वेताल पच्चीसी सोलह: Difference between revisions
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इसके बाद गरुड़ आया और उसे चोंच में पकड़कर उड़ा ले गया। संयोग से राजकुमार का बाजूबंद गिर पड़ा, जिस पर राजा का नाम खुदा था। उस पर | इसके बाद गरुड़ आया और उसे चोंच में पकड़कर उड़ा ले गया। संयोग से राजकुमार का बाजूबंद गिर पड़ा, जिस पर राजा का नाम खुदा था। उस पर ख़ून लगा था। राजकुमारी ने उसे देखा। वह मूर्च्छित हो गयी। होश आने पर उसने राजा और रानी को सब हाल सुनाया। वे बड़े दु:खी हुए और जीमूतवाहन को खोजने निकले। तभी उन्हें शंखचूड़ मिला। | ||
''उसने गरुड़ को पुकार कर कहा:'' हे गरुड़! तू इसे छोड़ दे। बारी तो मेरी थी। | ''उसने गरुड़ को पुकार कर कहा:'' हे गरुड़! तू इसे छोड़ दे। बारी तो मेरी थी। |
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वेताल पच्चीसी पच्चीस कथाओं से युक्त एक लोककथा ग्रन्थ संग्रह है। ये कथायें राजा विक्रम की न्याय-शक्ति का बोध कराती हैं। वेताल प्रतिदिन एक कहानी सुनाता है और अन्त में राजा से ऐसा प्रश्न कर देता है कि राजा को उसका उत्तर देना ही पड़ता है। उसने शर्त लगा रखी है कि अगर राजा बोलेगा तो वह उससे रूठकर फिर से पेड़ पर जा लटकेगा। लेकिन यह जानते हुए भी सवाल सामने आने पर राजा से चुप नहीं रहा जाता।
सोलहवीं कहानी
हिमालय पर्वत पर गंधर्वों का एक नगर था, जिसमें जीमूतकेतु नामक राजा राज करता था। उसके एक लड़का था, जिसका नाम जीमूतवाहन था। बाप-बेटे दोनों भले थे। धर्म-कर्म मे लगे रहते थे। इससे प्रजा के लोग बहुत स्वच्छन्द हो गये और एक दिन उन्होंने राजा के महल को घेर लिया। राजकुमार ने यह देखा तो पिता से कहा कि आप चिन्ता न करें। मैं सबको मार भगाऊँगा।
राजा बोला: नहीं, ऐसा मत करो। युधिष्ठिर भी महाभारत करके पछताये थे।
इसके बाद राजा अपने गोत्र के लोगों को राज्य सौंप राजकुमार के साथ मलयाचल पर जाकर मढ़ी बनाकर रहने लगा। वहाँ जीमूतवाहन की एक ऋषि के बेटे से दोस्ती हो गयी। एक दिन दोनों पर्वत पर भवानी के मन्दिर में गये तो दैवयोग से उन्हें मलयकेतु राजा की पुत्री मिली। दोनों एक-दूसरे पर मोहित हो गये। जब कन्या के पिता को मालूम हुआ तो उसने अपनी बेटी उसे ब्याह दी।
एक रोज़ की बात है कि जीमूतवाहन को पहाड़ पर एक सफ़ेद ढेर दिखाई दिया। पूछा तो मालूम हुआ कि पाताल से बहुत-से नाग आते हैं, जिन्हें गरुड़ खा लेता है। यह ढेर उन्हीं की हड्डियों का है। उसे देखकर जीमूतवाहन आगे बढ़ गया। कुछ दूर जाने पर उसे किसी के रोने की आवाज़ सुनाई दी। पास गया तो देखा कि एक बुढ़िया रो रही है। कारण पूछा तो उसने बताया कि आज उसके बेटे शंखचूड़ नाग की बारी है। उसे गरुड़ आकर खा जायेगा।
जीमूतवाहन ने कहा: माँ, तुम चिन्ता न करो, मैं उसकी जगह चला जाऊँगा। बुढ़िया ने बहुत समझाया, पर वह न माना।
इसके बाद गरुड़ आया और उसे चोंच में पकड़कर उड़ा ले गया। संयोग से राजकुमार का बाजूबंद गिर पड़ा, जिस पर राजा का नाम खुदा था। उस पर ख़ून लगा था। राजकुमारी ने उसे देखा। वह मूर्च्छित हो गयी। होश आने पर उसने राजा और रानी को सब हाल सुनाया। वे बड़े दु:खी हुए और जीमूतवाहन को खोजने निकले। तभी उन्हें शंखचूड़ मिला।
उसने गरुड़ को पुकार कर कहा: हे गरुड़! तू इसे छोड़ दे। बारी तो मेरी थी।
गरुड़ ने राजकुमार से पूछा: तू अपनी जान क्यों दे रहा है?
उसने कहा: उत्तम पुरुष को हमेशा दूसरों की मदद करनी चाहिए।
यह सुनकर गरुड़ बहुत खुश हुआ उसने राजकुमार से वर माँगने को कहा। जीमूतवाहन ने अनुरोध किया कि सब साँपों को ज़िन्दा कर दो। गरुड़ ने ऐसा ही किया।
फिर उसने कहा: तुझे अपना राज्य भी मिल जायेगा।
इसके बाद वे लोग अपने नगर को लौट आये। लोगों ने राजा को फिर गद्दी पर बिठा दिया।
इतना कहकर वेताल बोला: हे राजन् यह बताओ, इसमें सबसे बड़ा काम किसने किया?
राजा ने कहा: शंखचूड़ ने?
वेताल ने पूछा: कैसे?
राजा बोला: जीमूतवाहन जाति का क्षत्रीय था। प्राण देने का उसे अभ्यास था। लेकिन बड़ा काम तो शंखचूड़ ने किया, जो अभ्यास न होते हुए भी जीमूतवाहन को बचाने के लिए अपनी जान देने को तैयार हो गया।
इतना सुनकर वेताल फिर पेड़ पर जा लटका। राजा उसे लाया तो उसने फिर एक कहानी सुनायी।
- आगे पढ़ने के लिए वेताल पच्चीसी सत्तरह पर जाएँ
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