संपति भरम गँवाइके -रहीम: Difference between revisions
Jump to navigation
Jump to search
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
('<div class="bgrahimdv"> संपति भरम गँवाइके, हाथ रहत कछु नाहिं ।<br /> ज...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
No edit summary |
||
Line 4: | Line 4: | ||
;अर्थ | ;अर्थ | ||
बुरे व्यसन में पड़कर जब कोई अपना धन खो देता है, तब उसकी वही दशा हो जाती है, जैसी दिन में [[चन्द्रमा | बुरे व्यसन में पड़कर जब कोई अपना धन खो देता है, तब उसकी वही दशा हो जाती है, जैसी दिन में [[चन्द्रमा]] की। अपनी सारी कीर्ति से वह हाथ धो बैठता है, क्योंकि उसके हाथ में तब कुछ भी नहीं रह जाता है। | ||
{{लेख क्रम3| पिछला=संतत संपति जान के -रहीम|मुख्य शीर्षक=रहीम के दोहे |अगला=ससि संकोच साहस सलिल -रहीम}} | {{लेख क्रम3| पिछला=संतत संपति जान के -रहीम|मुख्य शीर्षक=रहीम के दोहे |अगला=ससि संकोच साहस सलिल -रहीम}} |
Latest revision as of 11:37, 28 February 2016
संपति भरम गँवाइके, हाथ रहत कछु नाहिं ।
ज्यों ‘रहीम’ ससि रहत है, दिवस अकासहिं माहिं ॥
- अर्थ
बुरे व्यसन में पड़कर जब कोई अपना धन खो देता है, तब उसकी वही दशा हो जाती है, जैसी दिन में चन्द्रमा की। अपनी सारी कीर्ति से वह हाथ धो बैठता है, क्योंकि उसके हाथ में तब कुछ भी नहीं रह जाता है।
left|50px|link=संतत संपति जान के -रहीम|पीछे जाएँ | रहीम के दोहे | right|50px|link=ससि संकोच साहस सलिल -रहीम|आगे जाएँ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख