बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय-2 ब्राह्मण-5: Difference between revisions
Jump to navigation
Jump to search
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "Category:उपनिषद" to "Category:उपनिषदCategory:संस्कृत साहित्य") |
गोविन्द राम (talk | contribs) No edit summary |
||
Line 15: | Line 15: | ||
{{लेख प्रगति|आधार= | |||
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | |||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{बृहदारण्यकोपनिषद}} | {{बृहदारण्यकोपनिषद}} | ||
[[Category:बृहदारण्यकोपनिषद]] | [[Category:बृहदारण्यकोपनिषद]][[Category:हिन्दू दर्शन]] | ||
[[Category:दर्शन | [[Category:उपनिषद]][[Category:संस्कृत साहित्य]] [[Category:दर्शन कोश]] | ||
[[Category:उपनिषद]][[Category:संस्कृत साहित्य]] | |||
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
__NOTOC__ |
Revision as of 10:10, 3 August 2014
- बृहदारण्यकोपनिषद के अध्याय द्वितीय का यह पांचवाँ ब्राह्मण है।
- REDIRECTसाँचा:मुख्य
- इस ब्राह्मण में 'मधुविद्या, 'अर्थात' आत्मविद्या' का वर्णन है।
- इस मधुविद्या का उपदेश ऋषि आथर्वण दध्यंग ने सर्वप्रथम अश्विनीकुमारों को दिया था। मन्त्र दृष्ट ने कहा कि परब्रह्म ने सर्वप्रथम दो पैर वाले और चार पैर वाले शरीरों का निर्माण किया था।
- उसके पश्चात वह विराट पुरुष उन शरीरों में प्रविष्ट हो गया।
- उसने कहा कि शरीरधारी को उसके यथार्थ रूप में प्रकट करने के लिए वह पुरुष शरीरधारी के प्रतिरूप जल, वायु, आकाश आदि की भांति हो जाता है।
- वह परमात्मा एक होते हुए भी माया के कारण अनेक रूपों वाला प्रतिभासित होता है।
- वस्तुत: समस्त विषयों का अनुभव करने वाला 'आत्मा' ही 'ब्रह्मरूप' है।
- यह समस्त पृथ्वी, समस्त प्राणी, समस्त जल, समस्त अग्नि, समस्त वायु, आदित्य, दिशाएं, चन्द्रमा, विद्युत, मेघ, आकाश, धर्म, सत्य और मनुष्य मधु-रूप हैं, अर्थात आत्मरूप है।
- सभी में वह विनाशरहित, तेजस्वी 'आत्मा' विद्यमान है।
- वही सर्वव्यापी परमात्मा का सूक्ष्म अंश है।
- यह 'आत्मा' समस्त जीवों का मधु है और जीव इस आत्मा के मधु हैं।
- इसी में वह तेजस्वी वर अविनाशी पुरुष 'परब्रह्म' के रूप में स्थित है। वह 'ब्रह्म' कारणविहीन, कार्यविहीन, अन्तर और बाहर से विहीन, अमूर्त रूप है।
- इसी ब्रह्म स्वरूप 'आत्मा' को जानने अथवा इसके साथ साक्षात्कार करने का उपदेश सभी वेदान्त देते हैं। अत: मधुरूप उस आत्मा का चिन्तन करके ही, परमात्मा तक पहुंचना चाहिए।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख