कवि पंत के साथ कुछ दूर -रश्मि प्रभा

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संक्षिप्त परिचय

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लेखिका रश्मि प्रभा
जन्म 13 फ़रवरी, 1958
जन्मस्थान सीतामढ़ी, बिहार
शिक्षा: स्नातक (इतिहास प्रतिष्ठा)
अभिभावक: श्री रामचंद्र प्रसाद और श्रीमती सरस्वती प्रसाद
ई-मेल [email protected]
फ़ेसबुक रश्मि प्रभा
सम्पर्क: मो.- 9579122103

तब नहीं जाना था कि प्रकृति क्या है, प्रकृति कवि किसे कहते हैं, सौन्दर्य क्या है, चेहरे पर अनकहा इंतज़ार क्या है - प्रखर होकर भी कुछ ख़ामोशी क्यूँ है ! जानने की उम्र जो नहीं थी - 6 साल की उम्र तो खुद उद्दात प्रकृति के समान होती है, जिसके क़दमों की आहट भी नीड़ में दुबकी विहंगिनी जान लेती है। हाँ तो उद्दात प्रकृति, मासूम चंचलता की उम्र में मैं प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पन्त से मिली। पिता पुत्री का संबंध बना था उनका मेरी माँ से -
            सुनहरे बाल, राजसी चाल, शांत प्रकृति, मोहक मुस्कान... कमरे की साज सज्जा उनके कवि मन के मुखर शब्द से लगे थे। पर इन सबके बीच मेरी नटखट बोली मुखर थी, जो कुछ आँखों के कैमरे में क्लिक हुआ वह लम्बे अरसे तक साफ़ नहीं हुआ।
घर में साहित्यिक वातावरण था तो कविता कहानियाँ हमारे संगी साथी बन गए। इसी वातावरण में माँ ने सुनाया था कि एक बार किसी कवि सम्मलेन में प्रकृति कवि पन्त ने अपनी रचना बाँध दिए क्यूँ प्राण प्राणों से सुनाई थी। लड़कियां बैठी थीं और कवि के काव्य पाठ के साथ साथ कवि के अप्रतिम सौन्दर्य से अभिभूत थीं। प्रकृति की बोली समझने वाले कवि ने उनके मन की गति भी जानी और कुछ इस तरह सुनाया इसे -
'बाँध दिए क्यूँ प्राण प्राणों से - आँए ? '
इस प्रश्न ने मुझे घेर लिया और न जाने कितने काल्पनिक सम्मेलनों में शामिल हुई और सुकुमार कवि ने कहा बाँध दिए क्यूँ प्राण प्राणों से और मैं मुस्कुराती रही अपने एकांत में।
प्रकृति के सुकुमार कवि पन्त ने मुझे किरणों से बात करना सिखाया, पक्षियों की चहचहाहट में भोर का सन्देश दिया ...

‘प्रथम रश्मि का आना रंगिणि!
तूने कैसे पहचाना?
कहां, कहां हे बाल-विहंगिनि!
पाया तूने यह गाना?

शशि-किरणों से उतर-उतरकर,
भू पर कामरूप नभ-चर,
चूम नवल कलियों का मृदु-मुख,
सिखा रहे थे मुसकाना।
….
कूक उठी सहसा तरु-वासिनि!
गा तू स्वागत का गाना,
किसने तुझको अंतर्यामिनी
बतलाया उसका आना! ‘

‘रश्मि प्रभा’ – इस नाम ने मुझे वह गौरव दिया, वह पहचान दी, जिसका लेशमात्र भी ख्याल उस उम्र में नहीं आया। इस नाम के साथ कवि ने एहसास भरे शब्दों की बुनियाद रखी... एक एक ईंट चुनिन्दा.., वरना मैं रश्मि न होती।
उम्र समय की घुमावदार घाटियों से गुजरता गया और मेरे जेहन में इन पंक्तियों का असर हुआ।
वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान, उमड़कर आखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान…
पन्त की इस रचना ने मेरी हर ख़ामोशी को शब्द दिए, बहते आंसुओं से सरगम की धुन आने लगी। ऊँची चारदीवारी में पन्त की रश्मि ने बूंद बूंद में कविता को जन्म दिया -
रात रोज आती है,
हर रात नए सपनों की होती है,
या – किसी सपने की अगली कड़ी…..
मैं तो सपने बनाती हूँ
लेती हूँ एक नदी, एक नाव, और एक चांदनी…
…नाव चलाती हूँ गीतों की लय पर,
गीत की धुन पर सितारे चमकते हैं,
परियां मेरी नाव में रात गुजारती हैं…
पेडों की शाखों पर बने घोंसलों से
नन्ही चिडिया देखती है,
कोई व्यवधान नहीं होता,
जब रात का जादू चलता है…
ब्रह्म-मुहूर्त में जब सूरज
रश्मि रथ पर आता है-
मैं ये सारे सपने अपने
जादुई पोटली में रखती हूँ…
परियां आकर मेरे अन्दर छुपके बैठ जाती हैं कहीं
उनके पंखों की उर्जा लेकर
मैं सारे दिन उड़ती हूँ,
जब भी कोई ठिठकता है,
मैं मासूम बन जाती हूँ…
अपनी इस सपनों की दुनिया में मैं अक्सर
नन्हे बच्चों को बुलाती हूँ,
उनकी चमकती आंखों में
जीवन के मतलब पाती हूँ!
गर है आंखों में वो बचपन
तो आओ तुम्हे चाँद पे ले जायें
एक नदी, एक नाव, एक चाँदनी -
तुम्हारे नाम कर जायें… (रश्मि प्रभा)

और पन्त की रश्मि के नाम स्वप्न नीड़ से-
कूक उठी सहसा तरुवासिनी
गाया स्वागत का गाना
सच में, वसीयत इसे कहते हैं…. इस नाम के साथ कवि पन्त ने अपनी अभिप्सित कामना भी मेरे नाम की—-
‘अपने उर की सौरभ से
जग का आँगन भर देना …’
आह्लादित मन सुकुमार कवि से आज भी पूछता है उनके ही शब्दों में—
‘बाँध दिए क्यूँ प्राण प्राणों से
तुमने चिर अनजान प्राणों से...
गोपन रह न सकेगी
अब यह मर्म कथा
प्राणों की न रुकेगी
बढ़ती विरह व्यथा
विवश फूटते गान प्राणों से
बाँध दिए क्यूँ प्राण प्राणों से
तुमने चिर अनजान प्राणों से...
यह विदेह प्राणों का बंधन
अंतर्ज्वाला में तपता तन
मुग्ध हृदय सौन्दर्य ज्योति को
दग्ध कामना करता अर्पण
नहीं चाहता जो कुछ भी आदान प्राणों से
बाँध दिए क्यूँ प्राण प्राणों से
तुमने चिर अनजान प्राणों से...’

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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