टांगलिया बुनकरी और दह्या भाई (यात्रा साहित्य)

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लेखक- सचिन कुमार जैन

मैं इस आलेख में कोई गहरा विश्लेषण पेश नहीं करने वाला हूँ। इस बार सोचा कि गुजरात देखा जाए। नक्शा देखा तो पता चला कि पूरा राज्य घूमना तो बड़ा भारी मामला है, तो मन कच्छ पर आकर टिक गया। मैं आपको इस इलाके के बारे में बताना चाहता था, तो बस लिखने लगा। एक बात साफ़ कर दूं कि इस इलाके, यहाँ की जमीन, यहाँ के पक्षियों, लोगों, उनकी बुनकरी की कला, कपड़ों को सामने प्रत्यक्ष रूप से देख लेने के बाद ही यह तय हो जाता है कि इसकी आंशिक अभिव्यक्ति ही की जा सकती है। जब हमने (यानी मेरे परिवार ने) इस इलाके में प्रवेश किया तो हम एक गांव में रुके – बाजना नाम है उस गांव का।
सुरेंद्रनगर जिले के इस गांव में 30 साल पहले तक सभी 73 परिवार कपड़ों की बुनाई और कढाई की 700 साल पुरानी एक खास कला का काम करते रहे, पर अब इनमे से एक ही परिवार बचा है। इस बुनकरी का नाम है टांगलिया। गुजरात के 26 गांवों में ही इस कला का वास रहा है। यहाँ रहने वाली डांगसिया समुदाय ही एकमात्र ऐसा समुदाय रहा है जो इस कला की तकनीक में निपुण रहा है। इसमे बांधनी के साथ धागों से बिंदियों की बुनाई इस तरह की जाती है कि उनके उभार को महसूस किया जा सके। बुनकर सूट को इस तरह पकड़ कर उभरते हैं कि उस उभार के आसपास धागा लपेटा जा सके। जरूरत पड़ने पर कूटनी से कूटते भी हैं। आमतौर पर समुदाय अपने खुद के उपयोग के लिए ही टांगलिया बुनकरी का काम करता रहा है। भारवाड समुदाय की महिलायें कढाईदार बांधनी कपड़ों (खासतौर पर बिंदीदार काले घागरे) को पहने हुए दिख जायेंगी।

बिंदियों को जोड़कर एक रूप उकेरने में अलग-अलग रूपों का उपयोग होता है; जैसे रामराज, धुसला, लोब्दी, गदिया, चर्मालिया। मूलभावों में लाडवा या लड्डू, मोर पक्षी, आम्बो (आम के पेड़), खजुरी (खजूर के पेड़) को सबसे ज्यादा उपयोग में लाया जाता है। चटक गुलाबी, लाल, नीला, हरा, मेहरून, बैंगनी और नारंगी रंग जम के उपयोग में लाया जाता है इस बुनकरी में। काले रंग की पृष्ठभूमि में सफ़ेद रंग का उपयोग पारंपरिक रूप से होता रहा है। ऊन, रेशम और सूती कपड़ों पर (ये कपडे भी डांगसिया समुदाय ही करता है) इन्ही सामग्रियों ऊन, रेशम, काटन की धागों से बिंदियाँ या दाने रचे जाते हैं। तागों की बुनाई और कढाई की दानों से निश्चित दूरी तय की जाती है। उन पर छोटे-छोटे बिंदी के आकार के हिस्से धागों से बाँध कर रंगे जाते हैं ताकि अलग अलग रंगों को उभारा जा सके। इन पर रंगीन धागों के ऐसे कढाई की जाती मानो कपड़ों को आभूषण पहनाए गए हैं। कपडे को धागों से बिंदी के आकार में बाँध कर धागों से उस पर मनका कढ़ाई का प्रभाव पैदा किया जाता है। यही इस कला की खासियत है। मूलतः टांगलिया हस्तकला में कपड़ों की बुनाई पिट करघों (पैर डालकर बैठने के लिए जमीन में 3 फिर गहरे गड्ढे से जोड़ कर करघा लगाना) में होती है। ये करघे चौड़ाई में तो 2 या तीन फिट के कपडे बुनते हैं पर इनकी लम्बाई 20 फिट तक होती है। आज बाजना में केवल दह्या भाई का एक मात्र परिवार गांव में बचा है, जो यह काम करता है। जानकार बताते हैं कि टांगलिया कला का उद्भव दो समुदायों से सम्बन्ध रखने वाले एक युगल के प्रति सम्बंधित समुदायों द्वारा किये गए बहिष्कार के कारण हुआ। ये समुदाय इस युगल के कला से सम्बंधित विचारों को स्वीकार नहीं कर रहे थे। इस युगल ने जो कला रची उसने एक समुदाय का रूप ले लिया।

दह्या भाई बताते हैं कि टांगलिया का काम करना अब पुराता नहीं है। एक समय पर काली भेड़ों या ऊँट के ऊन का उपयोग कच्चे माल के रूप में होता था, जो अब इतनी मात्रा में उपलब्ध नहीं है। लोग अपने बिस्तर के लिए चादर चाहते हैं, यदि टांगलिया कला में उसे बनाया जाता है तो हमें पूरे 30 दिन काम करना पड़ता है। तब एक चादर बन पाती है। माल और करघे की लागत निकाली जाए तो इस पर 1200 रूपए का तो सामान ही लगता है। हमें यह चादर यह 2000 रूपए में बेंचना पड़ती है। इसकी हमें 30 रूपए रोज के हिसाब से ही मजदूरी मिलती है। वे कहते हैं कि “हस्तकला को अब अमीरों का शौक माना जाने लगा है, जबकि हमारे समाज में तो ये कलाएं आम लोगों के रोज के जीवन का हिस्सा रही हैं। अब तो भारवाड़ी महिलायें भी खास मौकों पर ही कलाकारी से पूरे कते-बुने वस्त्र पहनती हैं। इसी बीच बाज़ार में अब कारखानों में बने हुए सिंथेटिक धागे भी आने लगे, जिससे भेड़ और ऊंट के ऊन का उपयोग कम हो गया”।
हाथ करघों और मशीन के करघों के बीच संघर्ष हुआ और हाथ के करघे यह संघर्ष हारने लगे। दह्या भाई बताते हैं कि “हाथ करघों में पैर, हाथ, आँख, दिमाग और मन (रचना की कल्पना) का एक साथ काम होता है। सबके बीच सामंजस्य भी जरूरी होता है। मशीन के करघे मशीन से चलते हैं। हम, यानी परिवार के 5 कामकाजी सदस्य मिल कर, एक साल में 300 इकाईयां (शाल, पर्दे, पलंग की चादरें और पहनने के कपडे) बना पाते हैं। हम पांच श्रमिकों के काम से हम 6000 रूपए महीना कमाते हैं। थोडा रुक कर वे बताते हैं कि खेत और मकान बनाने वाले मजदूर से भी कम मोल है हमारी मेहनत का दह्या भाई का अर्थशास्त्रीय विश्लेषण बहुत सीधा सा है। उनके मुताबिक हम अपने सामान की कीमत बहुत ज्यादा बढ़ा नहीं सकते हैं, क्योंकि आम लोग उसे वहन नहीं कर पायेंगे। यदि आम लोग ही टांगलिया कला का उपयोग न कर पाए तो यह कला तो खत्म होनी ही है। अब ज्यादा से ज्यादा यह कुछ शोरूमों और संग्रहालयों में बची दिखती है। अच्छा होगा यदि सरकार टांगलिया कलाकारों और डांगासिया समुदाय को संरक्षण दे। सरकारी कर्मचारियों और मजदूरों की आय के बारे में समितियां बन रही हैं। हम 1.2 लाख बुनकर परिवारों के लिए भी तो सोचा जा सकता है; यदि आपका मन हो तो!



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