आर्य पुद्गल

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 07:41, 19 June 2018 by यशी चौधरी (talk | contribs) (''''आर्य पुद्गल''' प्रधानत: चार होते हैं: (1) श्रोतापन्न, अ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

आर्य पुद्गल प्रधानत: चार होते हैं: (1) श्रोतापन्न, अर्थात्‌ वह मुमुक्षु योगी जो इस अवस्था को प्राप्त हो चुका है, जिसका मुक्त होना निश्चित है और जिसका च्युत होना असंभव है। अधिक से अधिक वह सात जन्म ग्रहण करता है। इसी के भीतर वह निर्वाण प्राप्त कर लेता है, (2) सकृदागामी, जो मरणोपरांत इस लोक में एक बार और जन्म ग्रहण कर मुक्ति का लाभ करता है, (3) अनागामी, वह जो मरणोपरांत किसी ऊँचे लोक में पैदा होता है और बिना इस लोक में जन्म ग्रहण किए वही अर्हत्‌ हो जाता है और (4) अर्हत्‌ जिसने अविद्या अंत कर परममुक्ति का लाभ कर लिया है। इन चार आर्य पुद्गलों के दो-दो भेद होते हैं-एक उस अवस्था के जब उन्हें उन पदों की प्राप्ति हो जाती है। पहले उस अवस्था के जब उन्हें उस पद की प्राप्ति का ज्ञान हो जाता है। पहले को 'मार्गस्थ' और दूसरे को 'फलस्थ' कहते हैं। इस प्रकार आर्य पुद्गल के आठ भेद हुए।[1]


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 440 |

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः