चाणक्य नीति- अध्याय 6: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
('{{पुनरीक्षण}} ----- ===अध्याय 6=== ----- ;दोहा-- <blockquote><span style="color: blue"><poem> स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
No edit summary
Line 1: Line 1:
{{पुनरीक्षण}}
{{विपरीत मानक}}
-----
-----
===अध्याय 6===
===अध्याय 6===

Revision as of 12:28, 30 December 2011

चित्र:Warning-sign.gif
इस लेख का किसी अन्य वेबसाइट अथवा ब्लॉग से पूरा प्रतिलिपि कर बनाये जाने का प्रमाण मिला है। इसलिए इस पन्ने की सामग्री हटाई जा सकती है। सदस्यों को चाहिये कि वे भारतकोश के मानकों के अनुरूप ही पन्ना बनाएँ। यह लेख शीघ्र ही पुन: निर्मित किया जाएगाआप इसमें सहायता कर सकते हैं



अध्याय 6


दोहा--

सुनिकै जानै धर्म को, सुनि दुर्बुधि तजि देत ।
सुनिके पावत ज्ञानहू, सुनहुँ मोक्षपद लेत ॥१॥

मनुष्य किसी से सुनकर ही धर्म का तत्व समझता है । सुनकर ही दुर्बुध्दि को त्यागता है । सुनकर ही ज्ञान प्राप्त करता है और सुनकर ही मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है ॥१॥


दोहा--

वायस पक्षिन पशुन महँ, श्वान अहै चंडाल ।
मुनियन में जेहि पाप उर, सबमें निन्दक काल ॥२॥

पक्षियों में चाण्डाल है कौआ, पशुओं में चाण्डाल कुत्ता, मुनियों में चाण्डाल है पाप और सबसे बडा चाण्डाल है निन्दक ॥२॥


दोहा--

काँस होत शुचि भस्म ते, ताम्र खटाई धोइ ।
रजोधर्म ते नारि शुचि, नदी वेग ते होइ ॥३॥

राख से काँसे का बर्तन साफ होता है, खटाई से ताँबा साफ होता है, रजोधर्म से स्त्री शुध्द होती है और वेग से नदी शुध्द होती है ॥३॥


दोहा--

पूजे जाते भ्रमण से, द्विज योगी औ भूप ।
भ्रमण किये नारी नशै, ऎसी नीति अनूप ॥४॥

भ्रमण करनेवाला राजा पूजा जाता है, भ्रमण करता हुआ ब्राह्मण भी पूजा जाता है और भ्रमण करता हुआ योगी पूजा जाता है, किन्तु स्त्री भ्रमण करने से नष्ट हो जाती है ॥४॥


दोहा--

मित्र और है बन्धु तेहि, सोइ पुरुष गण जात ।
धन है जाके पास में, पण्डित सोइ कहात ॥५॥

जिसके पास धन है उसके बहुत से मित्र हैं, जिसके पास धन है उसके बहुत से बान्धव हैं । जिसके पास धन है वही संसार का श्रेष्ठ पुरुष है और जिसके पास धन है वही पण्डित है ॥५॥


दोहा--

तैसोई मति होत है, तैसोई व्यवसाय ।
होनहार जैसी रहै, तैसोइ मिलत सहाय ॥६॥

जैसा होनहार होता है, उसी तरह की बुध्दि हो जाती है, वैसा ही कार्य होता है और सहायक भी उसी तरह के मिल जाते हैं ॥६॥


दोहा--

काल पचावत जीव सब, करत प्रजन संहार ।
सबके सोयउ जागियतु, काल टरै नहिं टार ॥७॥

काल सब प्राणियों को हजम किए जाता है । काल प्रजा का संहार करता है, लोगों के सो जाने पर भी वह जागता रहता है । तात्पर्य यह कि काल को कोई टाल नहीं सकता ॥७॥


दोहा--

जन्म अन्ध देखै नहीं, काम अन्ध नहिं जान ।
तैसोई मद अन्ध है, अर्थी दोष न मान ॥८॥

न जन्म का अन्धा देखता है, न कामान्ध कुछ देख पाता है और न उन्मत्त पुरुष ही कोछ देख पाता है । उसी तरह स्वार्थी मनुष्य किसी बात में दोष नहीं देख पाता ॥८॥


दोहा--

जीव कर्म आपै करै, भोगत फलहू आप ।
आप भ्रमत संसार में, मुक्ति लहत है आप ॥९॥

जीव स्वयं कर्म करता है और स्वयं उसका शुभाशुभ फल भोगता है । वह स्वयं संसार में चक्कर खाता है और समय पाकर स्वयं छुटकारा भी पा जाता है ॥९॥


दोहा--

प्रजापाप नृप भोगियत, प्रेरित नृप को पाप ।
तिय पातक पति शिष्य को, गुरु भोगत है आप ॥१०॥

राज्य के पाप को राजा, राजाका पाप पुरोहित, स्त्रीका पाप पति और शिष्य के द्वारा किये हुए पाप को गुरु भोगता है ॥१०॥


दोहा--

ऋणकर्ता पितु शत्रु, पर-पुरुषगामिनी मत ।
रूपवती तिय शत्रु है, पुत्र अपंडित जात ॥११॥

ऋण करनेवाले पिता, व्याभिचारिणी माता, रूपवती स्त्री और मूर्ख पुत्र, ये मानवजातिके शत्रु हैं ॥११॥


दोहा--

धनसे लोभी वश करै, गर्विहिं जोरि स्वपान ।
मूरख के अनुसरि चले, बुध जन सत्य कहान ॥१२॥

लालचीको धनसे, घमएडी को हाथ जोडकर, मूर्ख को उसके मनवाली करके और यथार्थ बात से पण्डित को वश में करे ॥१२॥


दोहा--

नहिं कुराज बिनु राज भल, त्यों कुमीतहू मीत ।
शिष्य बिना बरु है भलो, त्यों कुदार कहु नीत ॥१३॥

राज्य ही न हो तो अच्छा, पर कुराज्य अच्छा नहीं । मित्र ही न हो तो अच्छा, पर कुमित्र होना ठीक नहीं । शिष्य ही न हो तो अच्छा, पर कुशिष्य का होना अच्छा नहीं । स्त्री ही न हो तो ठीक है, पर खराब स्त्री होना अच्छा नहीं ॥१३॥


दोहा--

सुख कहँ प्रजा कुराजतें, मित्र कुमित्र न प्रेय ।
कहँ कुदारतें गेह सुख, कहँ कुशिष्य यश देय ॥१४॥

बदमाश राजा के राज में प्रजा को सुख क्योंकर मिल सकता है । दुष्ट मित्र से भला हृदय्कब आनन्दित होगा । दुष्ट स्त्री के रहने पर घर कैसे अच्छा लगेगा और दुष्ट शिष्य को पढा कर यश क्यों कर प्राप्त हो सकेगा ॥१४॥


दोहा--

एक सिंह एक बकन से, अरु मुर्गा तें चारि ।
काक पंच षट् स्वान तें, गर्दभ तें गुन तारि ॥१५॥

सिंह से एक गुण, बगुले से एक गुण, मुर्गे से चार गुण, कौए से पाँच गुण, कुत्ते से छ गुण और गधे से तीन गुण ग्रहण करना चाहिए ॥१५॥


दोहा--

अति उन्नत कारज कछू, किय चाहत नर कोय ।
करै अनन्त प्रयत्न तैं, गहत सिंह गुण सोय ॥१६॥

मनुष्य कितना ही बडा काम क्यों न करना चाहता हो, उसे चाहिए कि सारी शक्ति लगा कर वह काम करे । यह गुण सिंह से ले ॥१६॥


दोहा--

देशकाल बल जानिके, गहि इन्द्रिय को ग्राम ।
बस जैसे पण्डित पुरुष, कारज करहिं समान ॥१७॥

समझदार मनुष्य को चाहिए कि वह बगुले की तरह चारों ओर से इन्द्रियों को समेटकर और देश काल के अनुसार अपना बल देख कर सब कार्य साधे ॥१७॥


दोहा--

प्रथम उठै रण में जुरै, बन्धु विभागहिं देत ।
स्वोपार्जित भोजन करै, कुक्कुट गुन चहुँ लेत ॥१८॥

ठीक समय से जागना, लडना, बन्धुओंके हिस्से का बटवारा और छीन झपट कर भोजन कर लेना, ये चार बातें मुर्गे से सीखे ॥१८॥


दोहा--

अधिक ढीठ अरु गूढ रति, समय सुआलय संच ।
नहिं विश्वास प्रमाद जेहि, गहु वायस गुन पंच ॥१९॥

एकान्त में स्त्री का संग करना , समय-समय पर कुछ संग्रह करते रहना, हमेशा चौकस रहना और किसी पर विश्वास न करना, ढीठ रहना, ये पाँच गुण कौए से सीखना चाहिए ॥१९॥


दोहा--

बहु मुख थोरेहु तोष अति, सोवहि शीघ्र जगात ।
स्वामिभक्त बड बीरता, षट्गुन स्वाननहात ॥२०॥

अधिक भूख रहते भी थोडे में सन्तुष्ट रहना, सोते समय होश ठीक रखना, हल्की नींद सोना, स्वामिभक्ति और बहादुरी-- ये गुण कुत्ते से सीखना चाहिये ॥२०॥


दोहा--

भार बहुत ताकत नहीं, शीत उष्ण सम जाहि ।
हिये अधिक सन्तोष गुन, गरदभ तीनि गहाहि ॥२१॥

भरपूर थकावट रहनेपर भी बोभ्का ढोना, सर्दी गर्मी की परवाह न करना, सदा सन्तोष रखकर जीवनयापन करना, ये तीन गुण गधा से सीखना चाहिए ॥२१॥


दोहा--

विंशति सीख विचारि यह, जो नर उर धारंत ।
सो सब नर जीवित अबसि, जय यश जगत लहंत ॥२२॥

जो मनुष्य ऊपर गिनाये बीसों गुणों को अपना लेगा और उसके अनुसार चलेगा, वह सभी कार्य में अजेय रहेगा ॥२२॥


इति चाणक्ये षष्ठोऽध्यायः ॥६॥

चाणक्यनीति - अध्याय 7




पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ


बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख