही पैदा हुए हैं। यही धारणा शचींद्र्नाथ सामान्य के संबंध में भी बनती थी। पर शचींद्र सान्याल हर प्रश्न को बौद्धिक दृष्टि से देखते थे, जब कि योगेश चटर्जी भावुक दृष्टि से देखते थे। सुरेश चट्टाचार्य की प्रकृति भी शचींद्र सान्याल की तरह थी, पर रामप्रसाद 'बिस्मिल' योगेश चटर्ची के ज्यादा निकट थे। इसलिए वह नौजवानों में अधिक प्रिय थे।

जब दल एक हो गया तो उसका नाम 'हिंदुस्तानी रिपब्लिकन एसोसिएशन' रखा गया और शचींद्र साम्याल ने उसका एक संविधान भी तैयार किया। यह संविधान पहले, पीले कागज पर छपा था। इसलिए संविधान को 'पीला कागज' भी कहा जाता था। इस संविधान में यह कहा गया था कि इसका अंतिम ध्येय संसार की स्वतंत्र जातियों के संघ का निर्माण करना है। किंतु इसका तात्कालिक उद्देश्य सणस्त्र और सुसंगठित क्रांति द्वारा भारतीय स्वतंत्रता के प्राप्ति था। यह क्रांति; क्रांतिकारियों द्वारा चलाई जाने वाली थी। संविधान में कहा गया कि जनता में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से, यहां तक कि कथा वांच कर भी, क्रांतिकारी विचारधारा का प्रचार किया जाए। धन तथा शस्त्र 'चन्दे से और जबरन चंदे से' भी एकत्र किया जाने वाला था। किसी को सदस्य रभी बनाया जा सकता था जब उसके पहले जीवन की अच्छी तरह छानबीन कर ली जाए, जिससे कोई अवांछनीय व्यक्ति दल में न घुस पाये। सदस्यों को हिदायत थी कि वे अपनी सदस्यता की बात पुलिस और जनता, दोनों से, छिपायें। किसानों और मजदूरों का संगठन का संगठन किया जानेवाला था और प्रत्येक सदस्य को हथियार से लैस करने की योजना थी। किंतु इन हथियारों का उपयोग पार्टी के हुक्म से ही हो सकता था।

1924 तक योगेश चटर्जी की दौड़-धूप तथा अन्य क्रांतिकारियों के प्रयत्नों के कारण दल उत्तर प्रदेश के 23 जिलों में संघठित हो चुका था। योगेश चटर्जी इन्हीं की रिपोर्ट ले कर कलकत्ता जा रहे थे कि हावड़ा स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिये गये। उनके पास गुप्त लिपि में लिखी रिपोर्ट प्राप्त हुई। पर उनके विरुद्ध और कोई प्रमाण नहीं था। ठीक उसी समय बंगाल में क्रांतिकारी दल की स्थिति ऐसी हो गयी जिससे कि सरकार ने एक अध्यादेश जारी किया और उसी के अंतर्गत योगेश चटर्जी नजरबंद कर लिये गये।

योगेश दा की गिरफ्तारी के बाद भी उत्तर प्रदेश में क्रांतिकारी कार्य चलता रहा। दल की तरफ से समय-समय पर साहित्य का प्रशासन भी होता था। दल की ही तरफ से रंगून से ले कर पेशाबर तक 'रेवूल्यूनरी' नामक एक पर्चा बाँटा गया, जिसमें दल के उद्देश्य स्पष्ट किये गये थे। पहले संविधान में यह कहा गया था कि दल ऐसी समाज-व्यवस्था चाहता है जिसमें मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण असंभव हो। अब उस की दूसरे रूप में व्याख्या की गई और कहा गया कि प्राचीन ऋषियों ने जिस प्रकार आदर्श समाज की कल्पना की थी, उसी प्रकार के समाज को स्थापित करना हमारा लक्ष्य है। इस संदर्भ में रूस का नाम भी लिया गया। कहना न होगा कि इसमें असंगति थी, क्योंकि रूसी और प्राचीन व्यवस्था एक साथ नहीं चल सकती थीं। जो भी हो, क्रांतिकारी दल दिन-दूनी, रात-चौगुनी करता रहा और धन इकट्ठा करने के लिए दल की तरफ से डकैतियां भी डाली गयीं, जिनमें दल को विशेष धन की प्राप्ति नहीं हुई। तब दल ने सरकारी खजाना लूटने का निश्चय किया। तदनुसार 9 अगस्त 1925 को लखनऊ के पास काकोरी स्टेशन के निकट 8 डाउन गाड़ी रोककर खजाना लूट लिया गया। सरकार अब क्रांतिकारी आंदोलन को अधिक पनपने देना नहीं चाहती थी। नतीजा यह हुआ कि लखनऊ में एक षड्यंत्र केस चला जिसमें अधिक-से-अधिक क्रांतिकारी गिरफ्तार किये गये। अंत में चार क्रांतिकारियों को फांसी की सजा हुई जिनके नाम थे। रामप्रसाद 'बिस्मिल', रोशनसिंन, अशफाक उल्ला और राजेन्द्र लाहिड़ी। इनमें से तीन शाहजहांपुर के रहने वाले थे और एक काशी का।

मर्जे की बात यह है कि 9 अगस्त 1925 को जब काकोरी के पास रेल-गाड़ी रोक कर उसका खजाना लूट गया तब योगेश चटर्जी जेल में थे पर, वह भी नजरबंदी से लखनऊ बुलाये गये और उन पर मुकदमा चला। क्योंकि उन पर रेल का खजाना लूटने का मुकदमा नहीं बनता था, इसलिए उन पर दफा 121 ए के अधीन यानी राज्य का तख्ता पलटने का मुकदमा चला। हवालात में उन्हें लखनऊ जिला जेल में रखा गया। जब कभी काकोरी के हवालातियों को अदालत ले जाया जाता, उनके पैरों में बेड़ियां डाल दी जातीं और जेल पहुंचते ही उनकी बेड़िया खोल दी जातीं।

हवालात का जीवन विलकुल कालेज के बोडिंग जीवन की तरह था। उसी प्रकार से कैदियों ने एक मैस बना रखा था जिसमें सब के लिए खाना पकता था। पहले कैदियों को केवल अपने घर से मंगा कर खाने की व्यवस्था थी या मामूली हवालातियों कासा व्यवहार ही मिलता था, पर बाद में जब काकोरी षड्यंत्र के हवालातियों ने सोलह दिन का अनशन किया, तो उन्हें गीरे कैदियों का-सा बरताव दिया गया जो तब तक जारी रहा जब तक कैदी हवालात में रहे। योगेश चटर्जी को इस षड्यंत्र में पहले सैशन से 10 साल की सजा हुई थी, पर पुलिस वालों ने छह दंडितों के विरुद्ध अपील की और उनमें से पांच की सजाएं बढ़ा दी गयी। योगेश चटर्जी की सजा बढ़ाकर आजन्म कालेपानी की सजा हो गयीं।

योगेश चटर्जी भी अन्य क्रांतिकारी कैदियों की तरह बराबर जेल के अंदर लड़ते रहे, क्योंकि क्रांतिकारी यह समझते रहे कि जेल में पहुंच जाने का मतलब लड़ाई का खत्म हो जाना नहीं होता, बल्कि जेल के अंदर साम्राज्यबाद के विरुद्ध अपनी लड़ाई को दूसरे ढंग से जारी रखा जा सकता है। इसीलिये सजा मिलते ही, सब कैदियों ने (सिवाय फांसी पाने वाले कैदियों के, जिनको इस अनशन से बरी कर दिया गया था) बहुत लंबा अनशन किता जिस गणेशशंकर विद्यार्थी ने तुड़वाया। योगेश चटर्जी ने भी 43 दिन का अनशन किया जिससे वह बहुत कमजोर हो गये।

यद्यपि सरकार ने गणेशशंकर विद्यार्थी से वायदा किया था कि काकोरी केस के कैदियों के साथ विशेष व्यवहार किया जाएगा, हवालात के बाद उन्हें कोई विरोध न दी गयी।

कई वर्ष बाद लाहौर के यतींद्रनाथ दास ने अनशन किया और उनके साथ काकोरी वालों ने भी अनशन किया। यतींद्रनाथ तो 62 दिन अनशन कर के शहीद हो गये, पर काकोरी के तीन क्रांतिकारी ने अनशन जारी रखा और उन्हें व्यवहार प्राप्त हुआ। उसके बाद योगेश चटर्जी ने जेल के अंदर एक दूसरा आंदोलन चला दिया कि राजनैतिक कैदियों को एक-साथ रखा जाए। जेल के अंदर वर्षों तक काल कोठरी में बंद रहने से कैदियों के दिमागों पर असर पड़ता था, इसलिए उन्होंने यह बीड़ा उठाया था। इस संबंध में उन्होंने कई अनशन किये, जिनका बहुत प्रचार हुआ। उनका सब से बड़ा अनशन 142 दिन का रहा। इन अनशानों के दौरान उन्हें नाक से जबरन दूध पिलाया जाता था।

1937 में 12 साल जेल में रहने के बाद सब काकोरी कैदियों की तरह योगेश चटर्जी को भी छोड़ दिया गया। पर वह चुपचाप नहीं बैठे रहे। उन्होंने फिर क्रांतिकारी कार्य शुरू कर दिया। उसी साल उन्हें दिल्ली में राजनीतिक कैदियों के सम्मेलन की अध्यक्षता करने के लिए निमंत्रित किया गया, पर दिल्ली पहुचते ही उन्हें यह हुक्म मिला कि छह छंटे के अंदर दिल्ली से निकल जाओं। वह इस हुकम को मानने के लिए तैयार न थे। नतीजा यह हुआ कि रामदुलारे त्रिवेदी, रामकृष्ण खत्री, शचींद्रनाथ वस्त्री, योगेश चटर्जी और इन पंक्तियों के लेखक को चार महीने की सजा हुई।

इसके बाद जब दूसरी लड़ाई छिड़ी, तो क्रांतिकारी गिरफ्तार होने लगे और योगेश चटर्जी फरार हो गये। अंत में वह क्रांतिकारी षड्यंत्र के नेता के रूप में फिर जेल पहुचे और इस बार फिर उन्हें लंबी सजा हुई। वह स्वराज के ऐन पहले अंतिम कैदियों के साथ छूटे। स्वराज्य के बाद वह कांग्रेस में काम करते रहे और संसद सदस्य भी बनाये गये। किंतु मृत्यु से दो साल पहले उनका दिमाग ठीक काम नहीं कर रहा था। यह संभवतया इसलिए हुआ कि उनको जीवन में शुरू से ही बहुत कष्ट उठाने पड़े थे। उन्होंने इस बीच विवाह भी किया जो असफल रहा। इसके बावजूद वह अंत तक बराबर किसी-न-किसी प्रकार की लड़ाई में लगे रहे। 1958 में उन्होंने दिल्ली में क्रांतिकारियों का एक बहुत बड़ा सम्मेलन बुलाया जिसमें वह अरविंद घोष के छोटे भाई वारींद्रकुमार घोष इत्यादि को भी प्रस्तुत करना चाहते थे। उनको इस बात से सख्त शिकायत थी कि क्रांतिकारीयों का पूरा इतिहास नहीं लिखा गया। इसी के संबंध में वह समय-समय पर आंदोलन करते रहे, यहां तक कि मृत्यु से पहले 23 मार्च को जब भगतसिंह दिवस मनाया गया, तो उस उपलक्ष्य में बुलाई गई एक सभा में उन्होंने एक भाषण भी किया और टाइम्स ऑफ इंडिया में भगतसिंह पर एक लेख भी लिखा।

संसद का यह है कि किसी संसद सदस्य का मस्तिष्क विकृत हो जाने पर वह संसद का सदस्य नहीं रह सकता। शुरू में तो उनकी मस्तिष्क-विकृति की जानकारी अंतरंग मित्रों तक ही सीमित रही बाद में जब लोग इस बात को जान गये, तब भी वे चुप रहे।

इसमें कोई संदेह नहीं कि योगेश चटर्जी एक बहुत बड़े योद्धा थे। उन्होंने हिंन्दी अच्छी तरह से सीख ली थी और वह हिंदी तथा अंग्रेजी में भाषण देते हुए और लेख करते थे। अपनी आत्मकथा अंग्रेजी में लिखी है जो प्रकाशित हो चुकी है।

शचीन्द्रनाथ सान्याल के बाद योगेश चटर्जी ही उत्तर भारत के उस युग की यादगार थे।