भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-16: Difference between revisions

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5.गुरू कृष्ण

जहां तक भगवद्गीता की शिक्षा का प्रश्न है, इस बात का कोई महत्त्व नहीं है कि इसका उपदेश देने वाला कृष्ण कोई ऐतिहासिक व्यक्ति है या नहीं। महत्त्वपूर्ण बात भगवान् का सनातन अवतार है, जो इस विश्व में और मनुष्य की आत्मा में पूर्ण और दिव्य जीवन को लाने की शाश्वत प्रक्रिया है। परन्तु कृष्ण की ऐतिहासिकता के पक्ष में बहुत काफ़ी प्रमाण विद्यमान हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उसे घोर आंगिरस[1] का शिष्य बताया गया है। घोर आंगिरस, कौशीतकि ब्राह्मण[2] के अनुसार, सूर्य का पुजारी था। बलिदान के अर्थ की व्याख्या करने और यह बताने के बाद, कि पुरोहितों के लिए सच्ची दक्षिणा तप, दान, ईमानदारी, अहिंसा और सत्य भाषण आदि सद्गुणों का अभ्यास ही है,[3]इस उपनिषद् में कहा गया है कि “जब घोर आंगिरस ने यह बात देवकी पुत्र कृष्ण को समझाई तो उसने यह भी कहा कि अन्तिम समय में मनुष्य को इन तीन विचारों की शरण लेनी चाहिएः ‘तू अविनश्वर (अक्षत) है; तू अविचल (अच्युत) है; तू सारे जीवन का सार (प्राण) है।”[4]इस उपनिषद् में घोर आंगिरस की शिक्षाओं और गीतों में कृष्ण की शिक्षाओं में परस्पर बहुत अधिक समानता है। कृष्ण का महाभारत की कथा में भी बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है, जहां उसे अर्जुन के मित्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है। पाणिनि ने वासुदेव और अर्जुन को पूजा का पात्र बतालाया है। [5]कृष्ण प्राचीन यदुवंश की वृष्णि या सात्वत शाखा में उत्पन्न हुआ था।
इस वंश का स्थान सम्भवतः मथुरा के आस पास कहीं था। मथुरा का नाम इतिहास-परम्परा और गाथा में कृष्ण के नाम के साथ जुड़ा हुआ है। कृष्ण वैदिक धर्म के याजकवाद का विरोधी था और उन सिद्धान्तों का प्रचार करता था, जो उसने घोर आंगिरस से सीखे थे। वैदिक पूजा-पद्धति से उसका विरोध उन स्थानों में प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है, जहां इन्द्र पराजित होने के बाद कृष्ण के सम्मुख झुक जाता है।[6]गीता में उन लोगों का भी उल्लेख है, जो कृष्ण की शिक्षाओं के सम्बन्ध में शिकायत करते हैं और कृष्ण पर अश्रद्धा करते हैं।[7]महाभारत में ऐसे संकेत हैं, जिनसे पता चलता है कि कृष्ण की सर्वोच्चता बिना उसे चुनौती दिए स्वीकार नहीं की गई थी। महाभारत में कृष्ण को एक ऐतिहासिक व्यक्ति[8] और भगवान् का अवतार, दोनों ही रूपों में प्रस्तुत किया गया हैं। कृष्ण ने सात्वतों को सूर्य की पूजा करना सिखाया था और सम्भवतः सात्वतों ने अपने गुरू कृष्ण को उस सूर्य के साथ एकरूप मान लिया, जिसकी पूज़ा उसने उन्हें सिखाई थी।[9]ईसवी-पूर्व चौथी शताब्दी तक वासुदेव की पूजा-पद्धति भली भाँति स्थापित हो चुकी थी। बौद्ध ग्रन्थ ‘निद्देस’ (ईसवी-पूर्व चौथी शताब्दी) में जो कि पालि सिद्धान्त-ग्रन्थों में सम्मिलित किया गया है, लेखक ने अन्य सम्प्रदायों के साथ-साथ वासुदेव और बलदेव के उपासकों का उल्लेख किया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 3, 17, 6
  2. 30, 6
  3. तपो दानम् आर्जवम् अहिंसा सत्यवचनम्। देखिए भगवद्गीता, 16, 1-3
  4. भगवद्गीता से तुलना कीजिए; 8, 11-13। सम्भवतः उसने ऋग्वेद के आठवें मण्डल के चैहत्तरवें सूक्त की रचना की थी, क्योंकि उसे कौशीतकि ब्राह्मण में कृष्ण आंगिरस कहा गया है। 30, 9
  5. 4, 3, 98
  6. “मैं देवताओं का इन्द्र हूँ, परन्तु तुम्हें गौओं के ऊपर इन्द्र की शक्ति प्राप्त हो गई हैं। गोविन्द के रूप में मनुष्य सदा तुम्हारी स्तुति करते रहेंगे।” हरिवंश, 4004
  7. 3, 32; 9, 11; 18, 67
  8. कृष्ण के बाल्य-जीवन की कहानी गाथाओं और कल्पनाओं के साथ मिली-जुली भागवत और हरिवंश पुराण में प्राप्त होती है।
  9. भागवत के अनुसार सात्वत लोग भगवान् और वासुदेव के रूप में पूजा करते हैं। 9, 9, 50। यामुनाचार्य ने अपने ग्रन्थ ‘आगमप्रामाण्य’ में कहा है कि जो लोग आत्मा की पवित्रता के साथ भगवान् की पूजा करते हैं, वे भागवत और सात्त्वत कहलाते हैं। सत्त्वाद् भगवान् भज्यते यैः परः पुमान् ते सात्वता भागवता इत्युच्यन्ते द्विजोत्तमैः।

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