माखन लाल चतुर्वेदी

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माखन लाल चतुर्वेदी (जन्म- 4 अप्रैल, 1889 ई., बावई, मध्य प्रदेश; मृत्यु- 1968 ई.) सरल भाषा और ओजपूर्ण भावनाओं के अनूठे हिंदी रचनाकार थे। इन्होंने हिंदी एवं संस्कृत का अध्ययन किया। ये 'कर्मवीर' राष्ट्रीय दैनिक के संपादक थे। इन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। इनका उपनाम एक भारतीय आत्मा है। राष्ट्रीयता माखन लाल चतुर्वेदी के काव्य का कलेवर है तथा रहस्यात्मक प्रेम उसकी आत्मा है।

चाह नहीं मैं सुरबाला के, गहनों में गूँथा जाऊँ
चाह नहीं, प्रेमी-माला में, बिंध प्यारी को ललचाऊँ
चाह नहीं, सम्राटों के शव, पर हे हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं, देवों के सिर पर, चढ़ू भाग्य पर इठलाऊँ
मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक


जीवन परिचय

जन्म 4 अप्रैल, 1889 ई. बवई, मध्य प्रदेश में। यह बचपन में काफ़ी रूग्ण और बीमार रहा करते थे। चतुर्वेदी जी के जीवनीकार बसआ का कहना है "दैन्य और दारिद्रय की जो भी काली परछाई चतुर्वेदियों के परिवार पर जिस रूप में भी रही हो, माखनलाल पौरुषवान सौभाग्य का लाक्षनिक शकुन ही बनता गया"। (शैशव और कैशौर' : माखनलाल चतुर्वेदी, पृष्ठ 58)। इनका परिवार राधावल्लभ सम्प्रदाय का अनुयायी था, इसलिए स्वभावत: चतुर्वेदी के व्यक्तित्व में वैष्णव पद कण्ठस्थ हो गये। प्राथमिक शिक्षा की समाप्ति के बाद ये घर पर ही संस्कृत का अध्ययन करने लगे। इनका विवाह पन्द्रह वर्ष की अवस्था में हुआ और उसके एक वर्ष बाद आठ रुपये मासिक वेतन पर अध्यापकी शुरु की। 1913 ई. में प्रभा पत्रिका का सम्पादन आरम्भ किया, जो पहले चित्रशाला प्रेस, पूना से और बाद में प्रताप प्रेस, कानपुर से छपती रही। प्रभा के सम्पादन काल में इनका परिचय गणेश शंकर विद्यार्थी से हुआ, जिनके देश- प्रेम और सेवाव्रत का इनके ऊपर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। 1918 ई. में 'कृष्णार्जुन युद्ध' नामक नाटक की रचना की और 1919 ई. में जबलपुर से 'कर्मवीर' का प्रकाशन किया। 12 मई 1921 ई. को राजद्रोह में गिरफ़्तार हुए 1922 ई. में कारागार से मुक्ति मिली। 1924 ई. में गणेश शंकर विद्यार्थी की गिरफ़्तारी के बाद 'प्रताप' का सम्पादकीय कार्य- भार संभाला। 1927 ई. में भरतपुर में सम्पादक सम्मेलन के अध्यक्ष बने। 1943 ई. में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष हुए।इसके एक वर्ष पूर्व ही इनका हिमकिरीटिनी और साहित्य देवता प्रकाश में आये। 1948 ई. में हिम तरंगिनी और 1952 ई. में माता काव्य ग्रंथ प्रकाशित हुए। माखनलाल चतुर्वेदी की मृत्यु 1968 ई. में हुई।

हिन्दी काव्य के विद्यार्थी को माखनलाल जी की कविताएँ पढ़कर सहसा आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है। कहीं ज्वालामुखी की तरह धधकता हुआ अंतर्मन, जो विषमता की समूची अग्नि सीने में दबाये फूटने के लिए मचल रहा है, कहीं विराट पौरुष की हुंकार, कहीं करुणा की अजीब दर्द भरी मनुहार। वे जब आक्रोश से उद्दीप्त होते हैं तो प्रलयंकर का रूप धारण अर लेते हैं किंतु दूसरे ही क्षण वे अपनी कातरता से विह्वल होकर मनमोहन की टेर लगाने लगते हैं।

चतुर्वेदी जी के व्यक्तित्व में संक्रमणकालीन भारतीय समाज की सारी विरोधी अथवा विरोधी जैसी प्रतीत होने वाली विशिष्टताओं का सम्पुंजन दिखायी पड़ता है।

अपनी रचनाओं को प्रकाशन की दृष्टि से इस क्रम में रखा जा सकता है। कृष्णार्जुन युद्ध (1918 ई.), हिमकिरीटिनी (1941 ई.), साहित्य देवता (1942 ई.), हिमतरंगिनी (1949 ई.-साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत), माता (1952 ई.)। युगचरण, समर्पण और वेणु लो गूँजे धरा उनकी कहानियों का संग्रह अमीर इरादे, गरीब इरादे' नाम से छपा है।

कवि के कमिक विकास को दृष्टि में रखकर हम माखनलाल चतुर्वेदी की रचनाओं को दो श्रेणी में रख सकते हैं। आरम्भिक काव्य, यानी 1920 ई. के पहले की रचनाएँ और परिणति काव्य यानी, 1920 ई. से बाद की काव्य- सृष्टि। उनकी रचनाओं की प्रवृत्तियाँ प्रायः स्पष्ट और निश्चित हैं। राष्ट्रीयता उनके काव्य का कलेवर है तो भक्ति और रहस्यात्मक प्रेम उनकी रचनाओं की आत्मा। आरम्भिक रचनाओं में भी वे प्रवृत्तियाँ स्पष्टता परिलक्षित होती हैं। प्रभा के प्रवेशांक में प्रकाशित उनकी कविता नीति-निवेदन शायद उनके मन की तात्कालिन स्थिति का पूरा परिचय देती है। कवि श्रेष्ठता सोपानगामी उदार छात्रवृन्द से एक आत्म-निवेदन करता है। उन्हें पूर्वजों का स्मरण दिलाकर रत्नगर्भा मातृभूमि की रंकतापर तरस खाने को कहता है। उसी समय प्रभा भाग 1, संख्या 6 में प्रकाशित प्रेम शीर्षक कविताओं से सबसे सावित्य प्रेम व्याप्त हो, इसके लिए सन्देश दिया है क्योंकि इस प्रेम के बिना बेड़ा पार होने वाला नहीं है। माखनलाल जी की राष्ट्रीय कविताओं में आदर्श की थोथी उड़ाने भर नहीं है। उन्होंने खुद राष्ट्रीय संग्राम में अपना सब कुछ बलिदान किया है, इसी कारण उनके स्वरों में बलिपंथी की सच्चाई, निर्भीकता और कष्टों के झेलने की अदम्य लालसा की झंकार है। यह सच है कि उनकी रचनाओं में कहीं-कहीं हिन्दू राष्ट्रीयता का स्वर ज़्यादा प्रबल हो उठा है किंतु हम इसे साम्प्रदायिकता नहीं कह सकते, क्योंकि दूसरे सम्प्रदाय अहित की आकांक्षा इनमें रंचमात्र भी दिखाई न पड़ेगी। विजयदशमी और प्रवासी भारतीय वृन्द ('प्रभा', भाग 2, संख्या 7) अथवा हिन्दुओं का रणगीत, 'मंजुमाधवी वृत्त' (भाग 2, संख्या 8) ऐसी ही रचनाएँ हैं। उन्होंने सामयिक राजनीतिक विषमों को भी दृष्टि में रखकर लिखा और ऐसे जलते प्रश्नों को काव्य का विषय बनाया।

आरम्भिक रचनाओं में भक्तिपरक अथवा आध्यात्मिक विचारप्रेरित कविताओं का भी काफ़ी महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह सही है कि इन रचनाओं में इस तरह की सूक्ष्मता अथवा आध्यात्मिक रहस्य का अतीन्द्रिय स्पर्श नहीं है, जैसा छायावादी कवियों में है अथवा कवि की परिणत काव्यश्रेणीगत आने वाली कुछेर रचनाओं में है। भक्ति का रूप यहाँ काफ़ी स्वस्थ है किंतु साथ ही स्थूल भी। कारण शायद यह रहा है कि इनमें कवि की निजी व्यक्तिगत अनुभूतियों का उतना योग नहीं है, जितना एक व्यापक नैतिक धरातल का, जिसे हम समूह- प्रार्थना कोटि का काव्य कह सकते हैं। इसमें स्तुति या स्तोत्र शैली की झलक भी मिल जाती है। जैसा पहले ही कहा गया, कवि के ऊपर वैष्णव परम्परा का घना प्रभाव दिखायी पड़ता है। भक्तिपरक कविताओं को किसी विशेष सम्प्रदाय के अंतर्गत रखकर देखना ठीक न होगा, क्योंकि इन कविताओं में किसी सम्प्रदायगत मान्यता का निर्वाह नहीं किया गया है। इनमें वैष्णव, निर्गुण, सूफ़ी, सभी, तरह की विचारधाराओं का समंवय-सा दिखाई पड़ता है। कहीं देश प्रणय-निवेदन है, कहीं सर्म्पप्प, कहीं उलाहना और कहीं देश-प्रेम के तकाजे के कारण स्वाधीनता-प्राप्ति का वरदान भी माँगा गया है। रामनवमी जैसी रचनाओं में देश-प्रेम और भगवत्प्रेम को समान धरातल पर उतारने का प्रयत्न स्पष्ट है।

परिणत काव्य-सृष्टि में उपर्युक्त मुख्य प्रवृत्तियों का और भी अधिक विकास दिखाई पड़ता है। क्षोभ, उच्छवास के स्थान पर पीड़ा को सहने और उसे एक मार्मिक अभिव्यक्ति देने का प्रयत्न दिखाई पड़ता है। कैदी और कोकिला के पीछे जो राष्ट्रीयता का रूप है, वह आरम्भिक अभिधात्मक काव्य-कृतियों से स्पष्ट ही भिन्न है। उसी प्रकार झरना और आँसू में भावों की गहराई और अनुभूतियों की योग्यता का स्वर प्रबल है, किंतु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि इस दौरान उन्होंने उद्बोधन-काव्य लिखा ही नहीं। युग तरुण से, 'प्रवेश', 'सेनानी' आदि रचनाएँ उद्बोधन काव्य के अंतर्गत ही रखी जायेंगी। उन्होंने राजनीतिक घटनाओं को दृष्टि में रखकर श्रद्धांजलिमूलक काव्य भी लिखा। संतोष 'नटोरियस वीर', 'बन्धन सुख' आदि में गणेशशंकर विद्यार्थी की मधुर स्मृतियाँ हैं तो राष्ट्रीय झण्डे की भेंट में हरदेवनारायण सिंह के प्रति श्रद्धा का निवेदन।

परवर्ती काव्य में आध्यात्मिक रहस्य की धारा स्तुति और प्रार्थना के आध्यात्मिक धरातल के उतर कर सूक्ष्म रहस्य और भक्ति की अपेक्षाकृत अधिक स्वाभाविक भूमि पर बहती दिखाई पड़ती है। छायावादी व्यक्तित्व में विराट् की भावना का परिपारक है तो आध्यात्मिक रहस्य की धारा में किसी अज्ञात असीम प्रियतम के साथ समीप आत्मा का प्रणय-निवेदन। प्रकृति और आध्यात्मिक रहस्य का यह नया आलोक छायावादी कवि की जीवन दृष्टि का आधार है। माखनलाल जी की रचनाओं में भी यह आलोक है किंतु इसका रूप थोड़ा भिन्न है। भिन्न इस अर्थ में कि वे श्याम या कृष्ण की जिस रूपमाधुरी से आकृष्ट थे, उसको सुरक्षित रखते हुए रहस्य के इस क्षेत्र में प्रवेश करना चाहते हैं। अव्यक्त लोक में भी उन्हें बाँसुरी भूल नहीं पाती है। इसी कारण माखनलाल की कविताओं में छायावादी रहस्य भावना का सगुण मधुरा भक्ति के साथ एक अजीब समन्वय दिखाई पड़ता है। उनका ईश्वर (निराकार) इतना निराकार नहीं है कि उसे वे नाना नाम रूप देकर उपलब्ध न कर सकें। वे खुदी को मिटाकर खुदा देखते है इसी कारण उनकी रचनाओं में छायावादी वैयक्तिकता का ऐकांतिक स्वर तीव्र नहीं सुनाई पड़ता है। रवीन्द्रनाथ की रहस्यवादी भावना का प्रभाव उन पर स्पष्ट है-चला तू अपने नभ को छोड़, पा गया मुझमें तव आकार। अथवा अरे अशेष शेष की गोद, या मेरे मैं ही में तो उदार तेरी अपनी है छुपी हार आदि कृतियों में अज्ञात के प्रति निवेदन का स्वर स्पष्ट है, किंतु राधा के मुरलीधर को अपना नटवर कहने में वे कभी नहीं हिचकते। उनका मन जैसे सगुण रूप में ज़्यादा रमा है वैसे ही छायावादी शैली अपनाने पर भी वे आनन्द को व्यक्त करते समय नटवर के प्रेम-आतंक से अपने को मुक्त न कर सके।

छायावादी काव्य में प्रकृति एक अभिनव जीवंत रूप में चित्रित की गयी है। माखनलाल जी की कविताओं में प्रकृति चित्रण का भी एक विशेष महत्त्व है। मध्य प्रदेश की धरती का उनके मन में एक विशेष आकर्षण है। यह सही है कि कवि प्रकृति के रूप आकृष्ट करते हैं किंतु उसका मन दूसरी समस्याओं में इतना उलझा है कि उन्हें प्रकृति में रमने का अवकाश नहीं है। इस कारण प्रकृति उनके काव्य में उद्दीपन बनकर ही रह गयी है, चाहे राष्ट्रीय अध: पतन से उत्पन्न ग्लानि में शस्य-श्यामला भूमिकी दुरवस्था को सोचते समय, चाहे बन्दीखाने के सीकचों से जन्मभूमि को याद करते समय। छायावादी कवियों की तरह प्रकृति में सब कुछ खोजने का इन्हें अवकाश ही न था।

भाषा और शैली की दृष्टि से माखनलाल पर आरोप किया जाता है कि उनकी भाषा बड़ी बेड़ौल है। उसमें कहीं-कहीं व्याकरण की अवेहना की गयी है। कहीं अर्थ निकालने के लिए दूरांवय करना पड़ता है, कहीं भाषा में कठोर संस्कृत शब्द हैं तो कहीं बुन्देलखण्डी के ग्राम्य प्रयोग। किंतु भाषा-शैली के ये सारे दोष सिर्फ एक बात की सूचना देते हैं कि कवि अपनी अभिव्यक्ति को इतनामहत्त्वपूर्ण समझा है कि उसे नियमों में हमेशा आबद्ध रखना उन्हें स्वीकार नहीं हुआ है। भाषा- शिल्प के प्रति माखनलाल जी बहुत सचेष्ट रहे हैं। उनके प्रयोग सामान्य स्वीकरण भले ही न पायें,उनकी मौलिकता में सन्देह नहीं किया जा सकता। गद्य रचनाओं में कृष्णार्जुन युद्ध और साहित्य देवता का विशेष महत्त्व है। कृष्णार्जुन युद्ध अपने समय की बहुत लोकप्रिय रचना रही है। पारसी नाटक कम्पनियों ने जिस ढंग से हमारी संस्कृति को विकृत करने का प्रयत्न किया, वह किसी प्रबुद्ध पाठक से छिपा नहीं है। कृष्णार्जुन युद्ध शायद ऐसे नाट्य प्रदर्शनों का मुहतोड़ जवाब था। गन्धर्व चित्रसेन अपने प्रमादजन्य कुकृत्य के कारण कृष्ण के क्रोध का पात्र बना। कृष्ण ने दूसरी सन्ध्या तक क्षमा न माँगने पर उसके वध की प्रतिज्ञा की। नारद को चित्रसेन का अपराध छोटा लगा, दण्ड भारी। उन्होंने प्रयत्नपूर्वक सुभद्रा के माध्यम से अर्जुन द्वारा चित्रसेन की रक्षा का प्रण करा लिया। अर्जुन और कृष्ण के युद्ध से सृष्टि का विनाश निकट आया जान ब्रह्मा आदि ने दौड़-धूप करके शांति की स्थापना की। इस पौराणिक नाटक को भारतीय नाटय परम्परा के अनुसार उपस्थित किया गया है। यह अभिनेयता की दृष्टि से काफ़ी सुलझी हुई रचना कही जा सकती है। साहित्य देवता माखनलाल जी के भावात्मक निबन्धों का संग्रह है। [सहायक ग्रंथ- माखनलाल चतुर्वेदी-एक अध्ययन, रामाधार शर्मा, सरस्वती मन्दिर, जतनवर, काशी, माखनलाल चतुर्वेदी (जीवनी), ऋषि जैमिनी कौशिक बरुआ, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी 1960 ई.।]


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