गाँव गली -सिद्धलिंगय्या: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
गोविन्द राम (talk | contribs) No edit summary |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - " गरीब" to " ग़रीब") |
||
Line 30: | Line 30: | ||
जिन-जिन प्रसंगों में भरपूर बालपन के विवरण प्रकट, विलीन और विकसित हुए हैं, वे वास्तव में मन्त्रमुग्ध करने वाले हैं। यह बात कुवेम्पु से लेकर अनन्तमूर्त्ति तक सभी लेखकों पर लागू होती है। एक सघन आत्मकथा लिखने के लिए वयस्क संवेदनशीलता मुश्किलें पैदा करती है। परिणामतः आत्मकथाएँ सामाजिक सम्बन्धों के विरल चित्रण तक ही सीमित रह जाती हैं। हम कुवेम्पु के ‘नेनपिन दोणी’ (स्मृति की नाव) को ही देख लें। इस आत्मकथा में भी यौवन की वैसी सघन अनुभूति नहीं है जैसी कि बचपन की। वयस्क जीवन के तत्त्व स्वयं को छिपा लेते हैं और वे कहानियों तथा उपन्यासों में प्रवेश कर जाते हैं। बचपन संवेदनशीलता की अखंडित स्थिति हुआ करती है। यह एक ऐसी स्थिति होती है जहाँ व्यक्तिगत और सामाजिक, निजी और सार्वजनिक के बीच कोई भिन्नता नहीं पायी जाती। वयस्कता पहचान और श्रेणीकरण वाली स्थिति होती है। आत्मकथा का उपयोग आमतौर पर लेखक के सामाजिक छद्मावरण को दोषमुक्त करने, उसे विस्तार देने और विश्लेषित करने के लिए होता है। वह आत्मकथा जो स्वयं को अन्तराल नहीं देती, तकलीफ नहीं पैदा करती और स्वयं का उपहास नहीं उड़ाती, वह एक चालू आत्म-समर्थन से ज्यादा कुछ नहीं होती। कन्नड़ में वयस्क प्रामाणिक आत्मकथाओं के विरुद्ध एक वर्जना मौजूद रही है। | जिन-जिन प्रसंगों में भरपूर बालपन के विवरण प्रकट, विलीन और विकसित हुए हैं, वे वास्तव में मन्त्रमुग्ध करने वाले हैं। यह बात कुवेम्पु से लेकर अनन्तमूर्त्ति तक सभी लेखकों पर लागू होती है। एक सघन आत्मकथा लिखने के लिए वयस्क संवेदनशीलता मुश्किलें पैदा करती है। परिणामतः आत्मकथाएँ सामाजिक सम्बन्धों के विरल चित्रण तक ही सीमित रह जाती हैं। हम कुवेम्पु के ‘नेनपिन दोणी’ (स्मृति की नाव) को ही देख लें। इस आत्मकथा में भी यौवन की वैसी सघन अनुभूति नहीं है जैसी कि बचपन की। वयस्क जीवन के तत्त्व स्वयं को छिपा लेते हैं और वे कहानियों तथा उपन्यासों में प्रवेश कर जाते हैं। बचपन संवेदनशीलता की अखंडित स्थिति हुआ करती है। यह एक ऐसी स्थिति होती है जहाँ व्यक्तिगत और सामाजिक, निजी और सार्वजनिक के बीच कोई भिन्नता नहीं पायी जाती। वयस्कता पहचान और श्रेणीकरण वाली स्थिति होती है। आत्मकथा का उपयोग आमतौर पर लेखक के सामाजिक छद्मावरण को दोषमुक्त करने, उसे विस्तार देने और विश्लेषित करने के लिए होता है। वह आत्मकथा जो स्वयं को अन्तराल नहीं देती, तकलीफ नहीं पैदा करती और स्वयं का उपहास नहीं उड़ाती, वह एक चालू आत्म-समर्थन से ज्यादा कुछ नहीं होती। कन्नड़ में वयस्क प्रामाणिक आत्मकथाओं के विरुद्ध एक वर्जना मौजूद रही है। | ||
==लेखक== | ==लेखक== | ||
पुस्तक 'गाँव वाली' के लेखक सिद्धलिंगय्या हैं। 'दलित कवि' के नाम से प्रसिद्ध सिद्धलिंगय्या लगभग पैंतीस वर्षों से [[कर्नाटक]] के सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय हैं। बेंगलूरु विश्वविद्यालय में [[कन्नड़ भाषा]] के प्राध्यापक, बारह वर्ष कर्नाटक विधान परिषद् के सदस्य (एम.एल.सी.), कन्नड़ प्राधिकार के अध्यक्ष और अब कन्नड़ पुस्तक प्राधिकार के अध्यक्ष हैं। 'होलेमादिगर हाडु' (मोची चमारों के गीत) के प्रकाशन से इन्होंने कन्नड़ साहित्य के सुदीर्घ इतिहास को अपने चरित्र का पुनरावलोकन करने के लिए मजबूर किया। | पुस्तक 'गाँव वाली' के लेखक सिद्धलिंगय्या हैं। 'दलित कवि' के नाम से प्रसिद्ध सिद्धलिंगय्या लगभग पैंतीस वर्षों से [[कर्नाटक]] के सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय हैं। बेंगलूरु विश्वविद्यालय में [[कन्नड़ भाषा]] के प्राध्यापक, बारह वर्ष कर्नाटक विधान परिषद् के सदस्य (एम.एल.सी.), कन्नड़ प्राधिकार के अध्यक्ष और अब कन्नड़ पुस्तक प्राधिकार के अध्यक्ष हैं। 'होलेमादिगर हाडु' (मोची चमारों के गीत) के प्रकाशन से इन्होंने कन्नड़ साहित्य के सुदीर्घ इतिहास को अपने चरित्र का पुनरावलोकन करने के लिए मजबूर किया। ग़रीबी और विद्रोह की जिन्दगी को इस कथानक में हास्य-व्यंग्य के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है और क्षमता ग़रीबी को कैसे जीतकर नये आत्मविश्वास को हासिल करती है इसका यह दस्तावेज है। | ||
==अनुवादक== | ==अनुवादक== | ||
प्रोफ़ेसर टी.वी. कट्टीमनी पुस्तक 'गाँव वाली' के अनुवादक हैं। [[कन्नड़]] और [[हिन्दी]] के बीच में पच्चीस वर्ष से सेतु का काम करने वाले प्रो. टी.वी. कट्टीमनी ने हिन्दी से ‘जूठन’, ‘मिस्टर जिन्ना’, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ तथा [[अंग्रेज़ी]] से हिन्दी में ‘मौलाना आज़ाद: दृष्टि और कार्य’ कृतियों का अनुवाद किया है। फिलहाल वे मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष हैं। | प्रोफ़ेसर टी.वी. कट्टीमनी पुस्तक 'गाँव वाली' के अनुवादक हैं। [[कन्नड़]] और [[हिन्दी]] के बीच में पच्चीस वर्ष से सेतु का काम करने वाले प्रो. टी.वी. कट्टीमनी ने हिन्दी से ‘जूठन’, ‘मिस्टर जिन्ना’, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ तथा [[अंग्रेज़ी]] से हिन्दी में ‘मौलाना आज़ाद: दृष्टि और कार्य’ कृतियों का अनुवाद किया है। फिलहाल वे मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष हैं। |
Latest revision as of 09:17, 12 April 2018
गाँव गली -सिद्धलिंगय्या
| |
लेखक | सिद्धलिंगय्या |
मूल शीर्षक | गाँव गली |
अनुवादक | प्रोफ़ेसर टी.वी. कट्टीमनी |
प्रकाशक | वाणी प्रकाशन |
ISBN | 978-93-5000-945-1 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 108 |
भाषा | हिन्दी |
विधा | आत्मकथा |
गाँव गली लेखक और कवि सिद्धलिंगय्या द्वारा रचित आत्मकथा है। इस पुस्तक के अनुवादक प्रोफ़ेसर टी.वी. कट्टीमनी हैं। पुस्तक का प्रकाशन 'वाणी प्रकाशन' द्वारा किया गया था।
पुस्तक के सन्दर्भ में
