मुकरी (पहेली): Difference between revisions

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Revision as of 13:22, 10 January 2011

  • मुकरी लोकप्रचलित पहेलियों का ही एक रूप है, जिसका लक्ष्य मनोरंजन के साथ-साथ बुद्धिचातुरी की परीक्षा लेना होता है।
  • इसमें जो बातें कही जाती हैं, वे द्वयर्थक या श्लिष्ट होती है, पर उन दोनों अर्थों में से जो प्रधान होता है, उससे मुकरकर दूसरे अर्थ को उसी छन्द में स्वीकार किया जाता है, किन्तु यह स्वीकारोक्ति वास्तविक नहीं होती। अर्थात् पर बाद में उस कही हुई बात से मुकरकर उसकी जगह कोई दूसरी उपयुक्त बात बनाकर कह दी जाती है। जिससे सुननेवाला कुछ का कुछ समझने लगता है।
  • हिन्दी में अमीर खुसरो ने इस लोककाव्य-रूप को साहित्यिक रूप दिया।
  • अलंकार की दृष्टि से इसे छेकापह्नुति कर सकते हैं, क्योंकि इसमें प्रस्तुत अर्थ को अस्वीकार करके अप्रस्तुत को स्थापित किया जाता है।[1]
  • हिंदी में अमीर खुसरो की मुकरियाँ प्रसिद्ध हैं।
  • इसी को ‘कह-मुकरी’ भी कहते हैं।
  • अमीर ख़ुसरो ने मुकरी का एक बहुत जीवंत उदाहरण दिया है। उन्होंने कहा है—

सगरि रैन वह मो संग जागा।

भोर भई तब बिछुरन लागा।
वाके बिछरत फाटे हिया।

क्यों सखि साजन ना सखि दिया- खुसरो


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 'अपह्नुतिह' डॉ. शम्भुनाथ सिंह, गोवर्धन सराय, वाराणसी