श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 25-37

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 09:54, 24 February 2017 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (Text replacement - "ह्रदय" to "हृदय")
Jump to navigation Jump to search

एकादश स्कन्ध :चतुर्दशोऽध्यायः (14)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः श्लोक 25-37 का हिन्दी अनुवाद


जैसे आग में तपाने पर सोना मैल छोड़ देता है—निखर जाता है और अपने असली शुद्ध रूप में स्थित हो जाता है, वैसे ही मेरे भक्तियोग के द्वारा आत्मा कर्म-वासनाओं से मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त हो जाता है, क्योंकि मैं ही उसका वास्तविक स्वरुप हूँ । उद्धवजी! मेरी परमपावन लीला-कथा के श्रवण-कीर्तन से ज्यों-ज्यों चित्त का मैल धुलता जाता है, त्यों-त्यों उसे सूक्ष्म-वस्तु के—वास्तविक तत्व के दर्शन होने लगते हैं—जैसे अंजन के द्वारा नेत्रों का दोष मिटने पर उसमें सूक्ष्म वस्तुओं को देखने की शक्ति आने लगती है । जो पुरुष निरन्तर विषय-चिन्तन किया करता है, उसका चित्त विषयों में फँस जाता है और जो मेरा स्मरण करता है, उसका चित्त मुझमें तल्लीन हो जता है । इसलिये तुम दूसरे साधनों और फलों का चिन्तन छोड़ दो। अरे भाई! मेरे अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं, जो कुछ जान पड़ता है, वह ठीक वैसा ही है जैसे स्वप्न अथवा मनोरथ का राज्य। इसलिये मेरे चिन्तन से तुम अपना चित्त शुद्ध कर लो और उसे पूरी तरह से—एकाग्रता से मुझमें ही लगा दो । संयमी पुरुष स्त्रियों और उनके प्रेमियों का संग दूर से ही छोड़कर, पवित्र एकान्त स्थान में बैठकर बड़ी सावधानी से मेरा ही चिन्तन करे । प्यारे उद्धव! स्त्रियों के संग से और स्त्रीसंगियों के—लम्पटों के संग से पुरुष को जैसे क्लेश और बन्धन में पड़ना पड़ता है, वैसा क्लेश और फँसावट और किसी के भी संग से नहीं होती । उद्धवजी ने पूछा—कमलनयन श्यामसुन्दर! आप कृपा करके यह बतलाइये कि मुमुक्षु पुरुष आपका किस रूप से, किस प्रकार और किस भाव से ध्यान करे ? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—प्रिय उद्धव! जो न तो बहुत ऊँचा हो और न बहुत नीचा ही—ऐसे आसन पर शरीर को सीधा रखकर आराम से बैठ जाय, हाथों को अपनी गोद में रख ले और दृष्टि अपनी नासिका के अग्रभाग पर जमावे । इसके बाद पूरक, कुम्भक और रेचक तथा रेचक, कुम्भक और पूरक—इन प्राणायामों के द्वारा नाड़ियों का शोधन करे। प्राणायाम का अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिये और उसके साथ-साथ इन्द्रियों को जीतने का भी अभ्यास करना चाहिये । हृदय में कमलनालगत पतले सूत के समान ऊँकार का चिन्तन करे प्राण के द्वारा उसे ऊपर ले जाय और उसमें घण्टानाद के समान स्वर स्थिर करे। उस स्वर का ताँता टूटने न पावे । इस प्रकार प्रतिदिन तीन समय दस-दस बार ऊँकार सहित प्राणायाम का अभ्यास करे। ऐसा करने से एक महीने के अन्दर ही प्राणवायु वश में जो जाता है । इसके बाद ऐसा चिन्तन करे कि हृदय एक कमल है, वह शरीर के भीतर इस प्रकार स्थित है मानो उसकी डंडी तो ऊपर की ओर है और मुँह नीचे है ओर। अब ध्यान करना चाहिये कि उसका मुख ऊपर की ओर होकर खिल गया है, उसके आठ दल (पंखुड़ियाँ) है और उनके बीचोबीच पीली-पीली अत्यत्न सुकुमार कर्णिका (गद्दी) है । कर्णिका पर क्रमशः सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि का न्यास करना चाहिये। तदनन्तर अग्नि के अन्दर मेरे इस रुप स्मरण करना चाहिये। मेरा यह स्वरुप ध्यान के लिये बड़ा ही मंगलमय है ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः