नानाजी देशमुख

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नानाजी देशमुख अथवा चंडिकादास अमृतराव देशमुख (जन्म- 11 अक्टूबर, 1916 ई., महाराष्ट्र; मृत्यु- 27 फ़रवरी, 2010) 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' के मजबूत स्तंभ और प्रख्यात समाजसेवक थे। देश के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मविभूषण से नवाजे गए नानाजी देशमुख शिक्षा, स्वास्थ्य और ग्रामीण लोगों के बीच स्वावलंबन के लिए किए गए कार्यों के लिए सदैव याद किए जाते हैं। भारतीय जनसंघ के संस्थापक रहे नानाजी ने 60 साल की आयु के बाद राजनीति से संन्यास ले लिया था। अपना शेष जीवन उन्होंने चित्रकूट के गाँवों का कल्याण करने में बिताया और उनके विकास की एक नई गाथा लिखी।

परीचय

नानाजी देशमुख का जन्म महाराष्ट्र राज्य के परभनी ज़िले में एक छोटे से गाँव 'कदोली' में 11 अक्टूबर, 1916 ई. को हुआ था। इनके पिता का नाम श्री अमृतराव देशमुख तथा माता का नाम श्रीमती राजाबाई अमृतराव देशमुख था। नानाजी का जीवन सदैव अनेकों घटनाओं से परिपूर्ण रहा। उनका अधिकतर समय संघर्षों में ही व्यतीत हुआ था। अपनी अल्प आयु में ही उन्होंने अपने माता-पिता को खो दिया। ये उनके मामा जी ही थे, जिन्होंने उन्हें पाला-पोसा और बड़ा किया।

शिक्षा

नानाजी का बचपन काफ़ी हद तक अभावों में बीता था। अपनी स्कूल की शिक्षा के दौरान भी उनके पास किताबें आदि ख़रीदने के लिए पैसे नहीं होते थे, लेकिन उनके अन्दर ज्ञान तथा शिक्षा प्राप्त करने की अटूट अभिलाषा विद्यमान थी, जिसे वे हर हाल में पाना चाहते थे। वे मन्दिरों में भी रहे और अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए सब्ज़ी बेचकर पैसे कमाए। 'बिरला इंस्टीट्यूट', पिलानी से नानाजी ने उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। बाद के दिनों में तीस के दशक में वे 'आर.एस.एस.' में शामिल हो गए।

राजनीतिक गतिविधियाँ

यद्यपि नानाजी का जन्म महाराष्ट्र में हुआ था, लेकिन उनका कार्यक्षेत्र राजस्थान और उत्तर प्रदेश में ही रहा। उनकी श्रद्धा देखकर आ.रएस.एस. के संघ संचालक गुरू जी ने उन्हें प्रचारक के रूप में गोरखपुर भेज दिया, जहाँ वे उत्तर प्रदेश के प्रचारक नियुक्त कर दिये गये। नानाजी लोकमान्य तिलक के विचारों से बहुत प्रभावित थे। संघ संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार ने ही उन्हें संघ से जोड़ा। 1940 में महाराष्ट्र के सैकड़ों युवक प्रचारक बने। इनमें नानाजी भी थे। उनकी तीव्र बुद्धि तथा विलक्षण संगठन कौशल ने 1950 से 1977 तक भारतीय राजनीति पर अमिट छाप छोड़ी। उन्होंने विभिन्न विचार और स्वभाव वाले नेताओं को एक साथ लाकर कांग्रेस का सदा सत्ता में बने रहने का ज़ोरदार विरोध किया था। संघ के प्रचारक के रूप में उन्हें उत्तर प्रदेश में पहले आगरा और फिर गोरखपुर भेजा गया। उन दिनों संघ की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। नानाजी एक धर्मशाला में रहते थे। वहाँ हर तीसरे दिन कमरा बदलना पड़ता था। अन्ततः कांग्रेस के एक नेता ने उन्हें इस शर्त पर स्थायी कमरा दिलवाया कि वे उसका खाना बना दिया करेंगे। नानाजी के परिश्रम से तीन साल में गोरखपुर के आस-पास 250 शाखाएँ खुल गयीं। विद्यालयों की पढ़ाई तथा संस्कारहीन वातावरण देखकर उन्होंने गोरखपुर में 1950 में पहला 'सरस्वती शिशु मन्दिर' स्थापित किया। आज तो ऐसे विद्यालयों की संख्या देश में 50,000 से भी अधिक है।

प्रबन्धक का पद

1947 में रक्षा बन्धन के शुभ अवसर पर लखनऊ में ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन’ की स्थापना हुई, तो इसके प्रबन्धक नानाजी ही बनाये गए। वहाँ से मासिक राष्ट्रधर्म, साप्ताहिक पांचजन्य तथा दैनिक स्वदेश अख़बार निकाले गये। 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबन्ध लग गया। इससे प्रकाशन संकट में पड़ गया। ऐसे में नानाजी ने छद्म नामों से कई पत्र निकाले। 1952 में जनसंघ की स्थापना होने पर उत्तर प्रदेश में उसका कार्य नानाजी को सौंपा गया। 1957 तक प्रदेश के सभी जिलों में जनसंघ का काम पहुँच गया। 1967 में उत्तर प्रदेश में चौधरी चरणसिंह के नेतृत्व में पहली संविद सरकार बनी। इसमें नानाजी की महत्वपूर्ण भूमिका थी। विनोबा भावे के भूदान यज्ञ तथा 1974 में इन्दिरा गांधी के शासन के विरुद्ध लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए आन्दोलन में नानाजी खूब सक्रिय रहे। पटना में जब पुलिस ने जयप्रकाश आदि पर लाठियाँ बरसायीं, तो नानाजी ने उन्हें अपनी बाँह पर झेल लिया। इससे उनकी बाँह टूट गयी; पर जयप्रकाश जी बच गये।

महामन्त्री का पद

1975 में इन्दिरा गांधी के शासनकाल में कई विपक्षी नेताओं को जेल हुई, किंतु नानाजी हाथ नहीं आये। आपातकाल के विरुद्ध बनी ‘लोक संघर्ष समिति’ के वे मन्त्री थे। उस समय हुए देशव्यापी सत्याग्रह में एक लाख से भी अधिक लोगों ने गिरफ़्तारी दी। यद्यपि बाद में नानाजी भी पकड़े गये। 1977 के चुनाव में इन्दिरा गांधी हार गयीं और दिल्ली में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी। नानाजी ने सत्ता की बजाय संगठन को महत्व देते हुए अपने बदले ब्रजलाल वर्मा को मन्त्री बनवाया। इस पर उन्हें जनता पार्टी का महामन्त्री बनाया गया। उस समय नानाजी सत्ता या दल में बड़े से बड़ा पद ले सकते थे; लेकिन उन्होंने सक्रिय राजनीति छोड़कर ‘दीनदयाल शोध संस्थान’ के माध्यम से पहले गोंडा और फिर चित्रकूट में ग्राम विकास का कार्य प्रारम्भ किया।

निधन

अपने राज्यसभा के सांसद काल में मिली सांसद निधि का उपयोग उन्होंने इन प्रकल्पों के लिए ही किया। कर्मयोगी नानाजी ने 27 फ़रवरी, 2010 को अपनी कर्मभूमि चित्रकूट में अंतिम सांस ली। उन्होंने देहदान का संकल्प पत्र बहुत पहले ही भर दिया था। अतः देहांत के बाद उनका शरीर आयुर्विज्ञान संस्थान को दान दे दिया।


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