एकांतिक

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एकांतिक वैष्णव संप्रदाय का प्राचीन नाम। वैष्णव संप्रदाय को प्राचीन काल में अनेक नामों से पुकारते थे जिनमें भागवत, सात्वत तथा पांचरात्र नाम विशेष विख्यात हैं। 'एकांतिक' भी इसी का अपर पर्याय है। 'पद्मतंत्र' नामक पांचरात्र संहिता का यह वचन प्रमाण के लिए उपस्थित किया जा सकता है:

सूरि: सुहृद् भागवत: सात्वत: पंचकालवित्‌।

एकान्तिकस्तन्मयश्च पांचरात्रिक इत्यपि।।[1]

इस नामकरण के लिए पर्याप्त कारण विद्यमान है। 'एकांतिक' शब्द का अर्थ है-वह धर्म जिसमें एक ही (भगवान्‌) अंत या सिद्धांत माना जाए। भागवत धर्म का प्रधान तत्व है प्रपत्ति या शरणागति। भगवान्‌ की शरण में जाने पर ही जीव का कल्याण होता है। भगवान्‌ की जब तक कृपा जीव पर नहीं होती, तब तक उसका उद्धार नहीं होता। इस कृपा को क्रियाशील बनाने के लिए 'शरणागति' ही परम साधन है। इसलिए भागवतों का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ भगवद्गीता 'मामेकं शरणं ्व्राज' की गौरवपूर्ण शिक्षा देती है। एकांती भक्त की भगवत्प्राप्ति का वर्णन अनुस्मृत्ति में किया गया है।

एकान्तिनो हि निर्द्वन्द्वा निराशा: कर्मकारिण:।

ज्ञानग्निदग्ध-कर्माणस्त्वां विशन्ति मनस्विन:।।[2]

उपनिषद् युग में भागवत धर्म 'एकायन' नाम से प्रख्यात था जो 'एकांतिक' का ही एक नूतन अभिधान है। छांदोग्य उपनिषद् [3]में भूमाविद्या के वर्णनप्रसंग में नारद के द्वारा अधीत विद्याओं में 'एकायनविद्या' के नाम का प्रथम उल्लेख उपलब्ध होता है- ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि यजुर्वेदं सामवेदमथर्वाणं वाकोवाक्यमेकायन च। इस शब्द के अर्थ के विषय में प्राचीन टीकाकारों में मतभेद है। रंग रामानुज नामक श्रीवैष्णव टीकाकार की सम्मति में 'एकायन' शब्द वेद की 'एकायन शाखा' का द्योतक है जिसका साक्षात्‌ संबंध भागवत्‌ या वैष्णव संप्रदाय से है। नारद पांचरात्रीय भक्ति के महनीय आचार्य हैं। वे ही छांदोग्य के पूर्वोक्त प्रसंग में एकायन विद्या के ज्ञाता रूप से उल्लिखित किए गए हैं। इस कारण भी 'एकायन' विद्या को भागवत शास्त्र के अर्थ में ग्रहण करना उचित प्रतीत होता है। शुक्ल यजुर्वेद की काण्व शाखा का ही नाम 'एकायन शाखा' है, ऐसा 'काण्व शाखामहिमा संग्रह' नामक ग्रंथ में नागेश का कथन है। इस मत की पुष्टि 'जयाख्य संहिता' से भी होती है। इस संहिता के अनुसार पांचरात्र (वेष्णव मत) के प्रवर्तक पाँचों ऋषि, जिनके नाम औपगायन, कौशिक, शांडिल्य, भरद्वाज तथा मौंजायन हैं, काण्व शाखा के अध्येता बतलाए गए हैं[4] फलत: 'एकांतिक' तथा 'एकायन' दोनों शब्द प्राचीन भागवत संप्रदाय के लिए प्रयुक्त होते थे; यह तथ्य मानना नितांत उचित है।[5]

एकांतिक धर्म की प्राचीन संहिताओं की संख्या 108 के ऊपर बतलाई जाती है जिनमें अहिर्बुध्न्य, जयाख्य तथा बृहद् ब्रह्मसंहिता मुख्य हैं। इनमें चार विषयों का प्रतिपादन विशेष रूप से किया गया है-ज्ञान, योग, क्रिया तथा चर्या। ज्ञान के अंतर्गत ब्रह्म, जीव तथा जगत्‌ के आध्यात्मिक रूप का और सृष्टितत्व का विशेष निरूपण किया गया है। योग प्रकरण में मुक्ति के साधनभूत योग तथा उसकी प्रक्रियाओं का विवरण है। क्रियाप्रकरण में वैष्णव मंदिरों का निर्माण, मूर्ति की स्थापना आदि विषयों का वर्णन है। चर्या के अंतर्गत आह्विक क्रिया, मूर्तियों के पूजन का विस्तृत विवरण, पर्व तथा उत्सव के अवसरों पर विशिष्ट पूजा का विधान वर्णित है। इन्हीं संहिताओं के आधार पर वैष्णव संप्रदायों की विशेष उन्नति मध्य युग में होती रही।[6]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (पद्मतंत्र, 4।2।८८)
  2. (अनुस्मृति, श्लोक 48)
  3. (7।1।2)
  4. (जयाख्य संहिता 1।116)।
  5. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 211 |
  6. सं.ग्रं.-डॉ.श्रादेर : ऐन इंट्रोडक्‌शन टु पांचरात्र सिस्टम, अड्यार, 1916; बलदेव उपाध्याय : भागवत संप्रदाय, काशी, सं. 2010।

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