गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-13: Difference between revisions
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यह बात भी ज्ञात है कि ईसा के जन्म होने से पहले की शताब्दियों में श्रीकृष्ण और अर्जुन पूजे जाते थे; और यह मान लेने का कुछ कारण है कि यह पूजा किसी ऐसी धार्मिक या दार्शनिक परंपरा के कारण ही होती होगी, जहां से गीता ने अपने बहुत-से तत्वों को, यहां तक कि ज्ञान, कर्म और भक्ति के समन्वय की भित्ति को भी लिया होगा, और शायद यह भी माना जा सकता है के ये मानव श्रीकृष्ण ही संप्रदाय के प्रवर्तक, पुनः संस्थापक या कम-से-कम कोई पूर्वाचार्य रहे होंगे। इसलिये गीता का बाह्य रूप चाहे कुछ भी बदला भी हो तो भी यह भारतीय विचारधारा के रूप में श्रीकृष्ण के ही उपदेश का फल है और इस उपदेश का ऐतिहासिक श्रीकृष्ण के साथ तथा अर्जुन और कुरुक्षेत्र के युद्ध के साथ संबंध केवल कवि की भी कल्पना ही नहीं है। महाभारत में श्रीकृष्ण एक ऐतिहासिक व्यक्ति हैं और अवतार भी; इनकी उपासना और अवतार होने की मान्यता देश में उस समय तक प्रस्थापित हो चुकी थी जब ईसा के पूर्व ( पांचवी और पहली शताब्दी के बीच में ) महाभारत की प्राचीन कहानी और कविता का महाकाव्य-परंपरा ने अपना वर्तमान रूप धारण किया। इस काव्य में अवतार की बाल-वृन्दावन-लीला की कथा या किंवदंती का भी संकेत है जिसे पुराणों ने इतने प्रबल और सतेज आध्यात्मिक प्रतीक के रूप में वर्णित किया गया है कि उसका भारत के धार्मिक मन पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा है। हरिवंश ने भी श्रीकृष्ण की लीला का वर्णन किया है, इसमें स्पष्ट ही प्रायः उपाख्यान भरे हैं शायद सब पौराणिक वर्णन हैं ही इन्हीं के आधार पर। इतिहास की दृष्टि से इन सबका काफी महत्व है, फिर भी हमारे प्रस्तुत विषय के लिये इनका कुछ भी उपयोग नहीं है। यहां केवल भगवान् गुरु के उस रूप से मतलब है जिसको गीता ने हमारे सामने रखा है और मानव-जीवन को आध्यात्मिक प्रकाश देने वाली उस शक्ति से मतलब है जिसको देने के लिये गुरु आये हैं। गीता-मानव रूप में भगवान् के अवतार लेने के सिद्धांत को मानती है; क्योंकि भगवान्ज्ञ गीता में मानव-रूप में बारंबार युग-युग में प्रकट होने की बात कहते हैं[1]यह प्राकट्य तब होता है जब कि ये शाश्वत अजन्मा अपनी माया के द्वारा, अपनी अनंत चित् शक्ति से सांत रूपों का जामा पहन कर संभूति की अवस्थाओं को-जिन्हें हम जन्म कहते हैं-धारण करते हैं। परंतु गीता में भगवाना् के इस रूप पर नहीं, बल्कि परात्पर, विराट् और आंतरिक रूप से जोर दिया गया है, वे जो समस्त वस्तुओं के उद्गम हैं, सबके स्वामी हैं और मनुष्य के हृदय में वास करते हैं। इन्हीं अंतःस्थित भगवान् से वहां मतलब है जहां जहां गीता में उग्र आसुर तप के करने वालों के विषय में यह कहा गया है कि ये, अन्तःशरीरस्थं माम् मुझ भगवान् को कष्ट देते हैं या जहां यह कहा गया है कि ये असुर, मानुषीं तनुमाश्रितं माम्, मनुष्य शरीर में रहने वाले मुझसे द्वेष करने पाप करते हैं और वहां भी जहां यह कहा गया है कि इनके अज्ञान-तम को, प्रज्ज्वलित ज्ञानदीप के द्वारा मैं नष्ट कर देता हूँ[2]।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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