आत्मानुभूति तथा उसके मार्ग -स्वामी विवेकानन्द: Difference between revisions
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इसके बाद है ‘तितिक्षा’। तत्वज्ञान बनना जरा टेढ़ी ही खीर है ! ‘तितिक्षा’ सब से कठिन है। कहा जा सकता है कि आदर्श सहनशीलता और तितिक्षा एक ही हैं। आदर्श सहनशीलता का अर्थ है—‘अशुभ का प्रतिकार न करो’ इसका अर्थ जरा स्पष्ट करने की आवश्यकता है। आये हुए दुःख का शायद हम प्रतिकार न करें, किन्तु हो सकता है कि साथ ही साथ हम दुःखी भी हो जायँ। यदि कोई मनुष्य मुझे कड़ी बात सुना दे, तो सम्भव है, ऊपर से मैं उसका तिरस्कार न करूँ; शायद उसे प्रत्युत्तर भी न दूँ और बाहर क्रोध न प्रकट होने दूँ, लेकिन मेरे मन में उसके प्रति तिरस्कार या गुस्सा मौजूद रह सकता है। हो सकता है कि उस मनुष्य के बारे में मैं मन-ही-मन अत्यन्त बुरा सोचता रहूँ।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid= | इसके बाद है ‘तितिक्षा’। तत्वज्ञान बनना जरा टेढ़ी ही खीर है ! ‘तितिक्षा’ सब से कठिन है। कहा जा सकता है कि आदर्श सहनशीलता और तितिक्षा एक ही हैं। आदर्श सहनशीलता का अर्थ है—‘अशुभ का प्रतिकार न करो’ इसका अर्थ जरा स्पष्ट करने की आवश्यकता है। आये हुए दुःख का शायद हम प्रतिकार न करें, किन्तु हो सकता है कि साथ ही साथ हम दुःखी भी हो जायँ। यदि कोई मनुष्य मुझे कड़ी बात सुना दे, तो सम्भव है, ऊपर से मैं उसका तिरस्कार न करूँ; शायद उसे प्रत्युत्तर भी न दूँ और बाहर क्रोध न प्रकट होने दूँ, लेकिन मेरे मन में उसके प्रति तिरस्कार या गुस्सा मौजूद रह सकता है। हो सकता है कि उस मनुष्य के बारे में मैं मन-ही-मन अत्यन्त बुरा सोचता रहूँ।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=5915 |title=आत्मानुभूति तथा उसके मार्ग|accessmonthday=19 जनवरी |accessyear=2014 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= भारतीय साहित्य संग्रह|language=हिंदी }} </ref> | ||
Revision as of 09:37, 19 January 2014
आत्मानुभूति तथा उसके मार्ग -स्वामी विवेकानन्द
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लेखक | स्वामी विवेकानन्द |
मूल शीर्षक | आत्मानुभूति तथा उसके मार्ग |
अनुवादक | श्री मधुसूदन |
प्रकाशक | रामकृष्ण मठ |
प्रकाशन तिथि | 1 जनवरी, 2005 |
देश | भारत |
भाषा | हिंदी |
विषय | दर्शन |
मुखपृष्ठ रचना | अजिल्द |
विशेष | यह पुस्तक स्वामी विवेकानन्द जी के आत्मानुभूति के सम्बन्ध में दिये गये सात भाषणों का संग्रह है। |
आत्मानुभूति तथा उसके मार्ग स्वामी विवेकानंद द्वारा रचित पुस्तक है। यह पुस्तक स्वामी विवेकानन्दजी के आत्मानुभूति के सम्बन्ध में दिये गये सात भाषणों का संग्रह है। स्वामामीजी ने इन भाषणों में अपने मौलिक ढंग द्वारा आत्मदर्शन के मार्ग की कठिनाइयों का विशद वर्णन करते हुए उनको दूर करने का उपाय बतलाया है तथा आत्म-साक्षात्कार की महिमा एवं मानव-जीवन में उसकी उपादेयता मर्मस्पर्शी भाषा में दिग्दर्शित की है। समस्त संसार सुख की खोज में लगा हुआ है। सुखप्राप्ति की आशा ही जीवन के प्रत्येक कार्य को परिचालित करती है। पर वह सुख यथार्थतः किसमें है और हम उसे कैसे पायें—इसका रहस्योद्घाटन स्वामीजी के इन भाषणों में मिलता है अतएव, हमारा यह पूर्ण विश्वास है कि प्रस्तुत पुस्तक कंटकाकीर्ण, तमसाच्छादित जीवन-पथ पर उलझे और भटके हुए लोगों के लिए प्रकाशस्वरूप सिद्ध होगी।
पुस्तक के कुछ अंश
ज्ञानयोग का अधिकारी बनने के लिए मनुष्य को पहले ‘शम’ और ‘दम’ में अपनी गति कर लेनी चाहिए। दोनों में गति एक साथ ही की जा सकती है। इन्द्रियों को उनके केन्द्र में स्थिर करना और उन्हें बहिर्मुख न होने देने का नाम है ‘शम’ तथा ‘दम’। अब मैं तुम्हें ‘इन्द्रिय’ शब्द का अर्थ समझाता हूँ। देखो, ये तुम्हारी आंखें हैं, लेकिन ये दर्शनेन्द्रिय नहीं हैं। ये तो केवल देखने का साधन मात्र हैं। जिसे दर्शनेन्द्रिय कहते हैं, वह यदि मुझमें न हो तो बाहरी आँखें होने पर भी मुझे कुछ दिखायी न देगा। अब मान लो कि देखने का साधन ये बाहरी आँखें मुझमें हैं और दर्शनेन्द्रिय भी मौजूद है, लेकिन मेरा मन उनमें नहीं लगा है, ऐसी दशा में मुझे कुछ नहीं दिख सकेगा। इसलिए यह स्पष्ट है कि किसी भी वस्तु के ज्ञान के लिए तीन बातें आवश्यक हैं। वे हैं
- साधनभूत बहिरिन्द्रिय-जैसे आँख, कान, नाक इत्यादि,
- दर्शनक्षम अन्तरिन्द्रिय और
- अन्त में मन।
इन तीनों में से अगर एक भी विद्यमान न हुई तो वस्तु का ज्ञान न होगा। इस प्रकार मन की क्रिया बाह्य तथा आन्तर इन दो साधनों द्वारा हुआ करती है।
इसके बाद है ‘तितिक्षा’। तत्वज्ञान बनना जरा टेढ़ी ही खीर है ! ‘तितिक्षा’ सब से कठिन है। कहा जा सकता है कि आदर्श सहनशीलता और तितिक्षा एक ही हैं। आदर्श सहनशीलता का अर्थ है—‘अशुभ का प्रतिकार न करो’ इसका अर्थ जरा स्पष्ट करने की आवश्यकता है। आये हुए दुःख का शायद हम प्रतिकार न करें, किन्तु हो सकता है कि साथ ही साथ हम दुःखी भी हो जायँ। यदि कोई मनुष्य मुझे कड़ी बात सुना दे, तो सम्भव है, ऊपर से मैं उसका तिरस्कार न करूँ; शायद उसे प्रत्युत्तर भी न दूँ और बाहर क्रोध न प्रकट होने दूँ, लेकिन मेरे मन में उसके प्रति तिरस्कार या गुस्सा मौजूद रह सकता है। हो सकता है कि उस मनुष्य के बारे में मैं मन-ही-मन अत्यन्त बुरा सोचता रहूँ।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आत्मानुभूति तथा उसके मार्ग (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 19 जनवरी, 2014।
बाहरी कड़ियाँ
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