कवि सिद्धलिंगय्या समकालीन दलित राजनीति के सांस्कृतिक भावावेश को बनाये रखने की दिलचस्प कोशिश करते हैं और इस तरह वे दूसरों से अलग हैं। यह ऐसा लेखन है जो क्रोध को मनोरंजन बनाता है। गुस्सा यहाँ विडम्बना बन जाता है। परेशानियाँ एक शरारत में बदल जाती हैं, जो जीवन की जटिलताओं को पकड़ने में मदद करती हैं। कितना आश्चर्य उत्पन्न होता है जब एक शानदार वृत्तान्त किसी मानवीय गतिविधि की कथा में परिणत हो जाता है। सिद्धलिंगय्या क्रोध को मसखरी में बदल देते हैं। कई बड़े व्यक्तित्व प्रसंगवश यहाँ इस तरह आते हैं, जैसे वे कोई साधारण व्यक्ति हों और उनके साथ उनकी मानवीय दुर्बलताएँ भी होती हैं। यह असम्भावित हो सकता है कि दलितों का क्रोध दुनिया को छिन्न-भिन्न कर दे, लेकिन उनके जशेरदार ठहाकों से उसका भौचक हो जाना तय है।
जिन-जिन प्रसंगों में भरपूर बालपन के विवरण प्रकट, विलीन और विकसित हुए हैं, वे वास्तव में मन्त्रमुग्ध करने वाले हैं। यह बात कुवेम्पु से लेकर अनन्तमूर्त्ति तक सभी लेखकों पर लागू होती है। एक सघन आत्मकथा लिखने के लिए वयस्क संवेदनशीलता मुश्किलें पैदा करती है। परिणामतः आत्मकथाएँ सामाजिक सम्बन्धों के विरल चित्रण तक ही सीमित रह जाती हैं। हम कुवेम्पु के ‘नेनपिन दोणी’ (स्मृति की नाव) को ही देख लें। इस आत्मकथा में भी यौवन की वैसी सघन अनुभूति नहीं है जैसी कि बचपन की। वयस्क जीवन के तत्त्व स्वयं को छिपा लेते हैं और वे कहानियों तथा उपन्यासों में प्रवेश कर जाते हैं। बचपन संवेदनशीलता की अखंडित स्थिति हुआ करती है। यह एक ऐसी स्थिति होती है जहाँ व्यक्तिगत और सामाजिक, निजी और सार्वजनिक के बीच कोई भिन्नता नहीं पायी जाती। वयस्कता पहचान और श्रेणीकरण वाली स्थिति होती है। आत्मकथा का उपयोग आमतौर पर लेखक के सामाजिक छद्मावरण को दोषमुक्त करने, उसे विस्तार देने और विश्लेषित करने के लिए होता है। वह आत्मकथा जो स्वयं को अन्तराल नहीं देती, तकलीफ नहीं पैदा करती और स्वयं का उपहास नहीं उड़ाती, वह एक चालू आत्म-समर्थन से ज्यादा कुछ नहीं होती। कन्नड़ में वयस्क प्रामाणिक आत्मकथाओं के विरुद्ध एक वर्जना मौजूद रही है।
लेखक
पुस्तक 'गाँव वाली' के लेखक सिद्धलिंगय्या हैं। 'दलित कवि' के नाम से प्रसिद्ध सिद्धलिंगय्या लगभग पैंतीस वर्षों से कर्नाटक के सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय हैं। बेंगलूरु विश्वविद्यालय में कन्नड़ भाषा के प्राध्यापक, बारह वर्ष कर्नाटक विधान परिषद् के सदस्य (एम.एल.सी.), कन्नड़ प्राधिकार के अध्यक्ष और अब कन्नड़ पुस्तक प्राधिकार के अध्यक्ष हैं। 'होलेमादिगर हाडु' (मोची चमारों के गीत) के प्रकाशन से इन्होंने कन्नड़ साहित्य के सुदीर्घ इतिहास को अपने चरित्र का पुनरावलोकन करने के लिए मजबूर किया। ग़रीबी और विद्रोह की जिन्दगी को इस कथानक में हास्य-व्यंग्य के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है और क्षमता ग़रीबी को कैसे जीतकर नये आत्मविश्वास को हासिल करती है इसका यह दस्तावेज है।
अनुवादक
प्रोफ़ेसर टी.वी. कट्टीमनी पुस्तक 'गाँव वाली' के अनुवादक हैं। कन्नड़ और हिन्दी के बीच में पच्चीस वर्ष से सेतु का काम करने वाले प्रो. टी.वी. कट्टीमनी ने हिन्दी से ‘जूठन’, ‘मिस्टर जिन्ना’, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ तथा अंग्रेज़ी से हिन्दी में ‘मौलाना आज़ाद: दृष्टि और कार्य’ कृतियों का अनुवाद किया है। फिलहाल वे मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष हैं।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख