अयथार्थ

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अयथार्थ अर्थात घट का पटरूप से अनुभव होना अयथार्थ कहलाएगा, क्योंकि घट में जिस पटत्व का अनुभव हम कर रहे हैं, वह (पटत्व) उस पदार्थ (घट) में कभी विद्यमान नहीं रहता। फलत: 'अतद्वति तत्प्रकारकोऽनुभव:' अयथार्थ अनुभव का शास्त्रीय लक्षण है। न्यायशास्त्र में यह तीन प्रकार का माना गया है: (1) संशय, (2) विपर्यय, (3) तर्क। एकधर्मी (धर्म से युक्त पदार्थ) में जब अनेक विरुद्ध धर्मों का अवगाही ज्ञान होता है, तब वह संशय (या संदेह) कहलाता है। सामने खड़ा हुआ पदार्थ वृक्ष का स्थाण (ठूँठ) है या पुरुष? यह संशय है, क्योंकि एक ही धर्मी में स्थाणत्व तथा पुरुषत्व जैसे दो विरुद्ध धर्मों का समभाव से ज्ञान होता है। विपर्यय मिथ्या ज्ञान को कहते हैं, जैसे सीप (शुक्ति) में चाँदी का ज्ञान। दोनों का रंग सफेद होने से दर्शक को यह मिथ्या अनुभव होता है।

'तर्क' न्यायशास्त्र का एक विशेष पारिभाषिक शब्द है। अविज्ञातस्वरूप वस्तु के तत्वज्ञान के लिए उपपादक प्रमाण का जो सहकारी ऊह (संभावना) होता है उसे ही ('तर्क') कहते हैं। प्राचीन न्यायशास्त्र में तर्क के 11 भेद माने जाते थे जिनमें से केवल पाँच भेद नव्य नैयायिकों को मान्य हैं। उनके नाम हैं: (1) आत्माश्रय, (2) अन्योन्याश्रय, (3) चक्रक, (4) अनवस्था तथा (5) प्रमाणबाधितार्थ प्रसंग। इनमें अंतिम प्रकार ही विशेष प्रसिद्ध है जिसका दृष्टांत इस प्रकार होगा: कोई व्यक्ति पर्वत से निकलनेवाली धूमशिखा को देखकर 'पर्वत वह्विमान है'-यह प्रतिज्ञा करता है और तदनुकूल व्याप्ति भी स्थिर करता है- जहाँ-जहाँ धूम है, वहाँ-वहाँ अग्नि है। इसपर कोई प्रतिपक्षी व्याप्ति का विरोध करता है। अनुमानकर्ता इसके विरोध को स्वीकार कर उसमें दोष दिखलाता है। यदि पर्वत पर आग नहीं है तो, उसमें धूम भी नहीं होगा। परंतु धूम तो स्पष्टत: दिखाई देता है। अत: प्रतिपक्षी का पक्ष मान्य नहीं है। यहाँ वक्ता प्रथमत: व्याप्य (वह्‌न्यभाव) की सत्ता पर्वत के ऊपर मानता है और इस आरोप से व्यापक (धूमाभाव) की सत्ता वहाँ सिद्ध करता है। ये दोनें मिथ्या होने के कारण 'आरोप' ही हैं। यहाँ प्रतयक्षविरुद्ध 'तर्क' कहलाएगा।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 211 |

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