संपति भरम गँवाइके -रहीम

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संपति भरम गँवाइके, हाथ रहत कछु नाहिं ।
ज्यों ‘रहीम’ ससि रहत है, दिवस अकासहिं माहिं ॥

अर्थ

बुरे व्यसन में पड़कर जब कोई अपना धन खो देता है, तब उसकी वही दशा हो जाती है, जैसी दिन में चन्द्रमा की। अपनी सारी कीर्ति से वह हाथ धो बैठता है, क्योंकि उसके हाथ में तब कुछ भी नहीं रह जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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