श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 24 श्लोक 16-29

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एकादश स्कन्ध : चतुर्विंशोऽध्यायः (24)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्यायः श्लोक 16-29 का हिन्दी अनुवाद



जगत् में छोड़े-बड़े, मोटे-पतले—जितने भी पदार्थ बनते हैं, सब प्रकृति और पुरुष दोनों के संयोग से ही सिद्ध होते हैं । जिसके आदि और अन्त में जो है, वही बीच में भी है और वही सत्य है। विकार तो केवल व्यवहार के लिये की हुई कल्पनामात्र है। जैसे कंगन-कुण्डल आदि सोने के विकार और घड़े-सकोरे आदि मिट्टी के विकार पहले सोना या मिट्टी ही थे, बाद में भी सोना या मिट्टी ही रहेंगे। अतः बीच में भी वे सोना या मिट्टी ही हैं। पूर्ववर्ती कारण (महतत्व आदि) भी जिस परम कारण को उपादान बनाकर अपर (अहंकार आदि) कार्य-वर्ग की सृष्टि करते हैं, वही उनकी अपेक्षा भी परम सत्य है। तात्पर्य यह कि जब जो जिस किसी भी कार्य के आदि और अन्त में विद्यमान रहता है, वही सत्य है । इस प्रपंच का उपादान-कारण प्रकृति है, परमात्मा अधिष्ठान है और इसको प्रकट करने वाला काल है। व्यवहार-काल की यह त्रिविधता वस्तुतः ब्रम्ह-स्वरुप है और मैं वही शुद्ध ब्रम्ह हूँ । जब तक परमात्मा की ईक्षणशक्ति अपना काम करती रहती है, जब तक उनकी पालन-प्रवृत्ति बनी रहती है, तब तक जीवों के कर्मभोग के लिये कारण-कार्य रूप से अथवा पिता-पुत्रादि के रूप से यह सृष्टि चक्र निरन्तर चलता रहता है । यह विराट् ही विविध लोकों की सृष्टि, स्थिति और संहार की लीलाभूमि है। जब मैं कालरूप से इसमें व्याप्त होता हूँ, प्रलय का संकल्प करता हूँ, तब यह भुवनों के साथ विनाश रूप विभाग योग्य हो जाता है । उसके लीन होने की प्रक्रिया यह है कि प्राणियों के शरीर अन्न में, अन्न बीज में, बीज भूमि में और भूमि गन्ध-तन्मात्रा में लीन हो जाती है । गन्ध जल में, जल अपने गुण रस में, रस तेज में और तेज रूप में लीन हो जाता है । रूप वायु में, वायु स्पर्श में, स्पर्श आकाश में तथा आकाश शब्दतन्मात्रा में लीन हो जाता है। इन्द्रियाँ अपने कारण देवताओं में और अन्ततः राजस अहंकार में समा जाती हैं । हे सौम्य! राजस अहंकार अपने नियन्ता सात्विक अहंकार रूप मन में, शब्दतन्मात्रा पंचभूतों के कारण तामस अहंकारों में और सारे जगत् को मोहित करने में समर्थ त्रिविध अहंकार महतत्व में लीन हो जाता है । ज्ञानशक्ति और क्रिया शक्ति प्रधान महतत्व अपने कारण गुणों में लीन हो जाता है। गुण अव्यक्त प्रकृति में और प्रकृति अपने प्रेरक अविनाशी काल में लीन हो जाती है । काल मायामय जीव में और जीव मुझ अजन्मा आत्मा में लीन हो जाता है। आत्मा किसी में लीन नहीं होता, वह उपाधिरहित अपने स्वरुप में ही स्थित रहता है। वह जगत् की सृष्टि और लय का अधिष्ठान एवं अवधि है । उद्धवजी! जो इस प्रकार विवेकदृष्टि से देखता है उसके चित्त में यह प्रपंच का भ्रम हो ही नहीं सकता। यदि कदाचित् उसकी स्फूर्ति हो भी जाय तो वह अधिक काल तक ह्रदय में ठहर कैसे सकता है ? क्या सूर्योदय होने पर भी आकाश में अन्धकार ठहर सकता है । उद्धवजी! मैं कार्य और कारण दोनों का ही साक्षी हूँ। मैंने तुम्हें सृष्टि से प्रलय और प्रलय से सृष्टि तक की सांख्यविधि बतला दी। इससे सन्देह की गाँठ कट जाती है और पुरुष अपने स्वरुप में स्थित हो जाता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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