ग्राम्या -सुमित्रानन्दन पंत: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
(''''ग्राम्या''' का प्रकाशन समय 1940 ई. है। [[सुमित्रानंदन पं...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
No edit summary
Line 41: Line 41:
{{cite book | last =धीरेंद्र| first =वर्मा| title =हिंदी साहित्य कोश| edition =| publisher =| location =| language =हिंदी| pages =163-165| chapter =भाग- 2 पर आधारित}}
{{cite book | last =धीरेंद्र| first =वर्मा| title =हिंदी साहित्य कोश| edition =| publisher =| location =| language =हिंदी| pages =163-165| chapter =भाग- 2 पर आधारित}}
==बाहरी कड़ियाँ==
==बाहरी कड़ियाँ==
==संबंधित लेख==


==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==

Revision as of 14:43, 13 October 2011

ग्राम्या का प्रकाशन समय 1940 ई. है। सुमित्रानंदन पंत की 53 कविताओं का संकलन है। उनके काव्य संकलनों में इसकी संख्या छठी है। 'युगवाणी' में पंत की संवेदना का चिंतन पक्ष या धारणा पक्ष सामने आता है। 'ग्राम्या' में सहानुभूति के माध्यम से पंत का चिंतन ग्रामीण जीवन के आवर्त्तों विवर्त्तों को छूना चाहता है। इस प्रकार 'युगवाणी' कवि की मार्क्सवादी चिंता का बौद्धिक पक्ष है तो 'ग्राम्या' काव्यात्मक और व्यावहारिक पक्ष। उसे हम युगवाणी की क्रियात्मक भूमिका भी कह सकते हैं। इस रचना के सम्बंध में स्वयं कवि ने निवेदन में लिखा है -

"इनमें पाठकों को ग्रामीणों के प्रति केवल बौद्धिक सहानुभूति ही मिल सकती है। ग्राम जीवन में मिलकर, उसके भीतर से, अवश्य नहीं लिखी गयी है। ग्रामों की वर्तमान दशा में वैसा करना केवल प्रतिक्रियात्मक साहित्य को जन्म देना होता।"

इस वक्तव्य से यह स्पष्ट है कि कवि ने अपनी सहानुभूति के पंख बाँध दिये हैं और उसकी उड़ान मर्यादित है। ग्राम्या के प्रगीतों में पंत का अभिव्यंजनसम्बंधी दृष्टिकोण 'वाणी' शीर्षक रचना से प्रकट हो जाता है, जिसमें वह चुनौती के स्वर में अपनी वाणी से सम्बोधित होता है-

"तुम वहन कर सको जन जन में मेरे विचार,
वाणी मेरी, चाहिए तुम्हें क्या अलंकार।"

'कवि किसान' शीर्षक रचना में उन्होंने कवि को युग का सांस्कृतिक नेता मानकर चेतना भूमि में चिर जीर्ण विगत की खाद डालने, उसे सम बनाने, बीज वपन करने और निराने का रूपक बाँधा है। यह नयी दृष्टि उसके कवि कर्म की नयी दिशा पर प्रकाश डालती है।

मानवता का चित्रण

परंतु अभिव्यंजना के क्षेत्र की यह नवीनता ही कवि का लक्ष्य नहीं है। लक्ष्य है धरती के समीप सिमटकर रहने वाली काली कुरूप और उच्छिष्ट मानवता का चित्रण। कवि ग्रामीण जीवन और संस्कारों को निर्ममता से देखता परखता है। वह उनके ऊपर रोमांस का झीना आवरण नहीं चढ़ाना चाहता। उसकी पहुँच बौद्धिक है, भाविक नहीं। इसी से उसने ग्राम को स्वर्ग के रूप में कल्पित नहीं किया है। उसका ग्राम कल्पना का ग्राम ना होकर यथार्थ ग्राम है जहाँ -

"यहाँ, खर्व नर, वानर रहते युग युग के अभिशापित।
अन्न, वस्त्र, पीड़ित असभ्य, निर्बुद्धि, पंक में पालित।
यह तो मानव लोक नहीं रे, यह है नरक अपरिचित।
यह भारत का ग्राम, सभ्यता, संस्कृति से निर्वासित।
झाड़ फूँक के विवर, यही क्या जीवन शिल्पी के घर?
कीड़ों से रेंगते कौन ये? बुद्धिप्राण नारी नर?
अकथनीय क्षुद्रता, विवशता भरी यहाँ के जग में।
गृह गृह में कलह, खेत में कलह, कलह है मग में।" - ग्रामचित्र

ग्रामीण जीवन

ग्रामीण जीवन की इस करुणा को कवि ने 'भारत ग्राम', ग्राम वधू, ग्राम देवता, वह बुड्ढा, गाँव के लड़के, वे आँखें, कठपुतले, ग्राम नारी आदि रचनाओं में बड़ी सहानुभूति से उतारा है। उसने विश्व को ग्रामीण नयनों से देखना चाहा है और ग्राम दृष्टि शीर्षक रचना में अपने इस नये दृष्टिकोण को उजागर भी किया है। इन रचनाओं में हम जीवन की कुरूपता और कठोरता का ऐसा चित्र पाते हैं जो हमें स्तम्भित कर देता है, विशेषत: 'वे आँखें' जैसी रचना में उभरता हुआ चित्र। ये आँखें स्वाधीन किसान की अभिमान भरी आँखें थीं, जिसके जीवन ने उससे छल किया। उसके लहराते खेत बेदखल हो गये, एकमात्र पुत्र भरी जवानी में कारकुनों की लाठी से मारा गया, महाजन ने बैलों की हृष्ट पुष्ट जोड़ी बिकवा दी, बिना दवा दारू के गृहणी चल बसी, दुधमुँही बिटिया दो दिन बाद मर गयी और अंत में विधवा पतोहू ने कोतवाल द्वारा बलात्‌ भ्रष्ट किए जाने पर कुँए में डूब्कर प्राण दे दिए। इन आँखों का अथाह नैराश्य, उनका दारुण दु:ख दैन्य और नीरव रोदन नागरी संस्कृति के लिए धिक्कार है। इस धिक्कार को दग्धाक्षरों में बाँध कर काव्य का रूप देना साधारण कार्य नहीं है, यद्यपि जीवन के इस कठोर वास्तविकता को काव्य के दर्पण में देखने के लिए समीक्षक तैयार नहीं थे।

मानव-भाव का संसार

एक अन्य प्रकार का ग्राम भी इन रचनाओं में उभरा है, कदाचित कवि के अनचाहे-यह सुन्दरता, उल्लास, नृत्य, पर्व, आभोद-प्रमोद और वर्ण संस्कारों आदि के भीतर से ही झाँकता हुआ उद्दाम मानव-भाव का संसार है। 'ग्रामयुवती', 'धोबियों का नृत्य', 'ग्राम-श्री', 'नहान', 'चमारों का नाच', 'कहारों का रुद्र-नृत्य' जैसी रचनाएँ इन नये ग्राम से भी हमारा परिचय कराती हैं। यह ग्राम जीवन की ऊर्जा से ओतप्रोत, कुसंकारों में आबद्ध, परंतु प्राण्वान मानव-चेतना से आन्दोलित सांस्कृतिक इकाई है। ग्रामीण जीवन के इस सौन्दर्य को उद्धाटित करने के लिए कवि को नयी भाषा शैली, नये छ्न्द, नयी दिशा में भी पूर्णत: सफल है। उसकी तूलिका वर्णन-कला में सिद्ध होती गयी है और ग्राम-जीवन की प्रतिनिधि ये रचनाएँ अनाविल सौन्दर्य और रेखा विरल चातुर्य से पूर्ण हैं परंतु बौद्धिकता से अनुशासित रहने पर भी इन रचनाओं में भारतीय जन-जीवन का अवचेतनीय सौन्दर्य असंख्य रंगों-रूपों में खिल पड़ा है।

केन्द्रीय रचनाएँ

संकलन की केन्द्रीय रचनाएँ दो हैं-

  1. 'भारत-माता', जो नवोदित भारत-राष्ट्र का जनवाद बन गयी है
  2. 'ग्राम-देवता', जिसमें कवि भारतीय जनवाद का समर्थक बनकर ग्राम- संस्कृति के प्रति अपना अभिवादन प्रकट करता है।
ग्राम-देवता की प्रशास्ति

नये मानवतावाद में जन-संस्कृति को समाविष्ट करने की लालसा इस रचना में परिव्याप्त है। ग्राम-देवता की यह प्रशास्ति व्यंगप्राण होकर भी नवयुग के लिए अशेष आशीष बन गयी है क्योंकि इसी से हमने ग्राम-भारत के यर्थाथ रूप को पहचान है। रचना का घरातल बौद्धिक है और उसमें कवि की अद्यतन चिंता की स्पष्ट झलक है परंतु उसकी सप्राणता उसमें पर्याप्त भावुकता का संचार कर देती है। नि:स्न्देह यह रचना 'ग्राम्य' का शीर्ष है।

प्रौढ़ चिंतन और चित्रण

अन्य संकलनों की शाँति 'ग्राम्य' में प्रकृति-पटकों खुली आँखों और विरल रंगरेखाओं से उतारते हैं। अधिकाँश रचनाओं में प्रकृति पृष्ठभूमि बनकर आयी है परंतु उसने ग्राम- शोभा में वृद्धि ही की है। 'सन्ध्या के बाद', 'दिवास्वप्न', 'खिड़की से' जैसी रचनाएँ हमें कवि की परिचित मनोभूमि की झाँकी देती हैं यद्यपि प्रौढ़ता के साथ चिंतन और चित्रण के क्षेत्र में काफी परिवर्तन भी हुआ है, जो विकाससमान कलाकार के अनुरूप ही कहा जा सकता है।

आधुनिक नारी का चित्रण

अंतिम श्रेणी ऐसी कविताओं की है, जिसमें कवि ने आधुनिक नारी को चित्रित किया है और उसके अस्वाभाविक जीवनदर्शन तथा क्रियाकलाप के प्रति लज्जा प्रकट की है। 'आधुनिका', 'नारी', 'स्वीट पीके प्रति', 'द्वन्द्व प्रणय' जैसी रचनाओं में कवि ग्रामीण और श्रमिक नारी के स्वरूप प्रणय के समकक्ष अभिजाती प्रेम की कृत्रिमता और आत्महीनता को उभारकर रख देता है। यह उसके चिंतन की नयी दिशा है जो बाद में उसकी सांस्कृतिक विचारधारा का महत्त्वपूर्ण अंग बन गयी है। इन कविताओं का रचनाकाल द्वितीय महायुद्ध की विभीषिका से त्रस्त था। अत: पंत का काव्यचिंतन जनजीवन की ओर मुड़ा और उन्होंने हिंसा-अहिंसा के द्वन्द्व से ऊपर उठकर तरुण शक्ति को ग्रामों की ओर ललकारा, शीर्षक कविता में उसका वह स्वर स्पष्ट है - "बन्धन बन रही अहिंसा आज जनों के हित"।



पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ


धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 2 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 163-165।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख