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भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
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==उपनिषद्===
==उपनिषद्==
इसका शाब्दिक अर्थ है- ‘समीप बैठना‘ अर्थात् ब्रह्म विद्या को प्राप्त करने के लिए गुरू के समीप बैठना। इस प्रकार उपनिषद्् एक ऐसा रहस्य ज्ञान है जिसे हम गुरू के सहयोग से ही समझ सकते हैें। ब्रह्म विषयक होने के कारण इन्हें ब्रह्मविद्या भी कहा जाता है। उपनिषदों में आत्मा-परमात्मा एवं संसार के सन्दर्भ में प्रचलित दार्शनिक विचारों का संग्रह मिलता है। उपनिषद् वैदिक साहित्य के अन्तिम भाग तथा सारभूत सिद्धान्तों के प्रतिपादक हैं अतः इन्हें वेदान्त भी कहा जाता है। इनका रचना काल 800 से 500 ई.पू. के मध्य है। उपनिषदों ने जिस निष्काम कर्म मार्ग और भक्ति मार्ग का दर्शन दिया उसका विकास भगवत्गीता में हुआ।
इसका शाब्दिक अर्थ है- ‘समीप बैठना‘ अर्थात् ब्रह्म विद्या को प्राप्त करने के लिए गुरू के समीप बैठना। इस प्रकार उपनिषद्् एक ऐसा रहस्य ज्ञान है जिसे हम गुरू के सहयोग से ही समझ सकते हैें। ब्रह्म विषयक होने के कारण इन्हें ब्रह्मविद्या भी कहा जाता है। उपनिषदों में आत्मा-परमात्मा एवं संसार के सन्दर्भ में प्रचलित दार्शनिक विचारों का संग्रह मिलता है। उपनिषद् वैदिक साहित्य के अन्तिम भाग तथा सारभूत सिद्धान्तों के प्रतिपादक हैं अतः इन्हें वेदान्त भी कहा जाता है। इनका रचना काल 800 से 500 ई.पू. के मध्य है। उपनिषदों ने जिस निष्काम कर्म मार्ग और भक्ति मार्ग का दर्शन दिया उसका विकास भगवत्गीता में हुआ।
 
 
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सी -6
सी -6
3. व्याकरण- इसके अन्तर्गत समासों एवं सन्धि आदि के नियम, नामों एवं धातुओं की रचना, उपसर्ग एवं प्रत्यय के प्रयोग आदि के नियम बताये गये हैं। पाणिनी की अष्टाध्यायी प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ है।
#व्याकरण- इसके अन्तर्गत समासों एवं सन्धि आदि के नियम, नामों एवं धातुओं की रचना, उपसर्ग एवं प्रत्यय के प्रयोग आदि के नियम बताये गये हैं। पाणिनी की अष्टाध्यायी प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ है।
4. निरूक्त- शब्दों की व्युत्पत्ति एवं निर्वचन बतलाने वाले शास्त्र निरूक्त कहलातें है। क्लिष्ट वैदिक शब्दों के संकलन ‘निघण्टु‘ की व्याख्या हेतु यास्क ने निरूक्त की रचना की थी, जो भाषा शास्त्र को प्रथम ग्रंथ माना जाता है।
#निरूक्त- शब्दों की व्युत्पत्ति एवं निर्वचन बतलाने वाले शास्त्र निरूक्त कहलातें है। क्लिष्ट वैदिक शब्दों के संकलन ‘निघण्टु‘ की व्याख्या हेतु यास्क ने निरूक्त की रचना की थी, जो भाषा शास्त्र को प्रथम ग्रंथ माना जाता है।
5. छन्द- वैदिक साहित्य में मुख्य रूप से गायत्री, त्रिष्टुप, जगती, वृहती आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है। पिंगल का छन्दशास्त्र प्रसिद्व है।
#छन्द- वैदिक साहित्य में मुख्य रूप से गायत्री, त्रिष्टुप, जगती, वृहती आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है। पिंगल का छन्दशास्त्र प्रसिद्व है।
6. ज्योतिष- इसमें ज्योतिशशास्त्र के विकास का दिखाया गया है। इसकें प्राचीनतम्् आचार्य लगध मुनि है।
#ज्योतिष- इसमें ज्योतिशशास्त्र के विकास का दिखाया गया है। इसकें प्राचीनतम्् आचार्य लगध मुनि है।
ब्राह्मण ग्रन्थों में धर्मशास्त्र का महत्वपूर्ण स्थान है।
ब्राह्मण ग्रन्थों में धर्मशास्त्र का महत्वपूर्ण स्थान है।
*धर्मशास्त्र में चार साहित्य आते हैं-  
*धर्मशास्त्र में चार साहित्य आते हैं-  
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#टीका एवं  
#टीका एवं  
#निबन्ध ।
#निबन्ध ।
==स्मृतियां==
==स्मृतियां==
स्मृतियों को ‘ धर्म शास्त्र‘ भी कहा जाता है- श्रस्तु वेद विज्ञेयों धर्मशास्त्रं तु वैस्मृतिः। स्मृतियों का उदय सूत्रों को बाद हुआ। मनुष्य के पूरे जीवन से सम्बधित अनेक क्रिया-कलापों के बारे में असंख्य विधि-निषेधों की जानकारी इन स्मृतियों से मिलती है। सम्भवतः मनुस्मृति (लगभग 200 ई.पूव. से 100 ई. मध्य) एवं याज्ञवल्क्य स्मृति सबसे प्राचीन हैं। उस समय के अन्य महत्वपूर्ण स्मृतिकार थै- नारद,पराशर, बृहस्पति, कात्यानन, गौतम, संवर्त, हरीत, अंगिरा आदि, जिनका समय सम्भवतः 100 ई. से लेकर 600 ई. तक था। मनुस्मृति से उस समय के भारत के बारे में राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जानकारी मिलती है। नार स्मृति से गुप्त वंश के संदर्भ में जानकारी मिलती है। मेधातिथि, मारूचि, कुल्लूक भट्ट, गोविन्दराज आदि टीकाकारों ने मनुस्मृति पर, जबकि विश्वरूप, अपरार्क, विज्ञानेश्वर आदि ने याज्ञवल्क्य स्मृति पर भाष्य लिख हैं।
स्मृतियों को ‘ धर्म शास्त्र‘ भी कहा जाता है- श्रस्तु वेद विज्ञेयों धर्मशास्त्रं तु वैस्मृतिः। स्मृतियों का उदय सूत्रों को बाद हुआ। मनुष्य के पूरे जीवन से सम्बधित अनेक क्रिया-कलापों के बारे में असंख्य विधि-निषेधों की जानकारी इन स्मृतियों से मिलती है। सम्भवतः मनुस्मृति (लगभग 200 ई.पूव. से 100 ई. मध्य) एवं याज्ञवल्क्य स्मृति सबसे प्राचीन हैं। उस समय के अन्य महत्वपूर्ण स्मृतिकार थै- नारद,पराशर, बृहस्पति, कात्यानन, गौतम, संवर्त, हरीत, अंगिरा आदि, जिनका समय सम्भवतः 100 ई. से लेकर 600 ई. तक था। मनुस्मृति से उस समय के भारत के बारे में राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जानकारी मिलती है। नार स्मृति से गुप्त वंश के संदर्भ में जानकारी मिलती है। मेधातिथि, मारूचि, कुल्लूक भट्ट, गोविन्दराज आदि टीकाकारों ने मनुस्मृति पर, जबकि विश्वरूप, अपरार्क, विज्ञानेश्वर आदि ने याज्ञवल्क्य स्मृति पर भाष्य लिख हैं।

Revision as of 13:00, 2 September 2010

पेज सी-3

प्राचीन भारतीय इतिहास के स्त्रोत

भारतीय इतिहास जानने के सा्रेतों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता हैं -

  1. साहित्यिक साक्ष्य
  2. विदेशी यात्रियों का विवरण
  3. पुरातत्व सम्बन्धी साक्ष्य

साहित्यक साक्ष्य

साहित्यक साक्ष्य के अन्तर्गत साहित्यिक ग्रन्थों से प्राप्त ऐतिहासिक वस्तुओं का अध्ययन किया जाता है। साहित्यिक साक्ष्य को दो भागों में विभाजित किया जाता एसकता है-

  1. धार्मिक साहित्य और
  2. लौकिक साहित्य। धार्मिक साहित्य के अन्तर्गत ब्राह्मण तथा ब्राह्मणेत्तर साहित्य की चर्चा की जाती है। ब्राह्मण ग्रन्थों में - वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, पुराण तथा स्मृति ग्रन्थ आते हैं।

ब्राह्मणेत्तर ग्रन्थों में जैन तथा बौद्ध ग्रन्थों को सम्मिलित किया जाता है। लौकिक साहित्य के अन्तर्गत ऐतिहासिक ग्रन्थ, जीवनी, कल्पना-प्रधान तथा गल्प साहित्य का वर्णन किया जाता है।

धर्म-ग्रन्थ

प्राचीन काल से ही भारत के धर्म प्रधान देश होने के कारण यहां प्रायः तीन धार्मिक धारायें-वैदिक, जैन एवं बौद्ध प्रवाहित हुई वैदिक धर्म ग्रन्थ को ब्राह्मण धर्म ग्रन्थ भी कहा जाता है।

ब्राह्मण धर्म-ग्रंथ

ब्राह्मण धर्म - ग्रंथ के अन्तर्गत वेद, उपनिषद्, महाकाव्य तथा स्मृति ग्रंथों को शामिल किया जाता है।

वेद- वेद क महत्वपूर्ण ब्राह्मण धर्म-ग्रंथ है। वेद शब्द का अर्थ ‘ज्ञान‘ महतज्ञान अर्थात् ‘पवित्र एवं आध्यात्मिक ज्ञान‘ है। यह शब्द संस्कृत के ‘विद्‘ धातु से बना है जिसका अर्थ है जानना। वेदों के संकलनकर्ता कृष्ण द्वैपायन थे। कृष्ण द्वैपायन को वेदों के पृथक्करण-व्यास के कारण वेदव्यास की संज्ञा प्राप्त हुई। वेदों से ही हमें आर्यो के विषय में प्रारम्भिक जानकारी मिलती है। कुछ लोग वेदों को अपौरूषेय अर्थात् दैवकृत मानते है। वेदों की कुल संख्या चार है-ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद।

ऋग्वेद

चारों वेदों में सर्वाधिक प्राचीन वेद ऋग्वेद से आर्यों की राजनीतिक प्रणाली एवं इतिहास के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। ऋग्वेद अर्थात् ऐसा ज्ञान जो ऋचाओं में बद्ध हो। ऋग्वेद में दो प्रकार के विभाग मिलते हैं-

  1. अष्टक क्रम तथा
  2. मण्डलक्रम।

अष्टक क्रम में समस्त ग्रंथ आठ अष्टकों तथा प्रत्येक अष्टक आठ अध्यायों में विभाजित है। प्रत्येक अध्याय वर्गो में विभक्त है। समस्त वर्गो की संख्या 2006 है। मण्डल क्रम में समस्त ग्रन्थ 10 मण्डलों में विभाजित है। दशों मण्डलों में 85 अनुवाक, 1028 सूक्त हैं। इनके अतिरिक्त 11 बालखिल्य सूक्त हैं। ऋग्वदे के समस्य सूक्तों के ऋचाओं (मंत्रों) की संख्या 10600 है। सूक्तों के पुरूष रचयिताओं में गृत्समय, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भरद्वाज और बसिष्ठ तथा स्त्री रचियताओं में लोपामुद्रा, घोषा, अपाला, विश्वरा, सिकता, शचीपौलोमी और कक्षावृत्ति प्रमुख है। इनमें लोपामुद्रा प्रमुख थी। वह क्षत्रीय वर्ण की थी किन्तु उनकी शादी अगस्त्य ऋषि से हुयी थी। ऋग्वेद के दूसरे एवं सातवें मण्डल की ऋचायें सर्वाधिक प्राचीन हैं, जबकि पहला एवं दसवां मण्डल अन्त में जोड़ा गया है। ऋग्वेद के आठवें मण्डल में मिजी हस्तलिखित प्रतियों के परिशिष्ट को ‘खिल‘ कहा गया है। ऋग्वेद भारत की ही नहीं सम्पूर्ण विश्व की प्राचीनतम रचना है। इसकी तिथि 1500 से 100 ई.पू. मानी जाती है। सम्भवतः इसकी रचना सप्त-सैंधव प्रदेश में हुयी थी।

ऋग्वेद और ईरानी ग्रन्थ जेंद अवेस्ता (Zenda Avasta) में समानता पाई जाती है। ऋग्वेद के अधिकांश भाग में देवताओं की स्तुतिपरक ऋचाएं हैं, यद्यपि उनमें ठोस ऐतिहासिक सामग्री बहुत कम मिलती है, फिर भी इसके कुछ मन्त्र ऋग्वेद के मण्डल एवं उसके रचियता मण्डल रचियता

ऋग्वेद के मण्डल रचियता

1- प्रथम मण्डल

अनेक ऋषि

2- द्वितीय मण्डल

गृत्समय

3- तृतीय मण्डल

विश्वासमित्र

4- चतुर्थ मण्डल

वामदेव

5- पंचम मण्डल

अत्रि

6- षष्ठम् मण्डल

भारद्वाज

7- सप्तम मण्डल

वसिष्ठ

8- अष्ठम मण्डल

कण्व व अंगिरा

9- नवम् मण्डल (पावमान मण्डल)

अनेक ऋषि

10- दशम मण्डल

अनेक ऋषि

  ठोस ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध करते हैं। जैसे एक स्थान ‘दाशराज्ञ युद्ध‘ जो भरत कबीले के राजा सुदास एवं पुरू कबीले के मध्य हुआ था, का वर्णन किया गया है। भरत जन के नेता सुदास के मध्य पुराहित वसिष्ठ थे, जब कि इनके विरोधी दस जनों (आर्य और अनार्य) के संघ के पुराहित विश्वामित्र थे। दस जनों के सघ में- पांच जनो के अतिरिक्त- अलिन, पक्थ, भलनसु, शिव तथ विज्ञाषिन् के राजा सम्मिलित थे। भरत जन का राजवंश त्रित्सुजन मालूम पड़ता है, जिसके प्रतिनिधि देवदास एवं सुदास थे। भरत जन के नेता सुदास ने रावी (परूष्णी) नदी के तट पर उस राजाओं के संघ को पराजित कर ऋग्वैदिक भारत के चक्रवर्ती शासक के पद पर अधिष्ठित हुए। ऋग्वेद में, यदु, द्रहृयु, तुर्वश, पुरू और अनु पांच जनों का वर्ण मिलता है।

ऋग्वेद के मंत्रों का उच्चारण यज्ञों के अवसर पर होतृ ऋषियों द्वारा किया जाता था। ऋग्वेद की अनेक संहिताओं में संप्रति संहिता ही उपलब्ध है। संहिता का अर्थ संकलन होता है। ऋग्वेद की पांच शाखायें हैं- शाकल, वाष्कल, आश्वलायन, शांखायन तथा मांडूकायन। ऋग्वेद के कुल मंत्रों की संख्या लगभग 10600 है। बाद में जोड़ गये दशम मंडल, जिसे ‘पुरूषसूक्त‘ के नाम से जाना जाता है, में सर्वप्रथम शूद्रों का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त नासदीय सूक्त (सृष्टि विषयक जानकारी, निर्गुण ब्रह्म की जानकारी), विवाह सूक्त (ऋषि दीर्घमाह द्वारा रचित), नदि सूक्त (वर्णित सबसे अन्तिम नदी गोमल), देवी सूक्त आदि का वर्णन इसी मण्डल में है। इसी सूक्त में दर्शन की अद्वैत धारा के पस्फुटन का भी आभास होता है। सोम का उल्लेख नवें मण्डल में है। ष्मै कवि हूं, मेरे पिता वैद्य हैं, माता अन्नी पीसनें वाली हैंष् यह कथन इसी मण्डल में है। लोकप्रिय गायत्री मंत्र (सावित्री) का उल्लेख भी ऋग्वेद के 7वें मण्डल में किया गया है। इस मण्डल के रचियता वसिष्ठ थे। यह मण्डल वरूण देवता को समर्पित है।

सामवेद

‘साम‘ शब्द का अर्थ है ‘गान‘। सामवेद में संकलित मंत्रों को देवताओं की स्तुति के समय गाया जाता था। सामवेद में कुल 1875 ऋचायें हैं। वेद चार हैं

  1. ऋग्वेद : यह ऋचाओं का संग्रह है।
  2. सामवेद : यह गीति/रूप मंत्रों का संग्रह है और इसके अधिकांश गीत ऋग्वेद

से लिए गए हैं।

  1. यजुर्वेद : इसमें यागानुष्ठान के लिए विनियोग वाक्यों का समावेश है।
  2. अथर्ववेद : यह तंत्र-मंत्रों का संग्रह है।

  पेज सी-4 जिनमें 75 से अतिरिक्त शेष ऋग्वेद से ली गयी हैं। इन ऋचाओं का गान सोमयज्ञ के समय ‘उदगाता‘ करते थे। सामदेव की तीन महत्वपूर्ण शाखायें हैं- कौथुमीय, जैमिनीय एवं राणायनीय। देवता विषय विवेचन की दृष्ठि से सामवेद का प्रमुख देवता ‘सविता‘ या ‘सूर्य‘ है, इसमें मुख्यतः सूर्य की स्तुति के मंत्र हैं किन्तु इंद्र सोम का भी इसमें पर्याप्त वर्णन है।भारतीय संगीत के इतिहास के क्षेत्र में सामवेद का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इसे भारतीय संगीत का मूल कहा जा सकता है। सामवेद का प्रथम द्रष्टा वेद व्यास के शिष्य जैमिनि को माना जाता है।

यर्जुवेद

‘यजुष‘ शब्द का अर्थ है ‘यज्ञ‘। यर्जुवेद मूलतः कर्मकाण्ड ग्रन्थ है। इसकी रचना कुरूक्षेत्र में मानी जाती है। यजुर्वेद में आर्यो की धार्मिक एवं सामाजिक जीवन की झांकी मिलती है। इस ग्रन्थ से पता चलता है कि आर्य सप्त सैंधव से आगे बढ़ गए थे और वे प्राकृतिक पूजा के प्रति उदासीन होने लगे थे। यर्जुवेद के मंत्रों का उच्चारण ‘अध्वुर्य‘ नामक पुरोहित करता था। इस वेद में अनेक प्रकार के यज्ञों को सम्पन्न करने की विधियों का उल्लेख है। यह गद्य तथा पद्य दोनों में लिखा गया है। गद्य को ‘यजुष‘ कहा गया है। यजुर्वेद का अन्तिम अध्याय ईशावास्य उपनिषयद् है, जिसका सम्बन्ध आध्यात्मिक चिन्तन से है। उपनिषदों में यह लघु उपनिषद् आदिम माना जाता है क्योंकि इसे छोड़कर कोई भी अन्य उपनिषद् संहिता का भाग नहीं है। यजुर्वेद के दो मुख्य भाग है- शुक्ल यजुर्वेद एवं कृष्ण यजुर्वेद।

  1. शुक्ल यजुर्वेद- इसमें केवल दर्शर्पौमासाचि अनुष्ठानों के लिए आवश्यक मंत्रों का संकलन है। इसकी मुख्य शाखायें है- माध्यन्दिन तथा काण्व। इसकी मुख्य शाखायें है - माध्यन्दिन तथा काण्व। इसकी संहिताओं को वाजसनेय भी कहा गया है क्योंकि वाजसनि के पुत्र याज्ञवल्क्य वाजसनेय इसके दृष्टा थे। इसमें कुल 40 अध्याय हैं।
  2. कृष्ण यजुर्वेद- इसमें मंत्रों के साथ-साथ तन्त्रियोजक ब्राह्मणों का भी सम्मिश्रण है। वास्तव मेंमंत्र तथा ब्राह्मण का एकत्र मिश्रण ही कृष्ण यजुः के कृष्णतत्व का कारण है तथा मंत्रों का विशुद्ध एवं अमिरित रूप ही शुक्त यजुष् के शुक्लत्व का कारण है। इसकी मुख्य शाखायें हैं- तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ और कपिलष्ठ।

तैत्तरीय संति (कृष्ण यजुर्वेद की शाखा) को आपस्तम्ब् संहिता भी कहते है। महर्षि पंतजलि द्वारा उल्लिखित यजुर्वेद की 101 शाखाओं में इस समय केवल उपरोक्त पांच वाजसनेय, तैत्तिरीय, कठ, कपिष्ठल और मैत्रायणी ही उपलब्ध हैं यजुर्वेद से उत्तरवैदिक युग की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जीवन की जानकारी मिलती है।

अथर्ववेद

इसकी रचना अथवर्ण तथा आंग्ड्रिस ऋषियों द्वारा की गयी है। इसीलिए अथर्ववेद को अथर्वाग्ड्रिसवेद भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त अथर्ववेद को अन्य नामों से जाना जाता है।

  1. गोपाथ ब्राह्मण में इसे अथर्वाग्ड्रिसवेद कहा गया है।
  2. ब्रह्म विषय होने के कारण इसे ब्रह्मवेद भी कहा गया है।
  3. आयुर्वेद, चिकित्सा, औषधियों आदि के वर्णन होने के कारण भैषज्य वेद भी कहा जाता है ।
  4. पृथ्वी सूक्त इस वेद का अति महत्वपूर्ण सूक्त है। इस कारण इसे महीवेद भी कहते है।

अथर्ववेद में कुल 20 काण्ड, 730 सूक्त एवं 5987 मंत्र हैं। इस वेद के महत्वपूर्ण विषय हैं- ब्रह्मज्ञान, औषिध प्रयोग, रोग निवारण, जन्त्र-तन्त्र, टोना-टोटका आदि। अथर्ववेद में परीक्षित को राजा कहा गया है तथा इसमें कुरू देश की समृद्वि का अच्छा विवरण मिलता है। इस वेद में आर्य एवं अनार्य विचार-धाराओं का समन्वय है। उत्तर वैदिक काल में इस वेद का विशेष महत्व है। ऋग्वेद के दार्शनिक विचारों का प्रौढ़रूप इसी वेद से प्राप्त हुआ है। शान्ति और पौष्टिक कर्मा का सम्पादन भी इसी वेद में मिलता है। अथर्ववेद में सर्वाधिक उल्लेखनीय विषय आयुर्विज्ञान है। इसके अतिरिक्त जीवाणु-विज्ञान तथा औषधियों आदि के विषय में जानकारी इसी वेद से होती है। भूमि सूक्त के द्वारा राष्ट्रीय भावना का सुदृढ़ प्रतिपादन सर्वप्रथम इसी वेद में हुआ है। इस वेद की दो अन्य शाखायें हैं- पिप्पलाद एवं शौनक

ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद, इन चारों वेदों को संहिता कहा जाता है। इनमें ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद के सम्मिलित संग्रह को वेदत्रयी कहा जाता है। उपर्युक्त चारों वेदों में से प्रत्येक के एक-एक उपवेद भी है। ऋग्वेद का उपवेद आयुर्वेद है, सामवेद का उपवेद गन्धर्ववेद है, जो संगीत से संबद्व है। यजुर्वेद का उपवेद धनुर्वेद है, जो युद्व कलाओं का वर्णन करता है, और अथर्ववेद का उपवेद शिल्पवेद है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण उपवेद है आयुर्वेद है। इसके आठ भाग हैं- शल्य, शालक्य, काय-चिकित्सा, भूत विद्या, कुमारभृत्य, अंगदतन्त्र, रसायन और वाजीकरण। एक मान्यता के अनुसार आयेर्वेद के जन्मदाता प्रजापति (ब्रह्म), धनुर्वेद के जन्मदाता विश्वामित्र, गन्धर्व के जन्मदाता नारद तथा शिल्पवेद के जन्मदाता विश्वकर्मा थे। इन ग्रन्थों से प्राचीन भारत में प्रचलित विभिन्न विद्याओं का ज्ञान होता है।

वेद एवं उनके उपवेद तथा प्रवर्तक

वेद उपवेद प्रवर्तक

1- ऋग्वेद

आयुर्वेद - 4.भूतविद्या, 5.कुमार भृत्य, 6.अंगद तन्त्र, 7.रसायन, 8.वाजीकरण।

प्रजापति (ब्रह्म)

2- सामवेद

गंधर्ववेद (संगीत कला)

नारद

3- यजुर्वेद

धनुर्ववेद (युद्व कला)

विश्वामित्र

4- अथर्ववेद

शिल्पवेद (भवन निर्माण कला )

विश्वकर्मा

 

ब्राह्मण

यज्ञों एवं कर्मकाण्डों के विधान एवं इनकी क्रियाओं को भली-भांति समझने के लिए ही इस ब्राह्मण ग्रंथ की रचना हुई। यहां पर ‘ब्रहा‘ का शाब्दिक अर्थ हैं- यज्ञ अर्थात् यज्ञ के विषयों का अच्छी तरह से प्रतिपादन करने वाले ग्रंथ ही ‘ब्राहाम्मण ग्रंथ‘ कहे गये। ब्राह्मण ग्रन्थों में सर्वधा यज्ञों की वैज्ञानिक, अधिभौतिक तथा अध्यात्मिक मीमांसा प्रस्तुत की गयी है। यह ग्रंथ अधिकतर गद्य में लिखे हुए हैं । इनमें उत्तरकाली समाज तथा संस्कृृति के सम्बन्ध का ज्ञान प्राप्त होता है।

प्रत्येक वेद (संहिता) के अपने-अपने ब्राह्मण होते हैं, जैसे- ऋग्वेद के ऐतरेय एवं कौषीतकि ब्राह्मण, शुक्लयजुर्वेद के शपथ, कष्ण यजुर्वेद के तैत्तिरीय, सामवेद के पंचविंश या ताण्ड्व ब्राह्मण, षड्विंश ब्राह्मण, सामविधान ब्राह्मण, वंश ब्राह्मण, मंत्र ब्राह्मण, जैमिनीय ब्राह्मण आदि तथा अथर्ववेद के गोपथ ब्राह्मण। ब्राह्मण ग्रन्थो से हमें परीक्षित के बाद और बिम्बिसार के पूर्व की घटनाओं का ज्ञान प्राप्त होता है।

वेद और संबधित ब्राह्मण

वेद सम्बन्धित ब्राह्मण

1- ऋग्वेद

ऐतरेय ब्राह्मण, कौषीतकि ब्राह्मण

2- शुक्ल यजुर्वेद

शतपथ ब्राह्मण

3- कृष्ण यजुर्वेद

तैत्तिरीय ब्राह्मण

4- सामवेद

पंचविश्व ब्राह्मण, षड्विष ब्राह्मण, सामविधान ब्राह्मण,जैमिनीय ब्राह्मण

5- अथर्ववेद

गोपथ ब्राह्मण

ऐतरेय ब्राह्मण में राज्याभिषेक के नियम दिये गये हैं। प्राचीन इतिहास के साधन के रूप में वैदिक साहित्य में ऋग्वेद के बाद शपथ ब्राह्मण का स्थान है। शपथ ब्राह्मण में गंधार, शल्य, कैकेय, कुरू, पांचाल, कोशल, विदेश आदि राजाओं के नाम का उल्लेख है।

ऋग्वेद के ब्राह्मण

ऐतरेय ब्राह्मण

ऐतरेय ब्राह्मण ऋग्वेद के शाकल शाखा के सम्बद्व है। इसमें 8 खण्ड, 40 अध्याय तथा 285 कण्डिकाएं हैं। इसकी रचना महिदास ऐतरेय द्वारा की गई थी, जिस पर सायणचार्य ने अपना भाष्य लिखा है। इस ग्रन्थ से यह पता चलता है कि उस समय पूर्व में विदेह जाति का राज्य था जबकि पश्चिम में नीच्य और अपाच्य राज्य थे। उत्तर में कुरू और उत्तर मद्र का तथा दक्षिण में भोज्य राज्य थां। ऐतरेय ब्राह्मण में राज्याभिषेक के नियम दिये गये हैं। इसके अन्तिम भाग में पुरोहित का विशेष महत्व निरूपित किया गया है। सी -5

कौषीतकि ब्राह्मण

कौषीतकि ब्राह्मण को शांखायन ब्राह्मण भी कहते है। इसकी रचना का श्रेय शंखाायन अथवा कौषीतकि को जाता है। कौषीतकि शंखायन के गुरू थे। अतः शंखायन ने अपने गुरू के नाम पर इसका नामकरण किया। यह ऋग्वेद की वाष्कल शाखा से सम्बन्धित है। यह 30 अध्यायों में विभक्त है और इसमें 226 खण्ड हैं। इस ग्रन्थ में अन्य ब्राह्मण ग्रन्थों की भांति मानवीय आचार के नियम और निर्देश दिए गए हैैं।

यजुर्वेद के ब्राह्मण

शतपथ ब्राह्मण

शतपथ ब्राह्मण शुक्ल यजुर्वेद के दोनों शाखाओं काण्व व माध्यन्दिनी से सम्बद्ध है। यह सभी ब्राह्मण ग्रन्थों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसके रचियता याज्ञवल्क्य को माना जाता है। शतपथ के अन्त में उल्लेख है- ष्आदिन्यानीमानि शुक्लानि यजूशि बाजसनेयेन याज्ञावल्येन ख्यायन्ते। शतपथ ब्राह्मण में 14 काण्ड हैं जिसमें विभिन्न प्रकार के यज्ञों का पूर्ण एवं विस्तृत अध्ययन मिलता हे। 6 से 10 काण्ड तक को शाण्डिल्य काण्ड कहते हैं। इसमें गंधार, कैकय और शाल्व जनपदों की विशेष चर्चा की गई है। अन्य काण्डों में आर्यावर्त के मध्य तथा पूर्वी भाग कुरू, पंचाल, कोसल, विदेह, सृजन्य आदि जनपदों का उल्लेख हैं। शतपथ ब्राह्मण में वैदिक संस्कृत के सारस्वत मण्डल से पूर्व की ओर प्रसार होने का संकेत मिलता है। शतपथ ब्राह्मण में यज्ञों को जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कृत्य बताया गया है। अश्वमेध यज्ञ के सन्दर्भ में अनेक प्राचीन सम्राटों का उल्लेख है, जिसमें जनक, दुष्यन्त और जनमेजय का नाम महत्वपूर्ण है।

तैत्तिरीय ब्राह्मण

तैत्तिरीय ब्राह्मण कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा से सम्बंधित है। इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण आख्यान महर्षि भरद्वाज से संबंधित है। तैत्तिरीय ब्राह्मण के अनुसार मनुष्य का आचरण देवों के समान होना चाहिए। इस ग्रन्थ में मन को ही सर्वाच्च प्रजापति बताया गया हैै।

सामवेदीय ब्राह्मण

ताण्ड्य ब्राह्मण

ताण्ड्य नामक आचार्य द्वारा रचे जाने के कारण इसे ताण्ड्य ब्राह्मण कहा गया। इसकी विशालता के कारण इसे महाब्राह्मण भी कहते है। इसमें 25 अध्याय होने के कारण इसे पंचविश भी कहा जाता है ं। इसका प्रमुख प्रतिपाद्य विषय सोमयाग है। सरस्वती के पुनः विलुप्त होने तथा पुनः प्रकट होने का उल्लेख ताण्ड्व ब्राह्मण में मिलता है।

षड्विंश ब्राह्मण

यह ब्राह्मण सामवेद के कौथुम शाखा से सम्बंधित है। सायण ने इसे अपने भाष्य में ताण्डक कोष कहा है। इसमें 6 अध्याय है इसलिए इसे षड्विंश ब्राह्मण कहते है। इसके पंचम प्रपाठक को अद्भुत ब्राह्मण के ाम से भी जाना जाता है। इसमें भूकम्प, अकाल आदि का वर्णन किया गया है। सामवेद के अन्य ब्राह्मणों में-वंशब्राह्मण और सामविधान ब्राह्मण प्रमुख है। वंश ब्राह्मण में सामवेद के ऋषियों की वंशावली है। सामविधान ब्राह्मण में विविध अनुष्ठानों का वर्णन है, इसके अतिरिक्त इसमें जादू-टोने से सम्बन्धि बातें भी भी है। ====जैमिनीय ब्राह्मण====यह तीन भागों में विभक्त है। इसमें कुल 1182 खण्ड हैं। जैमिनीय ब्राह्मण में ही वह प्रसिद्ध सूक्त है जिसका तात्पर्य है कि ऊंचे मत बोलों, भूमि अथवा दीवान के भी कान होते हैं।

अथर्ववेदीय ब्राह्मण

गोपथ ब्राह्मण

अथर्ववेद का यह एक मात्र ब्राह्मण है। ऋषि गोपथ द्वारा इस ग्रन्थ की रचना की गई थी। गोपथ ब्राह्मण में अग्निष्टोम, अश्वमेध जैसे यज्ञों के विधि-विधान के अतिरिक्त ऊंकार तथा गायत्री की भी महिमा का वर्णन है। कैवल्य की अवधारण का उल्लेख इसी ब्राह्मण में है।

आरण्यक

आरयण्कों में दार्शनिक एवं रहस्यात्मक विषयों यथा, आत्मा, मृत्यु, जीवन आदि का वर्णन होता है। इन ग्रंथों को आरयण्क इसलिए कहा जाता है क्योंकि इन ग्रंथों का मनन अरण्य अर्थात् वन में किया जाता था। ये ग्रन्थ अरण्यों (जंगलों) में निवास करने वाले संन्यासियों के मार्गदर्शन के लिए लिखे गए थै।

आरण्यकों में ऐतरेय आरण्यक, शांखायन्त आरण्यक, बृहदारण्यक, मैत्रायणी उपनिषद् आरण्यक तथा तवलकार आरण्यक (इसे जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण भी कहते हैं) मुख्य हैं। ऐतरेय तथा शांखायन ऋग्वेद से, बृहदारण्यक शुक्ल यजुर्वेद से, मैत्रायणी उपनिषद् आरण्यक कृष्ण यजुर्वेद से तथा तवलकार आरण्यक सामवेद से सम्बद्ध हैं। अथर्ववेद का कोई आरण्यक उपलब्ध नहीं है। आरण्यक ग्रन्थों में प्राण विद्या मी महिमा का प्रतिपादन विशेष रूप से मिलता है। इनमें कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी हैं, जैसे- तैत्तिरीय आरण्यक में कुरू, पंचाल, काशी, विदेह आदि महाजनपदों का उल्लेख है।

वेद एवं संबधित आरयण्क

वेद सम्बन्धित आरण्यक

1- ऋग्वेद

ऐतरेय ब्राह्मण, कौषीतकि ब्राह्मण

2- यजुर्वेद

बृहदारण्यक, मैत्रायणी, तैत्तिरीयारण्यक

3- सामवेद

जैमनीयोपनिषद् या तवलकार आरण्यक

4- अथर्ववेद

कोई आरण्यक नहीं

 

उपनिषद्

इसका शाब्दिक अर्थ है- ‘समीप बैठना‘ अर्थात् ब्रह्म विद्या को प्राप्त करने के लिए गुरू के समीप बैठना। इस प्रकार उपनिषद्् एक ऐसा रहस्य ज्ञान है जिसे हम गुरू के सहयोग से ही समझ सकते हैें। ब्रह्म विषयक होने के कारण इन्हें ब्रह्मविद्या भी कहा जाता है। उपनिषदों में आत्मा-परमात्मा एवं संसार के सन्दर्भ में प्रचलित दार्शनिक विचारों का संग्रह मिलता है। उपनिषद् वैदिक साहित्य के अन्तिम भाग तथा सारभूत सिद्धान्तों के प्रतिपादक हैं अतः इन्हें वेदान्त भी कहा जाता है। इनका रचना काल 800 से 500 ई.पू. के मध्य है। उपनिषदों ने जिस निष्काम कर्म मार्ग और भक्ति मार्ग का दर्शन दिया उसका विकास भगवत्गीता में हुआ।   mifu"knksa dh dqy la[;k 108 gSA izeq[k mifu"kn~ gSa& bZ'k] dsu] dB] ek.MwD;] rSfRrjh;] ,srjs;] NkUnksX;] 'osrk'orj] c`gjk.;d] dkS"khrfd] eq.Md] iz'u] eS=k;.kh; vkfnA ysfdu 'kadjkpk;Z us ftu 10 mifu"knksa ij viuk Hkk"; fy[kk gS mudks izkekf.kd ekuk x;k gSA ;s gSa &bZ'k] dsu] iz'u] ek.MwD;] eq.Md] rSfRrjh;] ,srjs;] NkUnksX;] vkSj c`gnkj.;d mifu"kn~A blds vfrfjDr dkS"khrfd vkSj 'osrk'orj mifu"kn Hkh egRoiw.kZ gSA bl izdkj 108 mifu"knksa esa ls dsoy 13 mifu"knksa dks gh izkekf.kd ekuk x;k gSA Hkkjr dk izfl) jk"Vªh; vkn'kZokD; &lR;eso t;rs^ eq.Mdksifu"kn~ ls fy;k x;k gSA mifu"kn~ x| vkSj i| nksuksa esa gSa& ftlesa& iz'u] ek.MwD;] dsu] rSfRrjh;],srjs;] NkanksX;] c`gnkj.;d vkSj mifu"kn x| esa rFkk dsu] bZ'k] dB vkSj 'osrk'orj mifu"kn in esa gSaA osn ,oa lacaf/kr mifu"kn osn lacaf/kr mifu"kn _Xosn ,srjs;ksifu"kn

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सी -6

  1. व्याकरण- इसके अन्तर्गत समासों एवं सन्धि आदि के नियम, नामों एवं धातुओं की रचना, उपसर्ग एवं प्रत्यय के प्रयोग आदि के नियम बताये गये हैं। पाणिनी की अष्टाध्यायी प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ है।
  2. निरूक्त- शब्दों की व्युत्पत्ति एवं निर्वचन बतलाने वाले शास्त्र निरूक्त कहलातें है। क्लिष्ट वैदिक शब्दों के संकलन ‘निघण्टु‘ की व्याख्या हेतु यास्क ने निरूक्त की रचना की थी, जो भाषा शास्त्र को प्रथम ग्रंथ माना जाता है।
  3. छन्द- वैदिक साहित्य में मुख्य रूप से गायत्री, त्रिष्टुप, जगती, वृहती आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है। पिंगल का छन्दशास्त्र प्रसिद्व है।
  4. ज्योतिष- इसमें ज्योतिशशास्त्र के विकास का दिखाया गया है। इसकें प्राचीनतम्् आचार्य लगध मुनि है।

ब्राह्मण ग्रन्थों में धर्मशास्त्र का महत्वपूर्ण स्थान है।

  • धर्मशास्त्र में चार साहित्य आते हैं-
  1. धर्म सूत्र,
  2. स्मृति,
  3. टीका एवं
  4. निबन्ध ।

स्मृतियां

स्मृतियों को ‘ धर्म शास्त्र‘ भी कहा जाता है- श्रस्तु वेद विज्ञेयों धर्मशास्त्रं तु वैस्मृतिः। स्मृतियों का उदय सूत्रों को बाद हुआ। मनुष्य के पूरे जीवन से सम्बधित अनेक क्रिया-कलापों के बारे में असंख्य विधि-निषेधों की जानकारी इन स्मृतियों से मिलती है। सम्भवतः मनुस्मृति (लगभग 200 ई.पूव. से 100 ई. मध्य) एवं याज्ञवल्क्य स्मृति सबसे प्राचीन हैं। उस समय के अन्य महत्वपूर्ण स्मृतिकार थै- नारद,पराशर, बृहस्पति, कात्यानन, गौतम, संवर्त, हरीत, अंगिरा आदि, जिनका समय सम्भवतः 100 ई. से लेकर 600 ई. तक था। मनुस्मृति से उस समय के भारत के बारे में राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जानकारी मिलती है। नार स्मृति से गुप्त वंश के संदर्भ में जानकारी मिलती है। मेधातिथि, मारूचि, कुल्लूक भट्ट, गोविन्दराज आदि टीकाकारों ने मनुस्मृति पर, जबकि विश्वरूप, अपरार्क, विज्ञानेश्वर आदि ने याज्ञवल्क्य स्मृति पर भाष्य लिख हैं।

मुख्य निबन्धकार एवं रचनाएं

मुख्य निबन्धकार रचनाएं

1- देवण्णभट्ट

स्मृतिचन्द्रिका

2- श्रीदत्त उपाध्याय

आचारादर्श

3- माध्वाचार्य

पाराशरमाधवीय

4- जीमूतवाहन

दायभाग

5- रघुनन्दन

स्मृतितत्व

 

महाकाव्य

‘रामायण‘ एवं ‘महाभारत‘, भारत के दो सर्वाधिक प्राचीन महाकात्य हैं। यद्यपि इन दोनों महाकात्यों के रचनाकाल के विषय में काफी विवाद है, फिर भी कुछ उपलब्ध साक्ष्यों के आधर पर इन महाकाव्यों का रचना काल चैथी शती ई.पू. से चैथी शती ई. के मध्य माना गया है।

रामायण

रामायण की रचना महर्षि बाल्मीकि द्वारा पहली एवं दूसरी शताब्दी के दौरान संस्कृत भाषा में की गयी । बाल्मीकि कृत रामायण में मूलतः 6000 श्लोक थे, जो कालान्तर में 12000 हुए और फिर 24000 हो गये । इसे ‘चतुर्विशिति साहस्त्री संहिता‘ भ्री कहा गया है। बाल्मीकि द्वारा रचित रामायण-बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्कन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड एवं उत्तराकाण्ड नामक सात काण्डों में बंटा हुआ है। रामायण द्वारा उस समय की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है। रामकथा पर आधारित ग्रंथों का अनुवाद सर्वप्रथम भारत से बाहर चीन में किया गया। भूशुण्डि रामायण को आदिरामायण कहा जाता है।

महाभारत

महर्षि व्यास द्वारा रचित महाभारत महाकाव्य रामायण से बृहद है। इसकी रचना का मूल समय ईसा पूर्व चैथी शताब्दी माना जाता है। महाभारत में मूलतः 8800 श्लोक ोि तथा सका नाम ‘जयसंहिता‘ (विजय संबंधी ग्रंथ) था। बाद में श्लोकों की संख्या 24000 होने के पश्चात् यह वैदिक जन भरत के वंशजों की कथा होने के कारण ‘भारत‘ कहलाया। कालान्तर में गुप्त काल में श्लोकों की संख्या बढ़कर एक लाख होने पर यह ‘शतसाहस्त्री संहिता‘ या ‘महाभारत‘ केहलाया। महाभारत का प्रारम्भिक उल्लेख ‘आश्वलाय गृहसूत्र‘ में मिलता है। वर्तमान में इस महाकाव्य में लगभग एक लाख श्लोकों का संकलन है। महाभारत महाकाव्य 18 पर्वो-आदि, सभा, वन, विराट, उद्योग, भीष्अ, द्रोण, कर्ण, शल्य, सौप्तिक, स्त्री, शान्ति, अनुशासन, अश्वमेघ, आश्रमवासी, मौसल, महाप्रास्थानिक एवं स्वर्गारोहण में विभाजित है। महाभारत में ‘हरिवंश‘ नाम परिशिष्ट है। इस महाकाव्य से तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है।  

पुराण

प्राचीन आख्यानों से युक्त ग्रंथ को पुराण कहते हैं। सम्भवतः 5वीं से चैथी शताब्दी ई.पू. तक पुराण अस्तित्व में आ चुके थे। ब्रह्मवैवर्त पुराण में पुराणों के पांच लक्षण बताये ये हैं। यह हैं- सर्प,प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर तथा वंशानुचरित। कुल पुराणों की संख्या 18 हैं- 1. ब्रह्म पुराण 2. पद्म पुराण 3. विष्णु पुराण 4. वायु पुराण 5. भागवत् पुराण 6. नारदीय पुराण, 7. मार्कण्डेय पुराण 8. अग्नि पुराण 9. भविष्य पुराण 10. ब्रह्मवैवर्त पुराण 1. लिंग पुराण 12. वराह पुराण 13. स्कन्द पुराण 14. वामन पुराण 15. कूर्म पुराण 16.मत्स्य पुराण 17. गरूढ़ पुराण और 18 ब्रह्मण्ड पुराण इन पुराणों में विषण, मत्स्य, वायु, ब्रह्मण्ड, तथा भागवत् पुराण सर्वाािक ऐतिहासिक महत्व के हैं क्योंकि नमें राजाओं की वंशावलियां पायी जाती हैं। अठारह पुराणों में सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रामाणिक मत्सय पुराण है। इसके द्वारा सातवाहन वंश के विषय में विशेष जानकारी मिलती है। इसके अतिरिक्त विषण पुराण से मौर्य वंश एवं गुप्त वंश की एवं वायु पुराण से शंग एवं गुप्त वंश के विषय में विशेष जानकारी मिलती है। इस प्रकार पुराणों से हमें शिशुनाग, नन्द, मौर्य, शुंग, सातवाहन एवं गुप्त वंश के विषय में ज्ञान होता है। मार्कण्डेय पुराण मुख्यतः देवी दुर्गा से संबधित है। इसी में ‘दुर्गा शप्तशती‘ नामक अंश शामिल है। अग्निपुराण में तांत्रिक पद्धति का उल्लेख है। इसी पुराण में गणेश पूजा का प्रथम बार उल्लेख मिलता है।

बौद्ध साहित्य

बौद्ध साहित्य को ‘त्रिपिटक‘ कहा जाता है। महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के उपरान्त आयोजित विभिन्न बौद्ध संगीतियों में संकलित किये गये तिपिटक (संस्कृत त्रिपिटक) सम्भवतः सर्वाधिक प्राचीन धर्मग्रंथ हैं। वुलर एवं रीज डेविड्ज महोदय ने ‘पिटक‘ का शाब्दिक अर्थ टोकरी बताया है। त्रिपिटक हैं- 1. सुत्तपिटक, 2. विनय पिटक और 3. अभिधद्यम्म पिटक। 1. सुत्तपिटक- सुत्त का शाब्दिक अर्थ है- धर्मोपदेश। बुद्ध के धार्मिक विचारों वं उपदेशों के संग्रह वाला गद्य-पद्य मिश्रित यहपिटक सम्भवतः त्रिपिटकों में सर्वाधिक बड़ा एवं श्रेष्ठ है। यह पिटक पांच निकायों में विभाजित है, जो इस प्रकार है- 1. दीघनिकाय, 2. मज्झिमनिकाय, 3. संयुक्त निकाय, 4. अंगुत्तर निकाय और 5. खुद्दक निकाय। (क) दीधनिकाय- गद्य एवं पद्य दोनों में रचित इस निकाय में बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का समर्थन एवं अन्य धर्मो के सिद्धान्तों का खण्डन किया गया है। इस निकाय का सर्वाधिक महत्वपूर्ण सुत्त है- ‘महापरिनिब्बानसुत्त‘। इस निकाय में महात्मा बुद्ध के जीवन के आखिरी जीवन, अन्तिम उपदेशों, मृत्यु तथा अन्त्येष्टि का वर्णन किया गया है। (ख) मज्झिम निकाय- इस निकाय में महात्मा बुद्ध को कहीं साधारण मनुष्य के रूप में तो कही अलौकिक शक्ति वाले दैव रूप में वर्णित किया गया है। (ग) संयुक्त निकाय- गद्य एवं पद्य दोनों शेलियों के प्रयोग वाला यह निकाय अनेक ‘संयुक्तों‘ का संकलन मात्र है। (घ) अंगुत्तर निकाय- 11 निपातों से युक्त इस निकाय में महात्मा बुद्ध द्वारा भिक्षुओं को उपदेश में की जाने वाली बातों का वर्णन है। इस निकाय में छठी शताब्दी ई.पू. के सोलह महाजनपदों का उल्लेख मिलता हैं (ड.) खुद्दक निकाय- भाषा, विषय एवं शेली की दृष्टि से सभी निकायों से अलग, लघु ग्रंथों के संकलन वाला यह निकाय अपने आप में स्वतंत्र एवं पूर्ण है। इसके कुछ अन्य प्रकार हैं- खुद्दक पाठ, धम्मपद, उदान, इतिबुत्तक, सुत्तनिपात, विमानवत्थु, पेतवत्थु, थेरगाथा, थेरीगाथा, जातक, निद्देश, पतिसंभिदामग्डा, अपदान, बुद्धवंश तथा चरियापिटक। जातकों में बुद्ध के पूर्व जन्म से सम्बन्धित करीब 500 कहानियों का संकलन है। सुत्तपिटक को बौद्ध धर्म का ‘इनसाइक्लोपीडिया‘ भी कहा जाता हैं।   सी-7 2. विनय पिटक- इस ग्रंथ में मठ निवासियों के अनुशासन सम्बन्धी नियम दिये गये हैं। यह पिटक तीन भागों में विभक्त है- (क) पातिभोक्ख, (ख) सुत्त विभंग, (ग) खंधक और (घ) परिवार। (क) पातिभोक्ख (प्रतिमोक्ष) अनुशासन संबंधी नियमोें तथा उसके उल्लंघनों पर किये जाने वाले प्रायश्यितों का संकलन है। (ख) सुत्त विभंग का शाब्दिक अर्थ है- ‘सुत्रों (पातिभोक्ख के सूत्र) पर टीका‘। इसके दो भाग महाविभंग एवं भिक्खुनी विभंग हैं। महाविभंग में बौद्ध भिक्षुओं के लिए एवं भिक्खुनी विभंग में बौद्ध भिक्षुणियों हेतु नियमों का उल्लेख है। (ग) खन्धक में मठ या संघ में निवासियों के जीवन के सन्दर्भ में विधि-निषेधों की विस्तृत व्याख्या की गयी है। खन्धक के दो अन्य भाग- महावग्ग एवं चुल्लवग्ग हैं। महावग्ग में सघ के अत्यधिक महत्वपूर्ण विषयों का उल्लेख है। इसमें कुल 10 अध्याय हैं। चुल्लवग्ग में 12 अध्याय हैं। इसमें वर्णित विषय कम महत्वपूर्ण हैं। (घ) परिवार- यह प्रश्नोत्तर क्रम में है। विनय पिटक का यह अंतिम ग्रंथ है। 3. अभिधम्म पिटक- इसमें बौद्ध मतों की दार्शनिक व्याख्या की गयी है। बौद्ध परम्परा की ऐसी मान्यता है कि इस पिटक का संकलन अशोक के समय में सम्पन्न तृतीय बौद्ध संगीति में मोग्गलिपुत्त तिस्म ने किया । इस पिटक के अन्य सात ग्रंथ- धम्मसंगणि, विभंग, धातुकथा, पुग्गलपन्नति, कथावत्तु, यमक और पत्थान हैं। इन्हे सत्तपकरण कहा जाता है। त्रिपिटकों के अतिरिक्तपालिीााषा में लिखे गये कुछ अन्य महत्वपूर्ण बौद्ध ग्रंथ-मिलिन्दपन्ह, दीपवंश एवं महावंश हैं। मिलिन्दपन्ह- इस ग्रंथ से ईसा की प्रथम दो शताब्दियों के भारतीय जन-जीवन के विषय में जानकारी मिलती है। इस ग्रंथ में यूनानी नरेश मिनेण्डर (मिलिन्द) एवं बौद्ध भिक्षु नागसेन के बीच बौद्ध मत पर वार्तालाप का वर्णन है। दीपवंश- लगभग चतुर्थ शताब्दी ई. में रचित सिंहल द्वीप के इतिहास पर प्रकाश डालने वाला यह पहला ग्रंथ है। महावंश- भदन्त महानामा द्वारा सम्भवतः 5 वी. छठी. शती. ई. में रचित इस ग्रंथ में मगध के राजाओं की क्रमबद्ध सूची मिलती है। संस्कृत भाषा में लिखित कुछ महत्वपूर्ण बौद्ध ग्रंथों में महावस्तु एवं ललितविस्तर से महात्मा बुद्ध के जीवन के विषय में जानकारी मिलती है। दिव्यावदान से परवर्ती मौर्य शासकों एवं शुंग वंश के विषय में जानकारी मिलती है। अश्वघोष, जो सम्राट कनिष्क के समकालीन थे, की रचनाओं बुद्धरचित, सौन्दरानन्द एवं सारिपुत्रप्रकरण में प्रथम दो महाकाव्य एवं तीसरा नाटक हैं। जैन साहित्य ऐतिहसिक जानकारी हेतु जैन साहित्य भी बौद्ध साहित्य की ही तरह महत्वपूर्ण हैं। अब तक उपलब्ध जैन साहत्य प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में मिलतें है। जैन साहित्य, जसे ‘आगम‘ कहा जाता है, इनकी संख्या 12 बतायी जाती है। आगे चलकर इनके उपांग भी लिखे गये । आगमों के साथ-साथ जैन ग्रंथों में 10 प्रकीर्ण, 6 छंद सूत्र, एक नंदि सूत्र एक अनुयोगद्वार एवंचार मूलसूत्र हैं। इन आगम ग्रंथों की रचना सम्भवतः श्वेताम्बर साम्प्रदाय के आचार्यो ,ारा महावीर स्वामी की मृत्यु बारह आगम- 1. आचरांग सुत्त, 2. सूयकडंक, 3. थापंग, 4. समवायांग, 5. भगवतीसूत्र, 6. न्यायधम्मकहाओ, 7. उवासगदसाओं, 8. अन्तगडदसाओ, 9. अणत्रोववाइयदसाओं, 10. पण्हावागरणिआई, 11. विवागसुयं, और 12 द्विट्टिवाय। इन आगम ग्रंथो के आचरांगसूत्र से जैन भिक्षुओं के विधि-निषेधों एवं आचार-विचारों का विवरण एवं भगवतीसूत्र से महावीर स्वामी के जीवन-शिक्षाओं आदि के बारे में उपयुक्त जानकारी मिलती है, जो इस प्रकार हैं- 1. औपपातिक, 2. राजप्रश्नीय, 3. जीवभिगम, 4. प्रज्ञापणा, 5. सूर्यप्रज्ञपित, 6. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, 7. चन्दप्रज्ञप्ति, 8. निर्यावलिका, 9. कल्पावंतसिका, 10. पुष्पिका, 11. पुष्पचूलिका और 12 वृष्णिदशा। आगम ग्रंन्थों के अतिरिक्त 10 प्रकीर्ण इस प्रकार हैं- 1.चतुःशरण, 2. आतुर प्रत्याख्यान, 3. भक्तिपरीज्ञा, 4. संस्तार, 5. तांदुलवैतालिक, 6. चंद्रवेध्यक, 7. गणितविद्या, 8.देवेन्द्रस्तव, 9. वीरस्तव और 10. महाप्रत्याख्यान। छेदसूत्र की संख्या 6 है- 1. निशीथ,2. महानिशीथ, 3. व्यावहार, 4, आचाारदशा, 5, कल्प और 6, पंचकल्प आदि। एक नंदि सूत्र एवं एक अनुयोग द्वारा जैन धर्म अनुयायियों के स्वतंत्र ग्रंथ एवं विश्वकोष हैं। जैन साहित्य में पुराणों का भी महत्वपूर्ण स्थान है जिन्हे ‘वारित‘ भी कहा जाता है। ये प्राकृृत, संस्कृत तथा अपभ्रंश तीनों भाषाओं में लिखें गयें हैं। इनमें पद्मपुराण, हरिवंशपुराण, आदिपुराण, इत्यादि उल्लेखनीय हैं। जैन पुराणों का समय छठी शताब्दी से सोलहवीं-सत्रवहीं शताब्दी तक निर्धारित किया गया है। जैन ग्रंथों में परिशिष्टपर्व,भद्रबाहुचरित, आवश्यकसूत्र, आचारांगसूत्र, भगवतीसूत्र, कालिकापुराणा आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनसे ऐतिहासिक घटनाओं की सूचना मिलती है। लौकिक साहित्य इस प्रकार के साहित्य के अन्तर्गत ऐतिहासिक एवं समसामयिक साहित्य आते हैं, ऐसे साहित्य को धर्मेत्तर साहित्य भी कहते हैं इस प्रकार की कृतियों से तत्कालीन भारतीय समाज के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास को जानने में काफी मदद मिलती है। ऐसी रचनाओं में सर्वप्रथम उल्लेख अर्थशास्त्र का किया जाता है। अर्थशास्त्र- सम्भवतः आचार्य चाणक्य (विष्णुगुप्त) द्वारा रचित इस कृति को भारत का पहला राजनीति का ग्रंथ माना जाता है। लगभग 6000 श्लोकों वाले इस ग्रंथ (अर्थशास्त्र) से मौर्यकालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक स्थिति की स्पष्ट जानकारी मिलती है। 15 खण्डों में विभाजित इस ग्रंथ का द्वितीय एवं तृतीय खण्ड सर्वाधिक प्राचीन है। मुद्राराक्षस- चैथी शती का उत्तरार्द्ध एवं पांचवी शती ई. के पूर्वार्द्ध में विशाखदत्त द्वारा रचित इस ग्रंथ से चन्द्रगुप्त मौर्य एवं उनके गुरू चाणक्य के विषय में और साथ ही नंद वश के पतन एवं मार्य वंश की स्थापना के इतिहास के बारे में जानकारी मिलती है। पाणिनिकृत अष्टाध्यायी एवं महर्शि पंतजलि प्रणीय महाभाष्य वैसे तो व्याकरण का ग्रंथ माने जाते हैं किन्तु इन गंथों में कहीं-कहीं राजाओं-महाराजाओं एवं जनतंत्रों के घटनाचक्र का विवरण भी मिलता हैं। मालविकाग्निमित्रम्- चैथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं पांचवी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में कालिदास द्वारा रचित इस संस्कृत ग्रंथ से पुष्यमित्र शुग एवं उसके अग्निमित्र के समय के राजनीतिक घटनाचक्र तथा शुंग एवं यवन संघर्ष का उल्लेख मिलता है। हर्षचरित- सातवीय शताब्दी के पूर्वार्द्ध में संस्कृत गद्य साहित्य के विद्धान सम्राट हर्ष के राजकवि वाणभट्ट द्वारा रचित इस ग्रंथ से हर्ष के जीवन एवं हर्ष के समय में भारत के इतिहास पर प्रचुर प्रकाश पड़ता है। कामन्दकीय नीतिशास़्त्र- 6वीं.-सातवीं शताब्दी के लगभग कामन्दक द्वारा इस ग्रंथ की रचना की गयी। इससे उस समय के आचार-व्यावहार के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। बृहस्पतीय अर्थशास्त्र- कौटिल्य के अर्थशास्त्र के समान ही बृहस्पति ने भी ‘अर्थशास्त्र‘ नामक ग्रंथ की रचना की। इसका रचनाकाल 900-1000 ई. माना जाता है। इस ग्रंथ में राजकीय कत्र्तव्यों का उल्लेख किया गया है। स्वप्नवासवदत्तम- तीसरी शताब्दी ई. में महाकवि भास द्वारा रचित इस कृति से वत्सराज उदयन एवं अवन्ति नरेश चण्ड प्रद्योत के सम्बन्धो का उल्लेख मिलता है। मृच्छकटिकम्- शूद्रक द्वारा रचित इस नाटक से गुप्तकालीन सांस्कृतिक इतिहास की जानकारी मिलती है। नवसाहसांकचरित- ग्यारहवीब शती ई. में पदमगुप्त परिमल द्वारा रचित इस ग्रंथ से परमारवंश, सिंधुराज नवसाहसांक के इतिहास के विषय में जानकारी मिलती है। इस ग्रंथ को संस्कृति साहित्य का प्रथम ऐतिहासिक महाकाव्य माना जाता है। सी-8 राजतरंगिणी- 1148 से 1150 के बीच इस ग्रंथ की रचना कल्हण ने की । कश्मीर के इतिहास पर आधारित इस ग्रंथ की रचना में कल्हण ने ग्यारह अन्य ग्रंथों का सहयोग लिया है जिसमें अब केवल नीलमत पुराण ही उपलब्ध है। यह ग्रंथ संस्कृत में ऐतिहासिक घटनाओं के क्रमबद्ध इतिहास लिखने का प्रथम प्रयास है। इसमें आदिकाल से लेकर 1151 ई. के आरम्भ तक के कश्मीर के प्रत्येक शासक के काल की घटनाओं क्रमानुसार विवरण दिया गया हैं विक्रमांकदेवचरित- 11 वी शताब्दी के उत्रार्द्ध में इस ग्रंथ की रचना कश्मीरी कवि विल्हण ने की। इस ग्रंथ से चालुक्य राजवंश, विशेषकर विक्रमादित्य षष्ठ के विषय में जानकारी मिलती हैं कुमारपालचरित- लगभग 1089-1173 ई. के बीच इस ग्रंथ की रचना हेमचन्द ने की थी। 20 सर्गो में विभाजित इस ग्रंथ से गुंजरात के चालुक्यवंशीय शासकों के विस्तृत इतिहास की जानकारी मिलती है। बीस सर्गो में प्रथम बारह सर्ग संस्कृत भाषा में एवं अन्तिम आठ सर्ग प्राकृत भाषा में लिखे गये हैं। इस ग्रंथ को द्वयाश्रय भी कहा जाता है। प्रबन्धचिन्तामणि- 1305 ई. में इसकी रचना मेरूतुंगाचार्य ने की । यह ग्रंथ जैन साहित्य का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह पांच खण्डों में विभाजित है। इन खण्डों से क्रमशः विक्रमांक, सातवाहन मूलराज, मुंज, नृपति भोज, सिद्वराज जयसिंह, कुमार पाल, लक्ष्मण सेन, जयचन्द्र आदि के विषय में जानकारी मिलती है। कीर्तिकौमुदी- सोमेश्वर द्वारा रचित इस काव्य से चालुक्यवंशीय इतिहास के विषय में जानकारी मिलती है। बसन्तविलास- महाकवि वाल चन्द्र द्वारा रचित चैदह सर्गो वाले इस ग्रंथ में वास्तुपाल के उदारवादी कार्याें का उल्लेख मिलता है। साथ ही साथ चालुक्य वंशीय राजनीति के बारे में विवरण मिलते है। मत्तविलास प्रहसन- पल्लव नरेश महेन्द्र वर्मा द्वारा 7वीं. शती में रचित इस ग्रंथ में तत्कालीन सामाजिक एवं धार्मिक जीवन के बारे मंे विवरण मिलता है। अवन्तिसुन्दरी कथा- महाकवि दण्डी द्वारा रचित इस ग्रंथ से पल्लवी के इतिहास विषय में जानकारी मिलती है। पृथ्वीराजविजय- 1191-93 ई. के बीच इस ग्रंथ की रचना कश्मीरी पण्डित जयनक ने की। इस ग्रंथ से पृथ्वीराज तृतीय के विषय में जानकारी मिलती है। गौड़वहो- वाक्पतिराज द्वारा प्राकृत भाषा में रचित इस ग्रंथ से कन्नौज नरेश यशोवर्मा की विजय के विषय में जानकारी मिलती है। दक्षिण भारत का प्रारम्भिक इतिहास ‘संगम साहित्य‘ से ज्ञात होता है। सुदूर दक्षिण के पल्लव और चोल शासको का इतिहास नन्दिकक्लम्बकम, कलिंगत्तुपर्णि, चोल चरित आदि से प्राप्त होता है। विदेशियों के विवरण विदेशी यात्रियों एवं लेखकों के विवरण से भी हमें भारतीय इतिहास की जानकारी मिलती है। इनको तीन भागों में बांट सकते हैं- (1) यूनानी-रोमन लेखक (2) चीनी लेखक (3) अरबी लेखक यूनानी लेखकों को तीन भागों में बांटा जा सकता है- (क) सिकन्दर के पूर्व के यूनानी लेखक (ख) सिकन्दर के समकालीन यूनानी लेखक (ग) सिकन्दर के बाद के लेखक टेसियस और हेरोडोटस यूनान और रोम के प्राचीन लेखकों में से हैं। टेसियस ईरानी राजवैद्य था, उसने भारत के विषय में समस्त जानकारी ईरानी अधिकारियों से प्राप्त की थी। हेरोडोटस, जिसे इतिहास का पिता कहा जाता है, ने 5वी. शताब्दी में ई.पू. में ‘हिस्टोरिका‘ नामक पुस्तक की रचना की थी, जिसमें भारत और फारस के सम्बन्धों का वर्णन किया गया है। नियार्कस, आनेसिक्रिटस और अरिस्टोवुलास ये सभी लेखक सिकन्दर के समकालीन। इन लेखकों द्वारा जो भी विवरण तत्कालीन भारतीय इतिहास जुड़ा है वह अपने में प्रमाणिक है। सिकन्दर के बाद के लेखकों में महत्वपूर्ण था मेगस्थनीज जो चूनानी राजा सेल्यूकस का राजदूत था। उसने चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में करीब 14 वर्षो तक रहा। उसने ‘इण्डिका ‘ नामक ग्रंथ की रचना की जिसमें तत्कालीन मौर्यवंशीय समाज एवं संस्कृति का विवरण दिया था। डाइमेकस, सीरियन नरेश अन्तियोकस का राजदूत थाजो बिन्दुसार के राजदरबार में काफी दिनों तक रहा। डायनिसियस मिस्र नरेश टाॅलमी फिलाडेल्फस के राजदूत के रूप में काफी दिनों तक सम्राट अशोक के राज दरबार में रहा था। अन्य पुस्तकों में ‘पेरीप्लस आॅफ द एरिथ्रियन सी‘, लगभग 150 ई. के आसपास टाॅलमी का भूगोल, प्लिनी का नेचुरल हिस्टोरिका (ई. की प्रथम सदी) महत्वपूर्ण है। ‘पेरीप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी‘ ग्रंथ जिसकी रचना 80 से 115 ई. के बीच हुई है, में भारतीय बन्दरगाहों एवं व्यापारिक वस्तुओं का विवरण मिलता है। प्लिनी के ‘नेचुरल हिस्टोरिका‘ से भारतीय पशु, पेड़-पौधों एवं खनिज पदार्थो की जानकारी मिलती है। चीनी लेखक- चीनी लेखकों के विवरण से भी भारतीय इतिहास पर प्रचुर प्रभाव पड़ता है सभी चीनी लेखक यात्री बौद्ध मतानुयायी थे और वे इस धर्म के विषय में कुछ विषय जानकारी के लिए ही भारत आये थे। चीनी बौद्ध यात्रियों में से प्रमुख थे- फाह्मन, हृेनसांग, इत्सिंग, मल्वानलिन, चाऊ-जू-कुआ आदि। हृेनसांग कन्नौज के राजा हर्षवर्धन (606-47ई.) के शासनकाल में भारत आया। इसने करीब 10 वर्षो तक भारत में भ्रमण किया। उसने 6 वर्षो तक नालन्दा विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। उसकी भारत यात्रा का वृतान्त सी-यू-की नामक ग्रंथ से जाना जाता है जिसने लगभग 138 देशों के यात्रा विवरण का जिक्र मिलता है।हूली हृेनसांग का मित्र था जिसने हृेनसांग की जीवनी लिखी। इस जीवनी में उसने तत्कालीन भारत पर भी प्रकाश डाला। चीनी यात्रियों में सर्वाधिक महत्व हृेनसांग का ही है। उसे ‘प्रिंस आॅॅॅफ पिलग्रिम्स‘ अर्थात् यात्रियों का राजकुमार कहा जाता है। इत्सिंग 613-715 ई. के समय भारत आया। उसने नालन्दा एवं विक्रमशिला विश्वविद्यालय तथा उस समय के भारत पर प्रकाश डाला। मत्वालिन ने हर्ष के पूर्व अभियान एवं चाऊ-जू-कुआ ने चोलकालीन इतिहास पर प्रकाश डाला। अरबी लेखक- पूर्व मध्यकालीन भारत के समाज और संस्कृति के विषयों में हमें सर्वप्रथम अरब व्यापारियों एवं लेखकों से विवरण प्राप्त होता है। इन व्यापारियों और लेखकों में मुख्य हैं- अलबेरूनी, सुलेमान और अलमसूदी। अलबेरूनी, जो अबूरिहान नाम से भी जाना जाता था, 973 ई. में ख्वारिज्म (खीवा) में पैदा हुआ। 1017 ई. में ख्वारिज्म को महमूद गजनवी द्वारा जीते जाने पर अलबेरूनी को उसने राज्य ज्योतिषी के पद पर नियुक्त किया। बाद में महमूद के साथ अलबेरूनी भारत आया। इसने अपनी पुस्तक ‘तहकीक-ए-हिन्द‘ अर्थात किताबुल हिंद में राजपूतकालीन समाज, धर्म, रीतिरिवाज आदि पर सुन्दर प्रकाश डाला है। 9 वी. शताब्दी में भारत आने वाले अरबी यात्री सुलेमान प्रतिहार एवं पाल शासकों के तत्कालीन आर्थिक, राजनैतिक एवं समाजिक दशा का वर्णन करता है। 915-16 ई. में भारत की यात्रा करने वाला बगदाद का यह यात्री अलमसूदी राष्ट्रकूट एवं प्रतिहार शासकों के विषय में जानकारी देता हैं उपर्युक्त विदेशी यात्रियों के विवरण के अतिरिक्त कुछ फारसी लेखकों के विवरण भी प्राप्त होते है जिनसे भारतीय इतिहास के अध्ययन में काफी सहायता मिलती है। इसमें महत्वपूर्ण हैं- फिरदौसी (940-1020ई.) कृतशाहनामा, (Books of Kings)   रशदुद्वीन कृत ‘ जमीएत अल तवारीख‘ अली अहमद कृत ‘चाचनामा‘ मिनहाज-उल-सिराज कृत ‘तबकात-ए-नासिरी‘, जियाउद्वीन बरनी कृत ‘तारीख-ए-फिरोजशाही एवं अबुल फजल कृत ‘अकबरनामा‘ आदि। यूरोपीय यात्रियों में 13 वी शताब्दी में वेनिस (इटली) से आये से सुप्रसिद्व यात्री मार्कोपोलों द्वारा दक्षिण के पाण्ड्य राज्य के विषय में जानकारी मिलती है। पुरातत्व पुरातात्विक साक्ष्य के अंतर्गत मुख्यतः अभिलेख, सिक्के, स्मारक, भवन, मूर्तियां चित्रकला आदि आते हैं। अभिलेख- इतिहास निमार्ण में सहायक पुरातत्व सामग्री में अभिलेखों का महत्वपूर्ण स्थान है। ये अभिलेख अधिकांशतः स्तम्भों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मुद्राओं पात्रों, मूर्तियों, गुहाओं आदि में खुदे हुए मिलते हैं। यद्यपि प्राचीनतम अभिलेख मध्य एशिया के ‘बोगजकोई‘ नाम स्थान से करीब 1400 ई.पू. में पाये गये जिनमें अनेक वैदिक देवताओं-इन्द्र, मित्र, वरूण, नासत्य आदि का उल्लेख मिलता है।