होमी जहाँगीर भाभा: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
No edit summary |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
[[चित्र:Homi-Jehangir-Bhabha.jpg|thumb|डॉक्टर होमी जहाँगीर भाभा<br /> Dr. Homi Jehangir Bhabha]] | |||
'''डॉक्टर होमी जहाँगीर भाभा / Dr. Homi Jehangir Bhabha'''<br /> | '''डॉक्टर होमी जहाँगीर भाभा / Dr. Homi Jehangir Bhabha'''<br /> | ||
(October 30, 1909 – January 24, 1966)<br /> | (October 30, 1909 – January 24, 1966)<br /> |
Revision as of 09:55, 2 May 2010
thumb|डॉक्टर होमी जहाँगीर भाभा
Dr. Homi Jehangir Bhabha
डॉक्टर होमी जहाँगीर भाभा / Dr. Homi Jehangir Bhabha
(October 30, 1909 – January 24, 1966)
आज से करीब 50 साल पहले जब होमी जहाँगीर भाभा 29 वर्ष के थे और उपलब्धियों से भरे 13 वर्ष इंग्लैंड में बिता चुके थे। उस समय 'कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय' भौतिक शास्त्र के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ स्थान माना जाता था। वहाँ पर श्री भाभा केवल पढ़ाई ही नहीं बल्कि कार्य भी करने लगे थे। जब अनुसंधान के क्षेत्र में श्री भाभा के उपलब्धियों भरे वर्ष थे तभी स्वदेश लौटने का अवसर उन्हें मिला। श्री भाभा ने अपने वतन भारत में रहकर ही कार्य करने का निर्णय लिया। उनके मन में अपने देश में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में एक क्रांति लाने का जुनून था। यह डॉ. भाभा के प्रयासों का ही प्रतिफल है कि आज विश्व के सभी विकसित देश भारत के नाभिकीय वैज्ञानिकों की प्रतिभा एवं क्षमता का लोहा माना जाता है।
परिचय
होमी जहाँगीर भाभा का जन्म मुम्बई के एक सम्पन्न पारसी परिवार में 30 अक्टूबर 1909 को हुआ था। उनके पिता जे. एच. भाभा बंबई के एक प्रतिष्ठित बैरिस्टर थे। आज भारत में लगभग दो लाख पारसी हैं। ईसा की सातवीं शताब्दी में इस्लाम ने जब ईरान पर कब्जा कर लिया, तो अपने धर्म की रक्षा के लिए तमाम पारसी परिवार भागकर भारत आ गए थे। तब से ये भारत में ही हैं और भारत को ही अपना वतन मानते हैं। पारसी समाज ने बड़े योग्य व्यक्तियों को जन्म दिया है।
शिक्षा
डॉ. भाभा पढ़ाई में बचपन से ही बहुत तेज थे। 15 वर्ष की आयु में ही उन्होंने मुम्बई के एक हाईस्कूल से सीनियर कैम्ब्रिज की परीक्षा सम्मानपूर्वक पास की और बाद में उच्च शिक्षा के लिए 'कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय' गए। वहाँ भी उन्होंने अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया।
डॉ. भाभा जब कैम्ब्रिज में अध्ययन और अनुसंधान कार्य कर रहे थे और छुट्टियों में भारत आए हुए थे तभी सितम्बर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया। इस समय हिटलर पूरे यूरोप पर तेजी से कब्जा करता जा रहा था और इंग्लैंड पर हमला सुनिश्चित दिखाई दे रहा था। इंग्लैंड के अधिकांश वैज्ञानिक युद्ध के लिये सक्रिय हो गए और पूर्वी यूरोप में मौलिक अनुसंधान लगभग ठप्प हो गया। ऐसी परिस्थिति में इंग्लैंड जाकर अनुसंधान जारी रखना डॉ. भाभा के लिए संभव नहीं था। डॉ. भाभा के सामने यह प्रश्न था कि वे भारत में क्या करें? उनकी प्रखर प्रतिभा से परिचित कुछ विश्वविद्यालयों ने उन्हें अध्यापन कार्य के लिये आमंत्रित किया। अंततः डॉ. भाभा ने 'भारतीय विज्ञान संस्थान' (IISc) बैंगलोर को चुना जहाँ वे भौतिक शास्त्र विभाग के प्राध्यापक के पद पर रहे। यह उनके जीवन का महत्वपूर्ण परिवर्तन था। डॉ. भाभा को उनके कार्यों में सहायता के लिए 'सर दोराब जी टाटा ट्रस्ट' ने एक छोटी-सी राशि भी अनुमोदित की थी। डॉ. भाभा के लिए कैम्ब्रिज की तुलना में बैंगलोर में काम करना मुश्किल था। कैम्ब्रिज में वे सरलता से अपने वरिष्ठ लोगों से सम्बंध बना लेते थे परंतु बैंगलोर में यह उनके लिए चुनौतीपूर्ण था। उन्होंने अपना अनुसंधान कार्य जारी रखा और धीरे-धीरे भारतीय सहयोगियों से संपर्क भी बनाना शुरू किया। उन दिनों 'भारतीय विज्ञान संस्थान', बैंगलोर में 'सर सी. वी. रामन' भौतिक शास्त्र विभाग के प्रमुख थे। सर रमन ने डॉ. भाभा को शुरू से ही पसंद किया और डॉ. भाभा को 'फैलो आफ रायल सोसायटी' (FRS) में चयन हेतु मदद की।
वैज्ञानिक क्रांति के लिए प्रयत्न
बैंगलोर में डॉ. भाभा कॉस्मिक किरणों के हार्ड कम्पोनेंट पर उत्कृष्ट अनुसंधान कार्य कर रहे थे, किंतु वे देश में विज्ञान की उन्नति के बारे में बहुत चिंतित थे। उन्हें चिंता थी कि क्या भारत उस गति से उन्नति कर रहा है जिसकी उसे जरूरत है? देश में वैज्ञानिक क्रांति के लिए बैंगलोर का संस्थान पर्याप्त नहीं था। डॉ. भाभा ने नाभिकीय विज्ञान के क्षेत्र में विशिष्ट अनुसंधान के लिए एक अलग संस्थान बनाने का विचार बनाया और सर दोराब जी टाटा ट्रस्ट से मदद माँगी। यह सम्पूर्ण भारतवर्ष के लिए वैज्ञानिक चेतना एवं विकास का निर्णायक मोड़ था।
टाटा इंस्टीट्यूट आफ फंडामेंटल रिसर्च की स्थापना
- सन 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद दुनिया भर के वैज्ञानिक अपने अनुसंधानों को पूरा करने में जुट गए।
- 1 जून 1945 को डॉ. भाभा द्वारा प्रस्तावित 'टाटा इंस्टीट्यूट आफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR)' की एक छोटी-सी इकाई का श्रीगणेश हुआ।
- 6 महीने बाद ही भाभा जी ने इसे मुम्बई में स्थानांतरित करने का विचार किया। इस नए संस्थान के लिए इमारत की व्यवस्था की समस्या थी ? उस समय संस्थान के नाम पर 'टाटा ट्रस्ट' से 45,000 रूपये, महाराष्ट्र सरकार से 25,000 रूपये तथा भारत सरकार द्वारा 10,000 रूपये प्रतिवर्ष की धनराशि निर्धारित की गई थी।
- डॉ. भाभा ने पेडर रोड में 'केनिलवर्थ' की एक इमारत का आधा हिस्सा किराये पर लिया। यह इमारत उनकी चाची श्रीमती कुंवर पांड्या की थी। संयोगवश डॉ. भाभा का जन्म भी इसी इमारत में हुआ था। TIFR ने उस समय इस इमारत के किराए के रूप में हर महीने 200 रुपये देना तय किया था। उन दिनों यह संस्थान काफी छोटा था। कर्मचारियों के लिए चाय की दुकान संस्थान से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर थी। श्रीमती पांडया ने कर्मचारियों की चाय अपनी रसोई में ही बनाने की इजाजत दे दी। वह अपने प्रिय भतीजे डॉ. भाभा को अपने हाथों से चाय बनाकर पिलाया करतीं थीं। आज उस दो मंजिली पुरानी इमारत की जगह एक बहुमंजिली इमारत ने ले ली है, जो अब मुख्यतः 'भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र' के अधिकारियों का निवास स्थान है।
- यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि विश्व ने परमाणु ऊर्जा के स्वरूप द्वितीय विश्वयुद्ध में हिरोशिमा एवं नागासाकी शहरों पर बम गिरने पर जाना। लोगों के मन में डर बैठ गया कि परमाणु ऊर्जा और परमाणु बम एक ही हैं, किन्तु डॉ. भाभा ने परमाणु ऊर्जा के जनहित प्रयोग को पहले ही जान लिया था। डॉ. भाभा की दूरदर्शिता का ही परिणाम था कि स्वतंत्रता पूर्व ही उन्होंने नेहरू जी का ध्यान इस ओर आकर्षित कर लिया था कि स्वतंत्र भारत में किस तरह परमाणु ऊर्जा उपयोगी सिद्ध होगी।
केनिलवर्थ से गेटवे ऑफ इंडिया के पास
सन 1949 तक केनिलवर्थ का संस्थान छोटा पड़ने लगा। अतः इस संस्थान को प्रसिद्ध 'गेट वे ऑफ इंडिया' के पास एक इमारत में स्थानांतरित कर दिया गया, जो उस समय 'रायल बाम्बे यॉट क्लब' के अधीन थी। संस्थान का कुछ कार्य तब भी केनिलवर्थ में कई वर्षों तक चलता रहा। आज 'परमाणु ऊर्जा आयोग' का कार्यालय 'गेट वे ऑफ इंडिया' के पास इसी इमारत 'अणुशक्ति भवन' में कार्यरत है जो 'ओल्ड यॉट क्लब' (OYC) के नाम से जाना जाता है। संस्थान का कार्य इतनी तेजी से आगे बढ़ने लगा था कि 'ओल्ड यॉट क्लब' भी जल्दी ही छोटा पड़ने लगा। डॉ. भाभा पुनः स्थान की तलाश में लग गए। अब वह ऐसी जगह चाहते थे जहाँ संस्थान की स्थायी इमारत बनायी जा सके। डॉ॰ भाभा की नज़र कोलाबा के एक बहुत बड़े भूखंड पर पड़ी जिसका अधिकांश हिस्सा रक्षा मंत्रालय के अधीन था। कोलाबा का यह क्षेत्र करीब 25,000 वर्ग मीटर के क्षेत्रफल में फैला हुआ था। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय की अनेक छावनियों से घिरे इस इलाके के बीच एक अनुसंधान दल पहुँच गया।
वैज्ञानिक और प्रशासनिक जिम्मेदारियाँ
डॉ. भाभा ने अपनी वैज्ञानिक और प्रशासनिक जिम्मेदारियों के साथ-साथ TIFR की स्थायी इमारत की भी ज़िम्मेदारी उठायी। भाभा ने इसे विश्व के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में खड़ा करने का सपना देखा। उन्होंने अमेरिका के जाने-माने वास्तुकार को इसकी योजना बनाने के लिये आमंत्रित किया। इस इमारत का शिलान्यास 1954 में नेहरू जी ने किया। डॉ. भाभा ने इमारत निर्माण के हर पहलू पर बारीकी से ध्यान दिया। अंततः 1962 में इस इमारत का उद्घाटन नेहरू जी के कर कमलों द्वारा हुआ।
अकस्मात निधन
सन 1966 में डॉ. भाभा के अकस्मात निधन से देश को गहरा आघात पहुँचा। उनके द्वारा डाली गई मजबूत नींव के कारण ही उनके बाद भी देश में परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम अनवरत विकास के मार्ग पर अग्रसर है। डॉ. भाभा के उत्कृष्ट कार्यों के सम्मान स्वरूप तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी जी ने परमाणु ऊर्जा संस्थान, ट्रॉम्बे (AEET) को डॉ. भाभा के नाम पर 'भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र' नाम दिया। आज यह अनुसंधान केन्द्र भारत का गौरव है और विश्व-स्तर पर परमाणु ऊर्जा के विकास में पथप्रदर्शक हो रहा है।