भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-92: Difference between revisions
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(4.4) तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम्। | (4.4) तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम्। | ||
शाब्दे परे च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम्।।<ref>11.3.21 </ref></poem> | शाब्दे परे च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम्।।<ref>11.3.21 </ref></poem> | ||
जो उत्तम श्रेय जानना चाहता है, उसे सीखना चाहिए। कहाँ? तो गुरु के पास। वह गुरु कैसा हो? शाब्दे परे च निष्णातम्- वेद, उपनिषद्, बाइबिल, | जो उत्तम श्रेय जानना चाहता है, उसे सीखना चाहिए। कहाँ? तो गुरु के पास। वह गुरु कैसा हो? शाब्दे परे च निष्णातम्- वेद, उपनिषद्, बाइबिल, क़ुरआन, जपुजी आदि जो दर्शन ग्रंथ हैं, समाज के लिए प्रेरणादायी ग्रंथ हैं, उनमें प्रवीण होना चाहिए। ब्रह्मणि- ब्रह्मविद्या का साक्षात्कारी होना चाहिए। उपशमाश्रयम्- वह शांति का घर होना चाहिए। ये तीनों गुण जिसमें हों, वही योग्य गुरु होगा। ऐसा गुरु कहाँ मिलेगा? सिखों ने निर्णय दिया है कि बहुत से गुरु होते हैं, तो उनका आपस में मतभेद खड़ा हो जाता है, इसलिए दस गुरु बस हैं। पहला गुरु नानक और आखिर का गुरु गोविंद सिंह। उनके आगे ग्रंथ को ही गुरु समझो। आगे गुरु नहीं रहोंगे, ऐसी बात नहीं। फिर भी ग्रंथ को ही गुरु के तौर पर मानना चाहिए, ऐसा उन्होंने निर्णय दिया। | ||
<poem style="text-align:center">' न कुर्यात् न वदेत् किश्चिंत् न ध्यायेत् साध्वसाधु वा। | <poem style="text-align:center">' न कुर्यात् न वदेत् किश्चिंत् न ध्यायेत् साध्वसाधु वा। | ||
आत्मारामोऽनया वृत्या विचरेत् जडवन्मुनिः।।</poem> | आत्मारामोऽनया वृत्या विचरेत् जडवन्मुनिः।।</poem> |
Latest revision as of 10:33, 5 July 2017
भागवत धर्म मिमांसा
3. माया-संतरण
'
(4.4) तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम्।
शाब्दे परे च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम्।।[1]
जो उत्तम श्रेय जानना चाहता है, उसे सीखना चाहिए। कहाँ? तो गुरु के पास। वह गुरु कैसा हो? शाब्दे परे च निष्णातम्- वेद, उपनिषद्, बाइबिल, क़ुरआन, जपुजी आदि जो दर्शन ग्रंथ हैं, समाज के लिए प्रेरणादायी ग्रंथ हैं, उनमें प्रवीण होना चाहिए। ब्रह्मणि- ब्रह्मविद्या का साक्षात्कारी होना चाहिए। उपशमाश्रयम्- वह शांति का घर होना चाहिए। ये तीनों गुण जिसमें हों, वही योग्य गुरु होगा। ऐसा गुरु कहाँ मिलेगा? सिखों ने निर्णय दिया है कि बहुत से गुरु होते हैं, तो उनका आपस में मतभेद खड़ा हो जाता है, इसलिए दस गुरु बस हैं। पहला गुरु नानक और आखिर का गुरु गोविंद सिंह। उनके आगे ग्रंथ को ही गुरु समझो। आगे गुरु नहीं रहोंगे, ऐसी बात नहीं। फिर भी ग्रंथ को ही गुरु के तौर पर मानना चाहिए, ऐसा उन्होंने निर्णय दिया।
' न कुर्यात् न वदेत् किश्चिंत् न ध्यायेत् साध्वसाधु वा।
आत्मारामोऽनया वृत्या विचरेत् जडवन्मुनिः।।
जो गुरु होगा, वह तो जड़वत् विचरण करेगा। उसे पहचानना ही मुश्किल होगा। किंतु वह मिले तो प्रमाण ग्रंथों में निष्णात्, ब्रह्मविद्या का साक्षात्कारी (अनुभवी) व्यक्ति और शांति का निवास हो। महाराष्ट्र के संत एकनाथ महाराज ने विनोद किया है कि शांति के घर ढूँढ़ने के लिए निकली, पर उसे कहीं जगह नहीं मिली। जहाँ भी जाती, उसे अशांति ही देखने को मिलती। सब तरह से निराश होने पर वह गुरु के पास आकर बैठ गयी। मतलब यह कि गुरु के पास शब्दविद्या, ब्रह्मविद्या और शांति भी हो। महाराष्ट्र के संत रामदास स्वामी ने लिखा है :
' विवेका सारिखा नाहीं गुरु। चित्ता सारिखा शिष्य चतुरु।।
‘विवेक के समान गुरु नहीं और चित्त के समान चतुर शिष्य नहीं।’ चित्त चिंतनशील होता है, जब कि मन होता है गोडाउन (गोदाम)! जो भी कचरा आया, मन में भर रखते हैं, पर चित्त चिंतनशील है। जो चिंतनशील है, वह उत्तम शिष्य है। तो, हमारा चित्त चिंतनशील हो और हम विवेक की ही शरण जाएँ। अंतर्यामी भगवान् तो हैं ही। यदि आप विवेक से सोचें तो अंतर्यामी भगवान् आपको अवश्य उत्तर देंगे। गुरु के पास क्या सीखना चाहिए, तो कहते हैं :
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.3.21
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