कुन्ती का त्याग

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 07:50, 23 June 2011 by लक्ष्मी (talk | contribs) ('{{पुनरीक्षण}} पाँचों पाण्डवों को कुन्त्ती ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search
चित्र:Icon-edit.gif इस लेख का पुनरीक्षण एवं सम्पादन होना आवश्यक है। आप इसमें सहायता कर सकते हैं। "सुझाव"

पाँचों पाण्डवों को कुन्त्ती सहित जलाकर मार डालने के उद्देश्य से दुर्योधन ने वारणावत नामक स्थान में एक चपड़े का महल बनवाया और अन्धे राजा धृतराष्ट्र को समझा बुझाकर धृतराष्ट्र के द्वारा युधिष्टिर को आज्ञा दिलवा दी कि ' तुम लोग वहा जाकर कुछ दिन रहो और भाँति-भाँति से दान-पुण्य करते रहो।

चौकड़ी

दुर्योधन ने अपनी चाण्डाल-चौकड़ी मैं यह निश्चय से किया था कि पाण्डवों के उस चमड़े के महल किसी दिन रात्रि के समय आग लगा दी जायगी और चपड़े का महल तुरंत पाण्डवों सहित भस्म हो जायगा। धृतराष्ट को दुर्योधन कि इस बुरी नीयत का पता नहीं था, परंतु किसी तहर विदुर को पता लग गया और विदुर ने पाण्डवों के वहाँ से बच निकल ने लिये अन्दर-ही अन्दर एक सुरंग बनवा दी तथा सांकेतिक भाषा में युधिष्ट्र्र को सारा रहस्य तथा बच निकलने उपाय समझा दिया पाण्डव वहाँ से बच निकले और अपने को छुपाकर एक चक्रा नगरी में एक बाह्राण के घर जाकर रहने लगे । उस नगरी में वक नामक एक बलवान राक्षस रहता था उसने ऐसा नियम बना रखा था कि नगर के प्रत्येक घर से रोज बारी -बारी से एक आदमी उसके लिये विविध भोजन -सामग्री लेकर उसके पास जाय । वह दुष्ट अन्य सामग्रियों के साथ उस आदमी को भी खा जाता था । जिस ब्राह्राण के घर पाण्डव टिके थे, एक दिन उस की बारी आ गयी । ब्राह्राण के घर कुहराम मच गया । ब्राह्राण, उसकी पत्नी, कन्या और पुत्र अपने-अपने प्राण देकर दूसरे तीनों को बचाने का आग्रह करने लगे । उस दिन धर्म राज आदि चारों भाई तो भिक्षा के लिये बाहर गये थे। डेरे पर कुन्ती और भीमसेन थे । कुन्ती ने सारी बातें सुनीं तो उनका ह्रदय दया से भर गया । उन्होने जाकर ब्राह्म्र्ण -परिवार से हँसकर कहा -'महाराज ! आप लोग रोते क्यों हैं ? जरा भी चिन्ता न करें । हमलोग आपके आश्रयें रहते हैं । मेरे पाँच लड़के हैं ? उनमें सें मैं एक लड़के को भोजन -सामग्री देकर राक्षस के यहाँ भेज दूँगी ।' ब्राह्राण ने कहा - 'माता ! ऐसा कैसे हो सकता है ? आप हमारे अतिथि है । अपने प्राण बचाने के लिये हम अतिथि का प्राण लें, ऐसा अर्धम हमसे कभी नही हो सकता ।; कुन्ती ने समझा कर कहा - पण्डित जी ! आप जरा भी चिन्ता न करें । मेरा लड़का भीम भी बड़ा बली है। उसने अब तक कितने ही राक्षसों को मारा वह अवश्य ही उस राक्षस को मार देगा । फ़िर मान लिजिये कदाचित वह न भी मार सका तो क्या होगा । मेरे पाँच में चार तो बच ही रहेंगे । हम लोग सब एक साथ रहकर एक ही परिवार के -से हो गये है । आप वृद्ध हैं, वह जवान है । फ़िर हम आपके आश्रय में रहते हैं ।ऐसी अवस्था में आप वृद्द और पूजनीय होकर भी राक्षस के मुँह में जायँ और मेरा लड़का जावन और बलवान होकर घर में मुँह छिपाये बैठा रहे, यह कैसे हो सकता है ? ब्राह्राण -परिवार ने किसी तहर भी जब कुन्ती का प्रस्ताव स्वीकार नही किया, तब कुन्ती देवी ने उन्हें हर तरह से यह विश्र्वास दिलाया कि भीम सेन अवश्य ही राक्षस को मारकर आवेगा और कहा कि 'भूदेव ! आप यदि नहीं मानेंगे तो भीमसेन आपको बलपूर्वक रोककर चला जायगा । मैं उसे निश्र्चय भेजूँगी और आप उसे रोक नहीं सकेंगे ।' तब लाचार होकर ब्राह्माण ने कुन्ती का अनुरोध स्वीकार किया । माता की आज्ञा पाकर भीमसेन बड़ी प्रसंनता से जाने को तैयार हो गये । इसी बीच युधिष्टिर आदि चारों भाई लौटकर घर पहुँचे । युधिष्टिर ने जब माता की बात सुनी तो उन्हे बड़ा दु:ख हुआ और उन्होंने माता को इसके लिये उलाहना दिया । इस पर कुन्ती देवी बोलीं 'युधिष्टिर ! तू धर्मात्मा होकर भी इस प्रकार की बातें कैसे कह रहा है । भीम के बल का तुझ को भली भाँति पता है, वह राक्षस कों मारकर ही आवेगा ; परंतु कदाचित ऐसा न भी हो, तो इस समय भीमसेन को भेजना ही क्या धर्म नहीं ? ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- किसी पर भी विपत्ति आवे तो बलवान क्षत्रिय का धर्म है । कि अपने प्राणों को संकट में डालकर उनकी रक्षा करे । ये प्रथम तो ब्राह्म्ण है; दूसरे निर्बल हैं और तीसरे हमलोगं के आश्रय दाता है । आश्रय -देने वाले का बदला चुकाना तो मनुष्य मात्र का धर्म होता है । मैनें आश्रय दाता के उपकार के लिये ब्राह्म्ण की रक्षा रुप क्षत्रिय धर्म करने के लिये और प्रजा को संकट से बचाने के लिये भीम को यह कार्य समझ-बुझकर सौंपा है । इस कर्तव्य पालन से ही भीमसेन का क्षत्रिय जीवन सार्थक होगा । क्षत्रिय वीराना ऐसे ही अवसर के लिये पुत्र को जन्म दिया करती हैं । तु इस महान कार्य में क्यों बाधा देना चाहता है और क्यों इतना दु:खी होता है ? धर्मराज युधिष्टिर माता की धर्म सम्मत वाणी सुनकर लज्जित हो गये और बोले -;माता जी ! मेरी भूल थी । आपने धर्म के लिये भीमसेन को यह काम सौंपकर बहुत अच्छा किया है । आपके पुण्य और शुभाशी र्वाद से भीम अवश्य ही राक्षस को मारकर लौटेगा । तदनन्तर माता और बड़े की आज्ञा से और आशीर्वाद लेकर भीमसेन बड़े ही उत्साह से राक्षस के यहाँ गये और उसे मारकर ही लौट ।



पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः