कावर पक्षी अभयारण्य: Difference between revisions

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दुख की बात है कि राज्य सरकार ने आज तक इस झील के विकास व रखरखाव के नाम पर कुछ भी नहीं किया है। झील पर आने वाली प्रवासी पक्षियों को हजारों की संख्या में मारा जाता है। विगत कुछ वर्षों से झील में जल संकट गहराता जा रहा है। गर्मियों में तो यह बिल्कुल सूख जाती है। इसका कारण है, पर्याप्त पानी झील में न इकट्ठा होना। बरसाती पानी बहकर नालों के जरिए पहले झील में गिरता था, परंतु अब इन नालों में गाद भर जाने से पानी झील तक नहीं पहंच पाता है। बाढ़ में आसपास की मिट्टी झील में आने से भी इसकी गहराई कम हो रही है। समय रहते यदि झील को बचाने के लिए प्रयास नहीं किए गए तो आने वाली पीढ़िया इस झील का केवल नाम ही सुन पाएंगी। यदि सरकार के पास भविष्य की दृष्टि हो तो वह इस झील को फिर से एक नया जीवन दे सकती है।
दुख की बात है कि राज्य सरकार ने आज तक इस झील के विकास व रखरखाव के नाम पर कुछ भी नहीं किया है। झील पर आने वाली प्रवासी पक्षियों को हजारों की संख्या में मारा जाता है। विगत कुछ वर्षों से झील में जल संकट गहराता जा रहा है। गर्मियों में तो यह बिल्कुल सूख जाती है। इसका कारण है, पर्याप्त पानी झील में न इकट्ठा होना। बरसाती पानी बहकर नालों के जरिए पहले झील में गिरता था, परंतु अब इन नालों में गाद भर जाने से पानी झील तक नहीं पहंच पाता है। बाढ़ में आसपास की मिट्टी झील में आने से भी इसकी गहराई कम हो रही है। समय रहते यदि झील को बचाने के लिए प्रयास नहीं किए गए तो आने वाली पीढ़िया इस झील का केवल नाम ही सुन पाएंगी। यदि सरकार के पास भविष्य की दृष्टि हो तो वह इस झील को फिर से एक नया जीवन दे सकती है।


 
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कावर झील एशिया का सबसे बड़ी शुद्ध जल (वेट लैंड एरिया) की झील है और यह पक्षी अभयारण्य (बर्ड संचुरी) भी है। इस झील को पक्षी विहार का दर्जा सन 1984 में बिहार सरकार ने दिया था। यह झील 42 वर्ग कि.मी. (6311 हेक्टेयर क्षेत्र) के क्षेत्रफल में फैले है। इस बर्ड संचुरी मे 59 तरह के विदेशी पक्षी और 107 तरह के देसी पक्षी ठंडे के मौसम मे देखे जा सकते है। यह बिहार राज्य के बेगूसराय के मंझौल में है। पुरातत्वीय महत्व का बौद्धकालीन हरसाइन स्तूप इसी क्षेत्र में स्थित है।

कावर झील लुप्त होती

बिहार के बेगूसराय स्थित ‘कावर झील’ को प्रकृति ने एक अमूल्य धरोहर के रूप में हमें प्रदान किया था लेकिन आज यह झील लुप्त हो रही है। बुजुर्ग कहते हैं, ‘बारह कोस बरैला, चौदह कोस कबरैला’, अर्थात् एक समय था कि बरैला की झील बारह कोस अर्थात 36 वर्ग किमी में और कबरैला झील चौदह कोस में अर्थात 42 वर्ग कि.मी. के क्षेत्र में फैली हुई थी।

इस झील से उत्तरी बिहार का एक बड़ा हिस्सा कई प्रकार से लाभान्वित होता था। ऊपरी जमीन पर गन्ने, मक्का, जौ आदि की फसलें काफी अच्छी पैदावार देती थीं। हजारों मल्लाह इस झील से मछली पकड़ कर अपना जीवन यापन करते थे। झील के चारों ओर के करीब 50 गांव के मवेशी पालक मवेशियों को यहां की घास खिलाकर हमेशा दुग्ध उत्पादन में आगे रहते थे। ग्रामीण लोग झील की ‘लड़कट’ (एक प्रकार की घास) से अपना घर बनाया करते थे। यह काम आज भी होता है। दिलचस्प बात यह है कि इस झील में एक से बढ़कर एक विषधर सर्प भी रहा करते थे लेकिन आज तक कोई भी व्यक्ति यहां सांप के काटने से नहीं मरा। इसके पीछे एक देवी ‘जयमंगला’ की शक्ति बताई जाती है जो विष को भी अमृत बना देती हैं। झील के साथ ही मां जयमंगला का मंदिर है जहां आज भी एक बहुत बड़ा मेला लगता है।

लेकिन झील की ये सब बातें केवल बातें ही रह गई हैं। कुछ साल से तो इस झील में घुटने भर भी पानी नहीं रहता। जहां पहले हजारों मछुआरे इस झील से अपना जीवनयापन करते थे वहीं अब इस झील से दस-बीस मछुआरों का भी जीवनयापन नहीं होता। 42 वर्ग कि.मी. के क्षेत्रफल वाली यह झील 6 जुलाई को एक कि.मी. के दायरे में सिमट कर रह गई थी। जहां सालभर खिले कमल झील की शोभा बढ़ाते थे वहां आज एक भी कमल नहीं दिखता।

दुख की बात है कि राज्य सरकार ने आज तक इस झील के विकास व रखरखाव के नाम पर कुछ भी नहीं किया है। झील पर आने वाली प्रवासी पक्षियों को हजारों की संख्या में मारा जाता है। विगत कुछ वर्षों से झील में जल संकट गहराता जा रहा है। गर्मियों में तो यह बिल्कुल सूख जाती है। इसका कारण है, पर्याप्त पानी झील में न इकट्ठा होना। बरसाती पानी बहकर नालों के जरिए पहले झील में गिरता था, परंतु अब इन नालों में गाद भर जाने से पानी झील तक नहीं पहंच पाता है। बाढ़ में आसपास की मिट्टी झील में आने से भी इसकी गहराई कम हो रही है। समय रहते यदि झील को बचाने के लिए प्रयास नहीं किए गए तो आने वाली पीढ़िया इस झील का केवल नाम ही सुन पाएंगी। यदि सरकार के पास भविष्य की दृष्टि हो तो वह इस झील को फिर से एक नया जीवन दे सकती है।


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