श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 22 श्लोक 43-54

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 08:34, 11 July 2015 by प्रियंका वार्ष्णेय (talk | contribs) ('== एकादश स्कन्ध: द्वाविंशोऽध्यायः (22) == <div style="text-align:center; direction...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

एकादश स्कन्ध: द्वाविंशोऽध्यायः (22)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वाविंशोऽध्यायः श्लोक 43-54 का हिन्दी अनुवाद


जैसे काल के प्रभाव से दिये की लौ, नदियों के प्रवाह अथवा वृक्ष एक फलों की विशेष-विशेष अवस्थाएँ बदलती रहती हैं, वैसे ही समस्त प्राणियों के शरीरों की आयु, अवस्था आदि भी बदलती रहती है । जैसे यह उन्हीं ज्योतियों का वही दीपक है, प्रवाह का यह वही जल है—ऐसा समझना और कहना मिथ्या है, वैसे ही विषय-चिन्तन में व्यर्थ आयु बिताने वाले अविवेकी पुरुषों का ऐसा कहना और समझना कि यह वही पुरुष है, सर्वथा मिथ्या है । यद्यपि वह भ्रान्त पुरुष भी अपने कर्मों के बीज द्वारा न पैदा होता है और न तो मरता ही है; वह भी अजन्मा और अमर ही है, फिर भी भ्रान्ति से वह उत्पन्न होता है और मरता—सा भी है, जैसे कि काष्ठ से युक्ति अग्नि पैदा होता और नष्ट होता दिखायी पड़ता है। उद्धवजी! गर्भाधान, गर्भवृद्धि, जन्म, बाल्यावस्था, कुमारावस्था, जवानी, अधेड़ अवस्था, बुढ़ापा और मृत्यु—ये नौ अवस्थाएँ शरीर की ही हैं । यह शरीर जीव से भिन्न है और ये ऊँची-नीची अवस्थाएँ उसके मनोरथ के अनुसार ही हैं; परन्तु वह अज्ञानवश गुणों के संग से इन्हें अपनी मानकर भटकने लगता है और कभी-कभी विवेक हो जाने पर इन्हें छोड़ भी देता है । पिता को पुत्र के जन्म से और पुत्र को पिता की मृत्यु से अपने-अपने जन्म-मरण का अनुमान कर लेना चाहिये। जन्म-मृत्यु से युक्त देहों का द्रष्टा जन्म और मृत्यु से युक्त शरीर नहीं है । जैसे जौ-गेंहूँ आदि की फसल बोने पर उग आती है और पक जाने पर काट दी जाती है, किन्तु जो पुरुष उनके उगने और काटने का जानने वाला साक्षी है, वह उनसे सर्वथा पृथक् है; वैसे ही जो शरीर और उसकी अवस्थाओं का साक्षी है, वह शरीर से सर्वथा पृथक् है । अज्ञानी परुष इस प्रकार प्रकृति और शरीर से आत्मा का विवेचन नहीं करते। वे उसे उनसे तत्वतः अलग अनुभव नहीं करते और विषय भोग में सच्चा सुख मानने लगते हैं तथा उसी में मोहित हो जाते हैं। इसी से उन्हें जन्म-मृत्यु रूप संसार में भटकना पड़ता है । जब अविवेकी जीव अपने कर्मों के अनुसार जन्म-मृत्यु के चक्र के भटकने लगता है, तब सात्विक कर्मों की आसक्ति वह ऋषिलोक और देवलोक में राजसिक कर्मों की आसक्ति से मनुष्य और असुरयोनियों में तथा तामसी कर्मों की आसक्ति से भूत-प्रेत एवं पशु-पक्षी आदि योनियों में जाता है । जब मनुष्य किसी को नाचते-गाते देखता है, तब वह स्वयं भी उसका अनुकरण करने-तान तोड़ने लगता है। वैसे ही जब जीव बुद्धि के गुणों को देखता है, तब स्वयं निष्क्रिय होने पर ही भी उसका अनुकरण करने के लिये बाध्य हो जाता है । जैसे नदी-तालाब आदि के जल के हिलने या चंचल होने पर उसमें प्रतिबिम्बित तट के वृक्ष भी उसके साथ हिलते-डोलते-से जान पड़ते हैं, जैसे घुमाये जाने वाले नेत्र के साथ-साथ पृथ्वी भी घुमती हुई-सी दिखायी देती है, जैसे मन के द्वारा सोचे गये तथा स्वप्न में देखे गये भोग पदार्थ सर्वथा अलीक ही होते हैं, वैसे ही हे दाशार्द! आत्मा का विषयानुभव रूप संसार भी सर्वथा असत्य है। आत्मा तो नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव ही है ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः