छापाख़ाने का आभार -आदित्य चौधरी

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 14:04, 25 February 2012 by आदित्य चौधरी (talk | contribs) ('{| width="80%" align="center" class="headbg37" |- | style="border: thick groove #003333; padding:30px;" valign="top" | [[चित्र...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

50px|right

छापाख़ाने का आभार



        यह लेख मैंने इसी 23 फरवरी को लिखा क्योंकि 23 फरवरी को ही इस लेख का लिखा जाना शायद सबसे ज़्यादा ज़रूरी था। 23 फरवरी का दिन उन लोगों के लिए सम्भवत: सबसे महत्त्वपूर्ण है जो किताबों में रुचि रखते हैं, अध्ययन करते हैं और उसके अलावा भी शायद ही कोई ऐसा हो जिसके जीवन में यह दिन सबसे महत्त्वपूर्ण ना हो। क्या हुआ था इस दिन?
 
        इस दिन गुटिनबर्ग की पहली किताब छपकर दुनिया के सामने आयी थी, जो सचमुच ही इधर उधर जा सकती थी। लोग उसे देख सकते थे, पढ़ सकते थे और उसके पन्ने पलट सकते थे। इस किताब को 'गुटिनबर्ग बाइबिल' कहा गया। सब जानते हैं गुटिनबर्ग ने 'छपाई का आविष्कार' किया था। ऐसा नहीं है कि छ्पाई पहले नहीं होती थी, होती थी लेकिन किताब के रूप में शुरूआत सबसे पहले गुटिनबर्ग ने की और गुटिनबर्ग का नाम इस 'सहस्त्राब्दी के महानतम लोगों की सूची में पहला' है। इस तरह की कोई सर्वमान्य सूची तो कभी नहीं बनी लेकिन फिर भी प्रतिशत के हिसाब से अधिकतम लोग इसी सूची को मानते हैं। इस सूची में गुटिनबर्ग को 'मैन ऑफ द मिलेनियम' या 'सहस्त्राब्दी पुरूष' माना गया है। हम सब बहुत आभारी हैं गुटिनबर्ग के कि उसने यह विलक्षण खोज की... 'छापाख़ाना'। दु:ख की बात ये है कि गुटिनबर्ग का जीवन अभावों में गुज़रा उसके सहयोगी ने ही पूरा पैसा कमाया।

        पहली प्रिंटिंग प्रेस शुरू हुई और गुटिनबर्ग के कारण दुनिया के सामने किताबें आ पाईं। किताबें आने से पहले लेखन का कुछ ना कुछ काम चलता रहता था, जो हाथों से लिखा जाता था, कभी भुर्जपत्रों पर लिखा गया, कभी पत्थर पर महीन छैनी-हथौड़े से उकेरा गया। दुनिया में लेखन सम्बंधी अनेक प्रयोग होते रहे। 'बोली' को लिखने के लिए लिपि और वर्तनी की आवश्यकता हुई और इस तरह 'भाषा' बन गई। भाषा और लिपि अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरह की बनीं। भारत में भी व्याकरण और लिपि का कार्य चल रहा था जो सम्भवत: 500 ईसा पूर्व में पाणिनी द्वारा किया गया माना जाता है। यह समय गौतम बुद्ध के आसपास का ही रहा होगा और सिकंदर के पंजाब पर हमले से पहले का।right|300px

        इतिहासकारों के साथ-साथ हम भी यह मानते हैं कि विश्व के एक हिस्से, देश, कुल, झुंड, या क़बीले में क्या हो रहा था, वह सही रूप से जानने के लिए उस समय पृथ्वी के दूसरे हिस्सों में क्या घट रहा था? यह जानना बहुत ज़रूरी है। 'भारत' एक खोज' (Discovery of India) में पं. जवाहरलाल नेहरू ने लिखा भी है कि अगर हम किसी एक देश का इतिहास जानना चाहें तो यह जानना बहुत ज़रूरी है कि उस समय उस कालक्रम में दूसरे देशों में क्या घट रहा था, अगर हम यह नहीं जानेंगे तो अपने देश का या जिस देश का इतिहास हम जानना चाहते हैं, सही रूप से नहीं जान पायेंगे। भगवतशरण उपाध्याय जी और दामोदर धर्मानंद कोसंबी जी के दृष्टिकोण से भी विश्व की सभी संस्कृतियाँ प्रारम्भ से ही एक दूसरे से बहुत गहरे में मिली-जुली हैं और कोई एक अलग प्रकार का, एक अलग क्षेत्र में, कोई विकास हो पाना सम्भव नहीं है।
 
        'इजिप्ट' यानी मिस्त्र में बिल्कुल ही दूसरे तरीक़े का कार्य चल रहा था। मिस्री फ़राउन (राजा), मंत्री, धर्माधिकारी या प्रमुख वैद्य के पास एक व्यक्ति बैठा रहता था और वह मुख्य बातों को बड़े सलीक़े से सहेजता था। मिस्त्र में लेखन 'पेपिरस' पर होने लगा था। पेपिरस पौधे से बनाया गया एक प्रकार का काग़ज़ होता था जो मिस्त्र के दलदली इलाक़ों में पाया जाता था। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि संस्कृत में काग़ज़ के लिए कोई शब्द नहीं है, हाँ पालि में अवश्य 'कागद' शब्द मिलता है। कालांतर में अंग्रेज़ी में प्रयुक्त होने वाला शब्द 'पेपर' पेपिरस या यूनानी शब्द 'पिप्युरस' से ही बना। मिस्त्र की भाषा को 'हायरोग्लिफ़िक' कहा गया है जिसका अर्थ 'पवित्र' (हायरो) लेखन (ग्लिफ़िक) है।

        इसमें भी एक अजीब रोचक संयोग है कि जिस समय मिस्त्र में पिरामिड जैसी आश्चर्यजनक इमारत बनी, वहाँ लिपि की वर्णमाला अति दरिद्र थी। 3 हज़ार वर्षों में 24 अक्षरों की वर्णमाला में केवल 'व्यंजन' ही थे 'स्वर' एक भी नहीं। बिना स्वरों के केवल व्यंजन लिख कर ही लोगों के सम्बंध में लिखा जाता था। उसे वो कैसे बाद में पढ़ते थे और किस तरीके से उसका उच्चारण होता था, यह बात रहस्य ही बनी रही। सीधे संक्षिप्त रूप में कहें तो 'वर्तनी' लापता थी और सरल करें तो 'मात्राएँ' नहीं थीं। स्वर न होने के कारण शब्द को किस तरीक़े से बोला जाएगा यह जटिल और अस्पष्ट था। [1] स्वरों के लिए अलग से प्रावधान थे, जो बेहद अवैज्ञानिक थे, जबकि भारत में पाणनि रचित 'अष्टाध्यायी' का व्याकरण अपना पूर्ण परिष्कृत रूप ले चुका था। वर्तनी की इस कमी के चलते मिस्री लिपि को पढ़ना ठीक उसी तरह मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था जैसे कि अमिताभ बच्चन की 'डॉन' फ़िल्म में 'डॉन' को पकड़ना लेकिन बाद में ये लिपि पढ़ ली गई। 'रॉसेटा अभिलेख' और फ़्रांसीसी विद्वान 'शाँपोल्तों' के कारण यह कार्य सफल हो गया।

        मिस्र में राजवंशों की शुरुआत आज से 5 हज़ार वर्ष पहले ही हो गयी थी। मशहूर फ़राउन रॅमसी ( ये वही रॅमसी या रामासेस है जो मूसा के समय में था) का नाम पढ़ने भी यही कठिनाई सामने आयी। कॉप्टिक भाषा (मिस्री ईसाइयों की भाषा) में इसका अर्थ है- रे या रा (सूर्य) का म-स (बेटा) अर्थात सूर्य का पुत्र। सोचने वाली बात ये है कि भगवान 'राम' का नाम भी इसी प्रकार का है और वे भी सूर्य वंशी ही हैं। अगर ये महज़ एक इत्तफ़ाक़ है तो बेहद दिलचस्प इत्तफ़ाक़ है। नाम कोई भी रहा हो रेमसी, इमहोतेप या टॉलेमी; स्वरों के बिना उन्हें सही पढ़ना बहुत कठिन था। मशहूर रानी क्लिओपात्रा के नाम[2] में भी दिक़्क़त आयी उसे 'क ल प त र' ही पढ़ा जाता रहा जब तक कि स्वरों की गुत्थी नहीं सुलझी। 'क्लिओपात्रा' कोई नाम नहीं बल्कि रानी की उपाधि थी जिस क्लिओपात्रा को हम-आप जानते हैं वह सातवीं क्लिओपात्रा थी। उसके राजाओं की उपाधि 'टॉलेमी' हुआ करती थी। उस समय भारत में भी उपाधियाँ चल रही थीं जिन्हें व्यक्ति समझ लिया जाता है जैसे व्यास, नारद, वशिष्ठ आदि।

इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...

-आदित्य चौधरी

प्रशासक एवं प्रधान सम्पादक




टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गुणाकर मुले जी ने भी अपनी पुस्तक 'अक्षर कथा' में इसके बारे में विस्तार से बताया है।
  2. क्लिओपात्रा का नाम हायरोग्लिफ़िक में
    300px

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः