महुआ डाबर: Difference between revisions

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== इतिहास ==
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'''महुआ डाबर गांव''' सन् 1857 ई. तक [[भारत]] के [[उत्तर प्रदेश]] राज्य के [[बस्ती जिला]] के बहादुरपुर ब्लॉक में मनोरमा नदी के तट पर मौजूद एक ऐतिहासिक गांव था । अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हिंदुस्तानियों की 1857 की क्रांति में यह गांव स्वतंत्रता संग्राम में इतिहास रचते हुए 10 जून 1857 को यहां के ग्रामीणों ने फैजाबाद से दानापुर बिहार के लिए गांव से गुजर रहे ब्रिटिश फौज के सात अफसरों में लेफ्टिनेंट लिण्डसे, लेफ्टिनेंट थामस, लेफ्टिनेंट इंग्लिश, लेफ्टिनेंट रिची, सार्जेन्ट एडवर्ड, लेफ्टिनेंट काकल व सार्जेन्ट बुशर को घेरा। सातों को हत्या की नीयत से जमकर मारा। इस घटना में छह अंग्रेज अफसर तो मर गए मगर सार्जेन्ट बुशर किसी तरह जान बचाकर निकल गया । वह सीधा अपने कैम्प पहुंचा और स्थिति से अवगत कराया। 6 अंग्रेजी फौजियों के क़त्ल के बाद अंग्रेजी हुकूमत इसे लेकर गंभीर हुई। इतिहास में दर्ज है, कि तब पटना से लेकर लखनऊ तक केवल छह सौ अंग्रेजी फौज थी । और छह अंग्रेज फौज के अफसरों की मौत से उस वक़्त ब्रितानियां हुकूमत की चूले हिल गई थी कि कहीं इसकी आग पूरे देश में न भड़क जाए । अंग्रेजों ने इसको दबाने का बंदोबस्त किया । घटना से आग बबूला हुई अंगे्रजी हुकूमत ने इस गांव को नेस्तनाबूद कर देने का फरमान जारी कर दिया । 20 जून 1857 को बस्ती के डिप्टी मैजिस्ट्रेट विलियम्स पेपे ने तब हथकरघा उद्योग का केंद्र रहे लगभग 5000 की आबादी वाले महुआडाबर को घुड़सवार सैनिकों से चारों तरफ से घिरवाकर आग लगवा दी थी । मकानों, मस्जिदों और हथकरघा केंद्रों को जमींदोज करवा दिया था । और उस जगह पर एक बोर्ड लगवा दिया जिसपर लिखा था 'गैर चिरागी' मतलब 'इस जगह पर कभी चिराग नहीं जलेगा'। इस घटना में सैकड़ों की बलि चढ़ गई कितनी माओ की गोदे सूनी हो गयी कितनो का सुहाग उजड़ गया कितने बच्चे यतीम हो गए । यह सब कुछ ब्रितानियां हुकूमत ने चुपचाप किया । गांव को आग में झोंकने वाले अंग्रेजी अफसर जनरल विलियम पे.पे. को इसके लिए सम्मानित किया गया, मगर सब कुछ केवल इतिहास के पन्नों में था । अंग्रेजी हुकूमत ने इतना ही नहीं किया । गांव का अस्तित्व मिटाने के लिए देश के नक्शे, सरकारी रिपोर्ट व गजेटियर से उसका नाम ही मिटा डाला। बल्कि अपनी करतूतों पर पर्दा डालने के लिए उस स्थान से 50 किलोमीटर दूर बस्ती-गोण्डा सीमा पर गौर ब्लाक में बभनान के पास महुआडाबर नाम से एक नया गांव बसा दिया, जो अब भी आबाद है। सिर्फ इतना ही नहीं बस्ती के लोग भी इस महुआडाबर को भूल गए । मगर कलवारी थाना के पन्नों में ब्रिटिश शासन ने यह जरूर दर्ज किया कि इस गांव को दुबारा बसने न दिया जाए। गांव के अधिकतर लोग मारे गए और जो बचे वे अपनी जान बचाकर सैकड़ों किलोमीटर दूर गुजरात के अहमदाबाद, बड़ौदा और महाराष्ट्र के मालेगांव में जा बसे।  
'''महुआ डाबर गांव''' सन् 1857 ई. तक [[भारत]] के [[उत्तर प्रदेश]] राज्य के [[बस्ती जिला]] के बहादुरपुर ब्लॉक में मनोरमा नदी के तट पर मौजूद एक ऐतिहासिक गांव था । अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हिंदुस्तानियों की 1857 की क्रांति में यह गांव स्वतंत्रता संग्राम में इतिहास रचते हुए 10 जून 1857 को यहां के ग्रामीणों ने फैजाबाद से दानापुर बिहार के लिए गांव से गुजर रहे ब्रिटिश फौज के सात अफसरों में लेफ्टिनेंट लिण्डसे, लेफ्टिनेंट थामस, लेफ्टिनेंट इंग्लिश, लेफ्टिनेंट रिची, सार्जेन्ट एडवर्ड, लेफ्टिनेंट काकल व सार्जेन्ट बुशर को घेरा। सातों को हत्या की नीयत से जमकर मारा। इस घटना में छह अंग्रेज अफसर तो मर गए मगर सार्जेन्ट बुशर किसी तरह जान बचाकर निकल गया । वह सीधा अपने कैम्प पहुंचा और स्थिति से अवगत कराया। 6 अंग्रेजी फौजियों के क़त्ल के बाद अंग्रेजी हुकूमत इसे लेकर गंभीर हुई। इतिहास में दर्ज है, कि तब पटना से लेकर लखनऊ तक केवल छह सौ अंग्रेजी फौज थी । और छह अंग्रेज फौज के अफसरों की मौत से उस वक़्त ब्रितानियां हुकूमत की चूले हिल गई थी कि कहीं इसकी आग पूरे देश में न भड़क जाए । अंग्रेजों ने इसको दबाने का बंदोबस्त किया । घटना से आग बबूला हुई अंगे्रजी हुकूमत ने इस गांव को नेस्तनाबूद कर देने का फरमान जारी कर दिया । 20 जून 1857 को बस्ती के डिप्टी मैजिस्ट्रेट विलियम्स पेपे ने तब हथकरघा उद्योग का केंद्र रहे लगभग 5000 की आबादी वाले महुआडाबर को घुड़सवार सैनिकों से चारों तरफ से घिरवाकर आग लगवा दी थी । मकानों, मस्जिदों और हथकरघा केंद्रों को जमींदोज करवा दिया था । और उस जगह पर एक बोर्ड लगवा दिया जिसपर लिखा था 'गैर चिरागी' मतलब 'इस जगह पर कभी चिराग नहीं जलेगा'। इस घटना में सैकड़ों की बलि चढ़ गई कितनी माओ की गोदे सूनी हो गयी कितनो का सुहाग उजड़ गया कितने बच्चे यतीम हो गए । यह सब कुछ ब्रितानियां हुकूमत ने चुपचाप किया । गांव को आग में झोंकने वाले अंग्रेजी अफसर जनरल विलियम पे.पे. को इसके लिए सम्मानित किया गया, मगर सब कुछ केवल इतिहास के पन्नों में था । अंग्रेजी हुकूमत ने इतना ही नहीं किया । गांव का अस्तित्व मिटाने के लिए देश के नक्शे, सरकारी रिपोर्ट व गजेटियर से उसका नाम ही मिटा डाला। बल्कि अपनी करतूतों पर पर्दा डालने के लिए उस स्थान से 50 किलोमीटर दूर बस्ती-गोण्डा सीमा पर गौर ब्लाक में बभनान के पास महुआडाबर नाम से एक नया गांव बसा दिया, जो अब भी आबाद है। सिर्फ इतना ही नहीं बस्ती के लोग भी इस महुआडाबर को भूल गए । मगर कलवारी थाना के पन्नों में ब्रिटिश शासन ने यह जरूर दर्ज किया कि इस गांव को दुबारा बसने न दिया जाए। गांव के अधिकतर लोग मारे गए और जो बचे वे अपनी जान बचाकर सैकड़ों किलोमीटर दूर गुजरात के अहमदाबाद, बड़ौदा और महाराष्ट्र के मालेगांव में जा बसे।  
== खोज ==
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इतिहास

महुआ डाबर गांव सन् 1857 ई. तक भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के बस्ती जिला के बहादुरपुर ब्लॉक में मनोरमा नदी के तट पर मौजूद एक ऐतिहासिक गांव था । अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हिंदुस्तानियों की 1857 की क्रांति में यह गांव स्वतंत्रता संग्राम में इतिहास रचते हुए 10 जून 1857 को यहां के ग्रामीणों ने फैजाबाद से दानापुर बिहार के लिए गांव से गुजर रहे ब्रिटिश फौज के सात अफसरों में लेफ्टिनेंट लिण्डसे, लेफ्टिनेंट थामस, लेफ्टिनेंट इंग्लिश, लेफ्टिनेंट रिची, सार्जेन्ट एडवर्ड, लेफ्टिनेंट काकल व सार्जेन्ट बुशर को घेरा। सातों को हत्या की नीयत से जमकर मारा। इस घटना में छह अंग्रेज अफसर तो मर गए मगर सार्जेन्ट बुशर किसी तरह जान बचाकर निकल गया । वह सीधा अपने कैम्प पहुंचा और स्थिति से अवगत कराया। 6 अंग्रेजी फौजियों के क़त्ल के बाद अंग्रेजी हुकूमत इसे लेकर गंभीर हुई। इतिहास में दर्ज है, कि तब पटना से लेकर लखनऊ तक केवल छह सौ अंग्रेजी फौज थी । और छह अंग्रेज फौज के अफसरों की मौत से उस वक़्त ब्रितानियां हुकूमत की चूले हिल गई थी कि कहीं इसकी आग पूरे देश में न भड़क जाए । अंग्रेजों ने इसको दबाने का बंदोबस्त किया । घटना से आग बबूला हुई अंगे्रजी हुकूमत ने इस गांव को नेस्तनाबूद कर देने का फरमान जारी कर दिया । 20 जून 1857 को बस्ती के डिप्टी मैजिस्ट्रेट विलियम्स पेपे ने तब हथकरघा उद्योग का केंद्र रहे लगभग 5000 की आबादी वाले महुआडाबर को घुड़सवार सैनिकों से चारों तरफ से घिरवाकर आग लगवा दी थी । मकानों, मस्जिदों और हथकरघा केंद्रों को जमींदोज करवा दिया था । और उस जगह पर एक बोर्ड लगवा दिया जिसपर लिखा था 'गैर चिरागी' मतलब 'इस जगह पर कभी चिराग नहीं जलेगा'। इस घटना में सैकड़ों की बलि चढ़ गई कितनी माओ की गोदे सूनी हो गयी कितनो का सुहाग उजड़ गया कितने बच्चे यतीम हो गए । यह सब कुछ ब्रितानियां हुकूमत ने चुपचाप किया । गांव को आग में झोंकने वाले अंग्रेजी अफसर जनरल विलियम पे.पे. को इसके लिए सम्मानित किया गया, मगर सब कुछ केवल इतिहास के पन्नों में था । अंग्रेजी हुकूमत ने इतना ही नहीं किया । गांव का अस्तित्व मिटाने के लिए देश के नक्शे, सरकारी रिपोर्ट व गजेटियर से उसका नाम ही मिटा डाला। बल्कि अपनी करतूतों पर पर्दा डालने के लिए उस स्थान से 50 किलोमीटर दूर बस्ती-गोण्डा सीमा पर गौर ब्लाक में बभनान के पास महुआडाबर नाम से एक नया गांव बसा दिया, जो अब भी आबाद है। सिर्फ इतना ही नहीं बस्ती के लोग भी इस महुआडाबर को भूल गए । मगर कलवारी थाना के पन्नों में ब्रिटिश शासन ने यह जरूर दर्ज किया कि इस गांव को दुबारा बसने न दिया जाए। गांव के अधिकतर लोग मारे गए और जो बचे वे अपनी जान बचाकर सैकड़ों किलोमीटर दूर गुजरात के अहमदाबाद, बड़ौदा और महाराष्ट्र के मालेगांव में जा बसे।

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