श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 24 श्लोक 1-15

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एकादश स्कन्ध : चतुर्विंशोऽध्यायः (24)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

सांख्ययोग भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—प्यारे उद्धव! अब मैं तुम्हें सांख्यशास्त्र का निर्णय सुनाता हूँ। प्राचीन काल के बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों ने इसका निश्चय किया है। जब जीव इसे भलीभाँति समझ लेता है तो वह भेदबुद्धि मूलक सुख-दुःखादि रूप भ्रम का तत्काल त्याग कर देता है । युगों से पूर्व प्रलयकाल में आदिसत्ययुग में और जब कभी मनुष्य विवेक निपुण होते हैं—इन सभी अवस्थाओं में यह सम्पूर्ण दृश्य और द्रष्टा, जगत् और जीव विकल्पशून्य किसी प्रकार के भेदभाव से रहित केवल ब्रम्ह ही होते हैं । इसमें सन्देह नहीं कि ब्रम्हा में किसी प्रकार का विकल्प नहीं है, वह केवल—अद्वितीय सत्य हैं; मन और वाणी की उसमें गति नहीं है। वह ब्रम्ह ही माया और उसमें प्रतिबिम्बित जीव के रूप में—दृश्य और द्रष्टा के रूप में—दो भागों में विभक्त-सा हो गया । उनमें से एक वस्तु को प्रकृति कहते हैं। उसी ने जगत् में कार्य और कारण का रूप धारण किया है। दूसरी वस्तु को, जो ज्ञानस्वरुप है, पुरुष कहते हैं । उद्धवजी! मैंने ही जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार प्रकृति को क्षुब्ध किया। तब उसने सत्व, रज और तम—ये तीन गुण प्रकट हुए । उनसे किया-शक्ति प्रधान सूत्र और ज्ञानशक्ति प्रधान महतत्व प्रकट हुए। वे दोनों परस्पर मिले हुए ही हैं। महतत्व प्रकट हुए। महतत्व में विकार होने पर अहंकार व्यक्त हुआ। यह अहंकार ही जीवों को मोह में डालने वाला है । वह तीन प्रकार का है—सात्विक, राजस और तामस। अहंकार पंचतन्मात्रा, इन्द्रिय और मन का कारण है; इसलिये वह जड़-चेतन—उभयात्मक है । तामस अहंकार से पंचतन्मात्राएँ और उनसे पाँच भूतों की उत्पत्ति हुई। तथा राजस अहंकार से इन्द्रियाँ और सात्विक अहंकार से इन्द्रियों के अधिष्ठाता ग्यारह देवता[1] प्रकट हुए । ये सभी पदार्थ मेरी प्रेरणा से एकत्र होकर परस्पर मिल गये और इन्होने यह ब्रह्माण्ड रूप अण्ड उत्पन्न किया। यह अण्ड जल में स्थित हो गया, तब मैं नारायण रूप से इसमें विराजमान हो गया। मेरी नाभि से विश्वकमल की उत्पत्ति हुई। उसी पर ब्रम्हा का आविर्भाव हुआ । विश्वसमष्टि के अन्तःकरण ब्रम्हा ने पहले बहुत बड़ी तपस्या की। उसके बाद मेरा कृपा-प्रसाद प्राप्त करके रजोगुण के द्वारा भूः, भुवः, स्वः अर्थात् पृथ्वी, अन्तरिक्ष और स्वर्ग—इन तीन लोकों की और इनके लोकपालों की रचना की । देवताओं के निवास के लिये स्वर्लोक, भूत-प्रेतादि के लिये भुवर्लोक (अन्तरिक्ष) और मनुष्य आदि के लिये भूर्लोक (पृथ्वीलोक) का निश्चय किया गया। इन तीनों लोकों से ऊपर महर्लोक, तपलोक आदि सिद्धों के निवास स्थान हुए । सृष्टिकार्य में समर्थ ब्रम्हाजी ने असुर और नागों के लिये पृथ्वी के नीचे अतल, वितल, सुतल आदि सात पाताल बनाये। इन्हीं तीनों लोकों में त्रिगुणात्मक कर्मों के अनुसार विविध गतियाँ प्राप्त होती हैं । योग, तपस्या और संन्यास के द्वरा महर्लोक, जनलोक, तपलोक और सत्यलोक रूप उत्तम गति प्राप्त होती है तथा भक्तियोग से मेरा परम धाम मिलता है । यह सारा जगत् कर्म और उनके संस्कारों से युक्त है। मैं ही कालरूप से कर्मों के अनुसार उनके फल का विधान करता हूँ। इस गुण प्रवाह में पड़कर जीव कभी डूब जाता है और कभी ऊपर आ जाता है—कभी उसकी अधोगति होती है और कभी उसे पुण्यवश उच्चगति प्राप्त हो जाती है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक मन—इस प्रकार ग्यारह इन्द्रियों के अधिष्ठाता ग्यारह देवता हैं।

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