दरगाह हज़रत मौलाना ज़ियाउद्दीन साहब

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दरगाह हज़रत मौलाना जियाउद्दीन साहब की स्थापना लगभग दो सौ वर्ष पहले हुई थी। 1910 में हज़रत मौलाना जियाउद्दीन का विसाल हुआ था और उन्होंने वसीयत की थी कि मुझे यहीं दफ़नाया जाए। इसी परिसर में उन्होंने अरब मुमालिक में बनीं मस्जिदों जैसे वास्तुशिल्प की मस्जिद भी तामीर करवाई थी जो हिजरी सन 1213 में बनी थी।

इतिहास

बात अठारहवीं शताब्दी की दिल्ली की हज़रत निज़ामुद्दीन दरगाह के पास अरब सराय नाम की बस्ती हुआ करती थी। अरब सराय के रहने वाले जनाब मौलाना जियाउद्दीन साहब को उनके पीर ने हुक्म फरमाया कि मुझे तुम्हारी आवाज ढूंढ़ार (जयपुर का पुराना नाम) से आ रही और आज के बाद तुम वहाँ के शाहे-विलायत हो। हुक्म सुनते ही आप यहाँ के लिए फौरन रवाना हो गए। जयपुर के पास कूकस तक पहुँचते ही बड़ी चौपड़ पर बैठे अमानीशाह बाबा (आज जिनकी दरगाह नाहरी के पास है) को आभास हो गया था, कि जयपुर का दूल्हा आ गया है और खुद उठकर बियावान (जंगल) की तरफ चल दिए। वही बियावान जगह आज जयपुर के शास्त्री नगर-नाहरी का नाका कहलाता है। जहाँ बाबा ने अपना स्थान बनाया था, वह जगह 'बाबा अमानीशाह की दरगाह' कहलाती है।

उधर, हज़रत मौलाना जियाउद्दीन साहब ने शहर में पेड़ के नीचे खेमा (टेंट) लगा दिया। कुछ दिन के कायम के बाद उनकी शिकायत राज दरबार में हो गई क्योंकि महाराजा के क़ानून के अनुसार, शहर में आकर ठहरने वाले को महाराज की इजाजत लेनी पड़ती थी। महाराज ने उस दरवेश को हज़रत मौलाना जियाउद्दीन साहब बुलवा भेजा। दरवेश के पास कई बिल्लियाँ थीं। न जाने कैसे, वे बिल्लियाँ महाराज के सिपाहियों को शेर की तरह लगीं और वे सिपाही डर कर लौट गए और देखा, और महाराजा को इस प्रकार बयान किया, 'अन्नदाता, वह पीर फकीर कोई मामूली इंसान नहीं है, उनका तो शेर पहरा दे रहे हैं।'

महाराज को यह सुनकर बड़ा ताज्जुब हुआ और कहा कि हम स्वयं देखकर आएंगे। उस समय महाराज प्रताप सिंह, सुबह तैयार होकर सबसे पहले गोविंद देव जी मंदिर में जाया करते थे। मंदिर जाने पर महाराज उस संत से मिले तो उनकी नजरों के प्रताप से मुरीद हो गए। और इसी प्रकार जन्माष्टमी के दिन दरवेश के स्थान पर महाराजा रुके और कहा, मैं मंदिर जा रहा हूँ, देर हो रही है। अष्टमी का व्रत करना है, पूजा पाठ करना है।' देर का शब्द सुनते ही दरवेश ने कहा कि ज़ल्दी है तो यहीं दर्शन कर लो। राजा ने कहा, 'ऐसा मेरा नसीब कहाँ? और यह कहकर सबको बाबा ने आँखें बंद करने के लिए कहा और फिर एक मिनट बाद खोलने के लिए कहा तो सब आश्चर्यचकित हो गए और सबने गोंविद देव जी के दर्शन वहीं कर लिए, क्योंकि मूर्ति वहीं विराजमान थी। महाराज गदगद हो उठे। आश्चर्य से अभिभूत हो महाराज ने अपने गले की मालाएँ उतारकर गोविंदजी के गले में डाल दी।

दोबारा आँखें बंद करने के लिए कहा और अपने प्रताप से मूर्ति को यथा स्थान भिजवा दिया। राजा जब मंदिर पहुँचे तो पुजारी ने कहा, महाराज, गोविंदजी को बैकुंठ पधार गए थे, अभी-अभी वापस पधारे हैं।' इतने में ही मूर्ति वापस आ गई और राजा ने अपने गले की माला पहचानते हुए कहा, पुजारी जी, मूर्ति को कुछ पलों के लिए बाबा ने मुझे दर्शन कराने के लिए फलां जगह बुलवा लिया था। मैं भी वहीं से आ रहा हूँ।' यह पूरा वाक्य राजसी कागजों में आज भी दर्ज है।

विशेषता

वजू करने के लिए पानी का एक बड़ा हौज, संगमरमर से बना है और बीच में फ़व्वारा लगा है। वजू करने वालों को बैठने के लिए हौज के चारों तरफ तकरीबन 60 संगमरमर की बनी सीटें हैं। दरगाह की अंदरूनी व बाहरी दीवारों पर खूबसूरत नीले रंगों से बने बेल बूटें हैं, फिर चारों तरफ बरामदा है। बाबा का विसाल 24 जीकाद की शब (ताहज्जुत के वक्त) रात दो बजे का है। उर्स के वक्त मीठे चावल बनाने की, एक बहुत बड़ी देग भी यहाँ पर है, जिसमें 7 क्विंटल मीठे चावल एक ही वक्त में बनाए जा सकते हैं। जयपुर के घाटगेट से रामगंज चौपड़, फिर 'चार दरवाजा' आता है। यहीं से दाहिने हाथ पर दरगाह है। यह रास्ता दिल्ली से आमेर रोड होते हुए, शहर में दाखिल होने पर सुभाष चौक से बाएं मुड़ने पर भी आता है। पुरसुकून जगह पर है बाबा की दरगाह। तकरीबन 70 फुट का ऊँचा गेट, दरवाजे पर ही बाएं बैठे फ़कीर कुछ होश हवास में, तो कुछ हवा में अकेले ही बतियाते हुए। ये वो हैं जिन्होंने बाबा के दर पर बैठना ही अपनी जिंदगी का मकसद मान लिया।



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